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वह यादों के भंवर में डूबती चली जा रही थी. ‘नहीं, न वह देवदास की पारो है, न चंद्रमुखी. वह तो सिर्फ पद्मा है.’ कितने प्यार से वे उसे पद्म कहते थे. पहली रात उन्होंने पद्म शब्द का मतलब पूछा था.

वह झेंपती हुई बोली थी, ‘कमल’.

‘सचमुच, कमल जैसी ही कोमल और वैसे ही रूपरंग की हो,’ उन्होंने कहा था.

पर फिर पता नहीं क्या हुआ, कमल से वह पंकज रह गई, पंकजा. क्यों हुआ ऐसा उस के साथ? दूसरी औरत जब पराए मर्द पर डोरे डालती है तो वह यह सब क्यों नहीं सोचा करती कि पहली औरत का क्या होगा? उस के बच्चों का क्या होगा? ऐसी औरतें परपीड़ा में क्यों सुख तलाशती हैं?

हजरतगंज के मेफेयर टाकीज में ‘देवदास’ फिल्म लगी थी. बेटी ने जिद कर के उसे भेजा था, ‘क्या मां, आप हर वक्त घर में पड़ी कुछ न कुछ सोचती रहती हैं, घर से बाहर सिर्फ स्कूल की नौकरी पर जाती हैं, बाकी हर वक्त घर में. ऐसे कैसे चलेगा? इस तरह कसेकसे और टूटेटूटे मन से कहीं जिया जा सकता है?’

लेकिन वह तो जैसे जीना ही भूल गई थी, ‘काहे री कमलिनी, क्यों कुम्हलानी, तेरी नाल सरोवर पानी.’ औरत का सरोवर तो आदमी होता है. आदमी गया, कमल सूखा. औरत पुरुषरूपी पानी के साथ बढ़ती जाती है, ऊपर और ऊपर. और जैसे ही पानी घटा, पीछे हटा, वैसे ही बेसहारा हो कर सूखने लगती है, कमलिनी. यही तो हुआ पद्मा के साथ भी. प्रभाकर एक दिन उसे इस तरह बेसहारा छोड़ कर चले जाएंगे, यह तो उस ने सपने में भी नहीं सोचा था. पर ऐसा हुआ.

उस दिन प्रभाकर ने एकदम कह दिया, ‘पद्म, मैं अब और तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहता. अगर झगड़ाझंझट करोगी तो ज्यादा घाटे में रहोगी, हार हमेशा औरत की होती है. मुझ से जीतोगी नहीं. इसलिए जो कह रहा हूं, राजीखुशी मान लो. मैं अब मधु के साथ रहना चाहता हूं.’

पति का फैसला सुन कर वह ठगी सी रह गई थी. यह वही मधु थी, जो अकसर उस के घर आयाजाया करती थी. लेकिन उसे क्या पता था, एक दिन वही उस के पति को मोह लेगी. वह भौचक देर तक प्रभाकर की तरफ ताकती रही थी, जैसे उन के कहे वाक्यों पर विश्वास न कर पा रही हो. किसी तरह उस के कंठ से फूटा था, ‘और हमारी बेटी, हमारी कल्पना का क्या होगा?’

‘मेरी नहीं, वह तुम्हारी बेटी है, तुम जानो,’ प्रभाकर जैसे रस्सी तुड़ा कर छूट जाना चाहते थे, ‘स्कूल में नौकरी करती हो, पाल लोगी अपनी बेटी को. इसलिए मुझे उस की बहुत फिक्र नहीं है.’

पद्मा हाथ मलती रह गईर् थी. प्रभाकर उसे छोड़ कर चले गए थे. अगर चाहती तो झगड़ाझंझट करती, घर वालों, रिश्तेदारों को बीच में डालती, पर वह जानती थी, सिवा लोगों की झूठी सहानुभूति के उस के हाथ कुछ नहीं लगेगा.

समझदार होने पर कल्पना ने एक दिन कहा था, ‘मां, आप ने गलती की, इस तरह अपने अधिकार को चुपचाप छोड़ देना कहां की बुद्धिमत्ता है?’

‘बेटी, अधिकार देने वाला कौन होता है?’ उस ने पूछा था, ‘पति ही न, पुरुष ही न? जब वही अधिकार देने से मुकर जाए, तब कैसा अधिकार?’

पद्मा ने बहुत मुश्किल से कल्पना को पढ़ायालिखाया. मैडिकल की तैयारी के लिए लखनऊ में महंगी कोचिंग जौइन कराई. जब वह चुन ली गई और लखनऊ के ही मैडिकल कालेज में प्रवेश मिल गया तो पद्मा बहुत खुश हुई. उस का मन हुआ, उन्नाव जा कर प्रभाकर को यह सब बताए, मधु को जलाए, क्योंकि उस के बच्चे तो अभी तक किसी लायक नहीं हुए थे. वह प्रभाकर से कहना चाहती थी कि वह हारी नहीं. उन्नाव जाने की तैयारी भी की, पर कल्पना ने मना कर दिया, ‘इस से क्या लाभ होगा, मां? जब अब तक आप ने संतोष किया, तो अब तो मैं जल्दी ही बहुतकुछ करने लायक हो जाऊंगी. जाने दीजिए, हम ऐसे ही ठीक हैं.’

पद्मा अकेली हजरतगंज के फुटपाथ पर सोचती चली जा रही थी. जया वहीं से डौलीगंज के लिए तिपहिए पर बैठ कर चली गई थी. उसे मुख्य डाकघर से तिपहिया पकड़ना था.

जया और वह एक ही स्कूल में पढ़ाती थीं. पद्मा अकेली फिल्म देखने नहीं जाना चाहती थी. लड़की की जिद बताई तो जया हंस दी, ‘चलो, मैं चलती हूं तुम्हारे साथ. अपने जमाने की प्रसिद्ध फिल्म है.’

 

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