सुचेता का अतीत बहुत कठोर था. वह उसे कभी नहीं याद करती थी, पर आज न चाहते हुए भी वह अतीत की लहरों में गोते लगाने लगी थी.
उस लड़के से सुचेता की मुलाकात कालेज कैंपस में हुई थी. एकलव्य शुक्ला नाम था उस का. सामान्य सा दिखने वाला एकलव्य फाइन आर्ट की पढ़ाई कर रहा था. कला में उस की गहरी रुचि थी. उस की यही रुचि अपने को और भी तब दिखाई देती, जब विश्वविद्यालय में कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम होना होता. स्टेज की सजावट से ले कर मुख्य द्वार तक सारी सजावट का जिम्मा एकलव्य के कंधों पर ही तो होता था और एकलव्य को तो जैसे जिम्मेदारियां ओढ़ने और उन्हें निभाने में आनंद आता था. वह बखूबी अपनी जिम्मेदारियां निभाता, इसीलिए सभी प्रोफैसर और लड़कियां उसे बहुत पसंद करते थे.
सुचेता को लेखन का शौक तो था और वह किताबों और समाचारपत्रों में आर्टिकल्स आदि लिखा भी करती थी, पर उसे मूर्ति या चित्रकला में अधिक रुचि नहीं थी.
"पता नहीं, अब इस पत्थर की मूर्ति में क्या अच्छा लगता है लोगों को? न तो इस का कहीं सिर है और न ही पैर. बस, लोग अपने को अलग और मौडर्न दिखाने को कुछ भी पसंद करते हैं. कागज पर किसी भी तरह के फैले हुए रंग को पेंटिंग कहने लगते हैं," सुचेता ने कैंपस के बीचोंबीच एक मूर्ति को देखते हुए कहा, तो पीछे खड़ा हुआ एकलव्य हंस पड़ा था और हंस कर खुद ही मूर्तिकला की विशेषताएं सुचेता को बताने लगा था.
सुचेता एकलव्य के हावभाव को बड़े ही गौर से देख रही थी, कितनी लगन और सचाई दिख रही थी एकलव्य की बातों में, जैसे मूर्तिकला के बारे में सबकुछ उसे आज ही बता देना चाहता हो.