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पति के छिनते ही पद्मा की जैसे दुनिया ही छिन गई थी. कछुए की तरह अपने भीतर सिमट कर रह गई थी, अपने घर में, अपने कमरे में.

कल्पना अकसर कहा करती, ‘मां, आप का जी नहीं घबराता इस तरह गुमसुम रहतेरहते?’

वह हंसने का निष्फल प्रयास करती, ‘कहां हूं गुमसुम, खुश तो हूं.’ पर कहां थी, वह खुश? खाली हाथ, रीता जीवन, एक सतत प्यास लिए सूखा रेगिस्तान मन, उड़ती हुई रेत और सुनसान दिशाएं. औरत, पुरुष के बिना अधूरी क्यों रह जाती है?

अपने जीवन से हट कर पद्मा देखी हुई फिल्म के बारे में सोचने लगी…उसे लगा, वह खुद देवदास के किरदार में है, ‘अब तो सिर्फ यही अच्छा लगता है कि कुछ भी अच्छा न लगे,’ ‘यह प्यास बुझती क्यों नहीं’, ‘क्यों पारो की याद सताती है?’, ‘कौन कमबख्त पीता है होश में रहने के लिए? मैं तो पीता हूं जीने के लिए कि कुछ सांसें ले सकूं’, ‘मैं नहीं कर सकता. क्या सभी लोग सभीकुछ करते हैं?’ फिल्म के ऐसे कितने ही वाक्य थे, जो उस के दिलोदिमाग में ज्यों के त्यों खुद से गए थे. क्या हर दुख झेलने वाला व्यक्ति देवदास है? क्या देवदास आज की भी कड़वी सचाई नहीं है?

‘चंद्रमुखी, तुम्हारा यह बाहर का कमरा तो बिलकुल बदल गया.’

क्या जवाब दिया चंद्रमुखी ने, ‘बाहर का ही नहीं, अंदर का भी सब बदल गया है.’

क्या सचमुच वह भी बाहरभीतर से बदल नहीं गई पूरी तरह? चंद्रमुखी ने वेश्या का पेशा छोड़ दिया है. देवदास कहता है, ‘छोड़ तो दिया है, पर औरतों का मन बहुत कमजोर होता है, चंद्रमुखी.’

पद्मा सोचती है, ‘क्या सचमुच औरतों का मन बहुत कमजोर होता है? क्या आदमी का मोह, आदमी की चाह, उसे कभी भी डिगा सकती है? वह कभी भी उस के मोहपाश में बंध कर अपना आगापीछा भुला सकती है?’

अचानक पद्मा हड़बड़ा गई क्योंकि आगे चलता एक व्यक्ति अचानक चकरा कर उस के पास ही फुटपाथ पर गिर पड़ा था. वह कुछ समझ नहीं पाई. बगल के पान वाले की दुकान से पद्मा ने पानी लिया और उस के चेहरे पर छींटे मारे. लोगों की भीड़ जुट गई, ‘कौन है? कहां का है? क्या हुआ?’ जैसे तमाम सवाल थे, जिन के उत्तर उस के पास नहीं थे.

लोगों की सहायता से पद्मा ने उस व्यक्ति को एक तिपहिए पर लदवाया, खुद साथ बैठी और मैडिकल कालेज के आपात विभाग पहुंची.

पद्मा ने तिपहिया चालक की सहायता से उस व्यक्ति को उतारा और आपात विभाग में ले जा कर एक बिस्तर पर लिटा दिया. कल्पना को तलाश करवाया तो वह दौड़ी आई, ‘‘क्या हुआ, मां, कौन है यह?’’

पद्मा क्या जवाब देती, हौले से सारी घटना बता दी.

‘‘तुम भी गजब करती हो, मां. ऐसे ही कोई आदमी गिर पड़ा और तुम ले कर यहां चली आईं. मरने देतीं वहीं.’’

उस ने बेटी को अजीब सी नजरों से देखा कि यह क्या कह रही है? मरने देती? सहायता न करती? यह भी कोई बात हुई? अनजान आदमी है तो क्या हुआ, है तो आदमी ही.

‘‘दूसरे लोग उठाते और किसी अस्पताल ले जाते. या फिर पुलिस उठाती. आप क्यों लफड़े में पड़ीं, मरमरा गया तो जवाब कौन देगा?’’ भुनभुनाती कल्पना डाक्टरों के पास दौड़ी.

डाक्टरों ने कल्पना के कारण उस की अच्छी देखभाल की. 2 घंटे बाद उसे होश आया. दाएं हिस्से में जुंबिश खत्म हो गई थी, लकवे का असर था.

जब उसे ठीक से होश आ गया तो पद्मा को खुशी हुई, एक अच्छा काम करने का आत्मसंतोष. उस ने उस व्यक्ति से पूछा, ‘‘आप कहां रहते हैं?’’

