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पति राजेश को भी उस का शांत, आज्ञाकारी, लड़ाईझगड़ा न करने वाला स्वभाव अनुकूल लगता था. पति खुशीखुशी तीजत्योहार पर उस के लिए कोई न कोई उपहार खरीद लाता, पर इस में भी उस की पसंद न पूछी जाती. संविधा का संसार इसी तरह सालों से चला आ रहा था.

किसी से सवाल करने या किसी की बात का जवाब देने की उस की आदत नहीं थी. राजेश के गुस्से से वह बहुत डरती थी. उसे नाराज करने की वह हिम्मत नहीं कर पाती थी.

बच्चे अब बड़े हो गए थे. पर अभी भी उस के मन की, इच्छा की, विचारों की, पसंदनापसंद की घर में कोई कीमत नहीं थी. इसलिए इधर वह जब रोजाना शाम को पार्क में, पड़ोस में, सहेलियों के यहां और महिलाओं के समूह की बैठकों में जाने लगी तो राजेश को ही नहीं, बेटी और बहुओं को भी हैरानी हुई.

आखिर एक दिन शाम को खाते समय बेटे ने कह ही दिया, ‘‘मम्मी, आजकल आप रोजाना शाम को कहीं न कहीं जाती हैं. आप तो एकदम से मौडर्न हो गई हैं.’’उस समय संविधा कुछ नहीं बोली. अगले दिन वह जाने की तैयारी कर रही थी, तभी बहू ने कहा, ‘‘मम्मी, आज आप बाहर न जाएं तो ठीक है. आप बच्चे को संभाल लें, मुझे बाहर जाना है.’’

‘‘आज तो मुझे बहुत जरूरी काम है, इसलिए मैं घर में नहीं रुक सकती,’’ संविधा ने कहा.उस दिन संविधा को कोई भी जरूरी काम नहीं था. लेकिन उस ने तो मन ही मन तय कर लिया था कि अब उस से कोई भी काम बिना उस की मरजी के नहीं करवा सकता. उस का समय अब उस के लिए है. कोई भी काम अब वह अपनी इच्छानुसार करेगी. वह किसी का भी काम उस की इच्छानुसार नहीं करेगी. कोई भी अब उसकी मरजी के खिलाफ अपना काम नहीं करवा सकता, क्योंकि उस की भी अपनी इच्छाएं हैं. अब वह किसी के हाथ से चलने वाली कठपुतली बन कर नहीं रहेगी.

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