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सुचेता के चेहरे पर आंसू भी थे और मुसकुराहट भी, न तो आंसू रुकते थे और न ही सुचेता की खुशी कम होती दिखती थी. सातवें आसमान पर चलना क्या होता है, ये कोई 45 वर्षीय सुचेता से पूछे, उस के मोबाइल पर बधाई संदेश लगातार आ रहे थे और उस के फ्लैट में पड़ोसियों का आना जारी था. यह बात अलग थी कि उन बहुत से पड़ोसियों को सुचेता पहली बार देख रही थी. सुचेता अपनी पूरी कोशिश कर रही थी कि कोई भी आने वाला बिना मुंह मीठा किए उस के घर से न जाने पाए, क्योंकि सुचेता के पापा कहा करते थे कि जब घर में कुछ शुभ हो, तो हर आने वाले का मुंह मीठा जरूर कराना चाहिए.

शुभ तो घटा ही था, सुचेता के जीवन में. सुचेता की बेटी अमाया ने यूपीएससी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है. सुचेता के जीवन में इस से पहले कुछ अच्छा हुआ हो, ऐसा तो याद नहीं आता उसे, इसीलिए तो जी भर कर खुश भी नहीं हो पा रही. उस की खुशी में एक सहमापन है, कहीं कोई उस से उस की खुशी छीन न ले, इसलिए बड़ा नापतौल कर अपनी प्रसन्नता को जाहिर कर रही है वह.

सुचेता का साथ और दिशानिर्देश तो था ही, पर अमाया ने अपनी कठोर मेहनत और लगन के चलते यह मुकाम हासिल किया था.

शाम हो चली थी, दिनभर मीडिया के इंटरव्यू हुए थे और रिश्तेदारों के फोन के जवाब देतेदेते सुचेता को थकान होना तो लाजिम ही था, पर मोबाइल स्क्रीन पर एकलव्य का फोन आता देख कर सुचेता की सारी थकान जाती रही, बिजली की गति से उस ने फोन रिसीव कर ली.

“बधाई हो सुचेता, अब तुम एक कुशल माली बन गई हो. अब तो तुम्हारी बगिया में पुष्प भी पल्लवित होने लगे हैं,” एकलव्य की सधी और गंभीर आवाज थी वह, आवाज में प्रेम और प्रसन्नता का मिश्रण भी था.

एकलव्य की आवाज सुन कर सुचेता ने आंखें बंद कर ली, कुछ बोल न सकी. उस के हाथ थरथरा कर रह जाते थे. बहुत कोशिश कर के सिर्फ इतना कह सकी,
“फूल मेरी बगिया का है, घासफूस भले ही मैं ने हटाई है, पर एक पौधे को खाद, पानी और जिस पोषण की आवश्यकता होती है, वह तो उसे तुमवीने दिया है एकलव्य,” बहुत धीमी सी आवाज थी सुचेता की.

कुछ देर तक दोनों बिना कुछ बोले ही एकदूसरे को सुनते रहे, एकलव्य ने इस खामोशी को तोड़ते हुए कहा कि वह एक आवश्यक कार्य से बेंगलुरु जा रहा है. आते ही मिलने आएगा.

एकलव्य का फोन कट चुका था. सुचेता ने देखा कि अमाया अब भी कागजों में सिर झुकाए कुछ कर रही है.

“अब तो बस कर. आ जा रात हो चली है,” मां की आवाज सुन कर अमाया ने, “अभी आ रही हूं,” कह कर बात को टाल दिया और फिर अपने कागजों में व्यस्त हो गई.

सुचेता बिस्तर पर लेट गई थी. उस के कानों में पड़ोसियों के स्वर गूंज रहे थे. कोई कह रहा था, “इतनी काबिल लड़की का रिश्ता तो खुद लड़के वाले मांगने आएंगे.” तो किसी की आवाज आई, “अरे, अब समाज बदल चुका है. टौपर लड़की की जाति मायने नहीं रखती.”

समाज, हुंह, समाज कभी नहीं बदलता, वह तो बना रहता है निर्दयी और मौकापरस्त. ये समाज अपने अनुसार सारे नियम गढ़ता है और अपने तरीके से ही उन्हें परिभाषित करता आया है, और यही समाज तो तब भी था, जब सुचेता की उम्र 22 साल की थी और विश्विविद्यालय से एमए कर रही थी और आगे चल कर अपने पिता की तरह एक प्रोफैसर बनना चाहती थी.

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