‘‘कहीं नहीं और शायद सब कहीं,’’ वह अजीब तरह से मुसकराया.

‘‘हम लोग आप के घर वालों को खबर करना चाहते थे, पर आप की जेब से कोई अतापता नहीं मिला. सिर्फ रुपए थे पर्स में, ये रहे, गिन लीजिए,’’ पद्मा ने पर्स उस की तरफ बढ़ाया.

कल्पना भी निकट आ कर बैठ गई थी.

‘‘मैडम, जो लोग सड़क पर गिरे आदमी को अस्पताल पहुंचाते हैं, वे उस का पर्स नहीं मारते,’’ वह उसी तरह मुसकराता रहा, ‘‘समझ नहीं पा रहा, आप को धन्यवाद दूं या खुद को कोसूं.’’

‘‘क्यों भला?’’ कल्पना ने पूछा, ‘‘आप के बीवीबच्चे आप की कुशलता सुन कर कितने प्रसन्न होंगे, यह एहसास है आप को?’’

‘‘कोई नहीं है अब हमारा,’’ वह आदमी उदास हो गया, ‘‘2 साल हुए, हत्यारों ने घर में घुस कर मेरी बेटी और पत्नी के साथ बलात्कार किया था. लड़के ने बदमाशों का मुकाबला किया तो उन लोगों ने तीनों की हत्या कर दी.’’

‘‘यह सुन कर वे दोनों सन्न रह गईं.

काफी देर तक खामोशी छाई रही, फिर पद्मा ने पूछा, ‘‘आप कहां रहते हैं?’’

‘‘कहां बताऊं? शायद कहीं नहीं. जिस घर में रहता था, वहां हर वक्त लगता है जैसे मेरी बेटी, पत्नी और बेटा लहूलुहान लाशों के रूप में पड़े हैं. इसलिए उस घर से हर वक्त भागा रहता हूं.’’

‘‘यहां लखनऊ में आप कैसे आए थे?’’ कल्पना ने पूछा.

‘‘इलाहाबाद में किताबों का प्रकाशक हूं. स्कूल, कालेजों की पुस्तकें प्रकाशित करता हूं-पाठ्यपुस्तकों से ले कर कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक आदि तक,’’ वह बोला, ‘‘यहां इसी सिलसिले में आया था. हजरतगंज के एक होटल में ठहरा हूं. एक सिनेमाहौल में पुरानी फिल्म ‘देवदास’ लगी है, उसे देखने गया था कि रास्ते में गश खा कर गिर पड़ा.’’

डाक्टरों से बात कर के कल्पना उस व्यक्ति को मां के साथ घर लिवा लाई, ‘‘चलिए, आप यहीं रहिए कुछ दिन,’’ उस ने कहा, ‘‘हम आप का सामान होटल से ले आते हैं. कमरे की चाबी दीजिए और होटल की कोई रसीद हो, तो वह…’’

‘‘रसीद तो कमरे में ही है, चाबी यह रही,’’ उस ने जेब से निकाल कर चाबी दी.

कल्पना ने मां को बताया, ‘‘इन्हें कोई ठंडी चीज मत देना. गरम चाय या कौफी देना.’’

फिर एक पड़ोसी को साथ ले कर कल्पना चली गई.

पद्मा कौफी बना लाई. उस व्यक्ति ने किसी तरह बैठने का प्रयास किया, ‘‘बिलकुल इतनी ही उम्र थी मेरी बेटी की,’’ उस का गला भर्रा गया, आंखों में नमी तिर आई.

‘‘भूल जाइए वह सब, जो हुआ,’’ पद्मा बोली, ‘‘आप अकेले नहीं हैं इस धरती पर जिन्हें दुख झेलना पड़ा, ऐसे तमाम लोग हैं.’’

वह कुछ बोला नहीं, भरीभरी आंखों से पद्मा की तरफ देखता रहा और कौफी के घूंट भरता रहा.

‘‘सच पूछिए तो अब जीने की इच्छा ही नहीं रह गई,’’ वह बोला, ‘‘कोई मतलब नहीं रह गया जीने का. बिना मकसद जिंदगी जीना शायद सब से मुश्किल काम है.’’

‘‘शायद आप ठीक कहते हैं,’’ पद्मा के मुंह से निकल गया, ‘‘मैं ने भी ऐसा ही कुछ अनुभव किया जब कल्पना के पिता ने अचानक एक दिन मुझे छोड़ दिया.’’

‘‘आप जैसी नेक औरत को भी कोई आदमी छोड़ सकता है क्या?’’ उसे विश्वास नहीं हुआ.

‘‘मधु नामक एक लड़की पड़ोस में रहती थी. हमारे घर आतीजाती थी. वे उसी के मोह में फंस गए. कल्पना तब छोटी थी. वे चले गए मुझे छोड़ कर,’’ पता नहीं वह यह सब उस से क्यों कह बैठी.

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