‘मैं घर आऊं तो मेरी पत्नी को घर में हाजिर होना चाहिए’, ‘इतने सालों में तुम्हें यह भी पता नहीं चला’, ‘तुम्हारा ऐसा कौन सा जरूरी काम था, जो तुम समय पर घर नहीं आ सकीं?’ जैसे शब्द संविधा पहले से सुनती आई थी.
वह कहीं बाहर गई हो, किसी सहेली या रिश्तेदार के यहां गई हो, घर के किसी काम से गई हो, अगर उसे आने में थोड़ी देर हो गई तो क्या बिगड़ गया? राजेश को जस का तस सुनाने का मन होता. शब्द भी होंठों पर आते, पर उस का मिजाज और क्रोध से लालपीला चेहरा देख कर वे शब्द संविधा के गले में अटक कर रह जाते. जब तक हो सकता था, वह घर में ही रहती थी.
एक समय था, जब संविधा को संगीत का शौक था. कंठ भी मधुर था और हलक भी अच्छी थी. विवाह के बाद भी वह संगीत का अभ्यास चालू रखना चाहती थी. घर के काम करते हुए वह गीत गुनगुनाती रहती थी. यह एक तरह से उस की आदत सी बन गई थी. पर जल्दी ही उसे अपनी इस आदत को सुधारना पड़ा, क्योंकि यह उस की सास को अच्छा नहीं लगता था.
सासूमां ने कहा था, ‘‘अच्छे घर की बहूबेटियों को यह शोभा नहीं देता.’’बस तब से शौक धरा का धरा रह गया. फिर तो एकएक कर के 3 बच्चों की परवरिश करने तथा एक बड़े परिवार में घरपरिवार के तमाम कामों को निबटाने में दिन बीतने लगे. कितनी बरसातें और बसंत ऋतुएं आईं और गईं, संविधा की जिंदगी घर में ही बीतने लगी.
‘संविधा तुुम्हें यह करना है, तुम्हें यह नहीं करना है’, ‘आज शादी में चलना है, तैयार हो जाओ’, ‘तुम्हारे पिताजी की तबीयत खराब है, 3-4 दिन के लिए मायके जा कर उन्हें देख आओ. 5वें दिन वापस आ जाना, इस से ज्यादा रुकने की जरूरत नहीं है’ जैसे वाक्य वह हमेशा सुनती आई है.
घर में कोई मेहमान आया हो या कोई तीजत्योहार या कोई भी मौका हो, उसे क्या बनाना है, यह कह दिया जाता. क्या करना है, कोई यह उस से कहता और बिना कुछ सोचेविचारे वह हर काम करती रहती.ससुराल वाले उस का बखान करते. सासससुर कहते, ‘‘बहू बड़ी मेहनती है, घर की लक्ष्मी है.’’