सामान्य कदकाठी, सांवली सूरत और कत्थई आंखें यही खासीयत थी सुरुचि की. वैसे तो सुरुचि 16 साल की थी लेकिन समझदारी में वह किसी से कम न थी. वह जातिपांति की शिकार थी. खुद उस की अपनी जाति जाटव थी, शायद, इसलिए ही उसे और उस के परिवार को हमेशा ही भेदभाव का सामना करना पड़ता था.
तकरीबन 4 साल पहले सुरुचि उत्तर प्रदेश के बरखेड़ा गांव से अपने परिवार के साथ दिल्ली आई थी. उस ने अपनी आंखों के सामने देखा था कि मंदिर में प्रवेश करने को ले कर किस तरह से उस के परिवार के साथ भेदभाव किया गया था. यह भेदभाव ऊंची जाति के लोगों ने किया था. इस तरह के व्यवहार करने से उस के पिता को बहुत ठेस पहुंची जिस के बाद उन्होंने फैसला किया कि वे एक तो मंदिरों में नहीं जाएंगे और वे अब यहां रहेंगे भी नहीं. इस के बाद ही वे दिल्ली आ गए.
दिल्ली आने के बाद उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना पड़ा. सब से पहले तो उन्हें रहने के लिए झुग्गी चाहिए थी, जिसे ढूंढने में उन्हें कई दिन लग गए. इस के बाद नौकरी तलाशना सुरुचि के पिता की दूसरी सब से बड़ी मुश्किल थी. कुछ दिनों की तलाश के बाद उन्हें दिहाड़ी मजदूर की नौकरी मिल गई. इस तरह उन का गुजरबसर चलने लगा. लेकिन दिल्ली आने के 5 महीने बाद ही एक सडक़ दुर्घटना में सुरुचि के पिता की मौत हो गई.
पिता की मौत के बाद सुरुचि की मां घरों में झाडूपोंछे का काम करने लगी. लेकिन एक साल बाद ही कोरोना की चपेट में उन की भी मौत हो गई. जो भी पैसे उन के पास थे, वह सब उन के इलाज में खर्च हो गए. झुग्गीमालिक ने अब सुरुचि को घर से बाहर निकाल दिया. सुरुचि के पास अब न तो पैसा था न ही ठिकाना. इस दुनिया में वह एकदम अकेली हो गई थी.
सुरुचि जब सडक़ किनारे पड़ी बैंच पर सुबकसुबक कर रो रही थी, तभी रेखा शर्मा की नजर उस पर पड़ी. रेखा को अपने घर में नौकरानी की जरूरत थी, इसलिए वह उसे अपने घर ले आई. दोनों की बातचीत होने के बाद यह तय हुआ कि रेखा उसे घर में रहने की जगह और वेतन के रूप में 3 हजार रुपए देगी. सुरुचि की सहमति के बाद वह वहां रहने लगी.
रेखा उच्च जाति की थी और सुरुचि नीच जाति की. इसलिए सुरुचि का घर के मंदिर और रसोईघर में जाना मना था. सोने के लिए उसे स्टोररूम में जगह दी गई थी. वह वहीं चटाई बिछा कर सोती थी और रेखा के दिए पुराने कपड़े पहनती थी. रेखा अपनी बातों के जरिए उसे पलपल यह एहसास करवाती थी कि वह गरीब और छोटी जाति की है. रेखा की यह बात सुरुचि को जरा भी पसंद नहीं थी. पर वह बचपन से ही इसे सहती आई थी. जाति जोकि उस के नाम से जुड़ चुकी है वह कभी बदल नहीं सकती, यह बात वह अच्छी तरह समझ गई थी. लेकिन पढ़ाईलिखाई के जरिए वह अपना समय तो जरूर बदल सकती है, बस, यही सोच कर उस ने अपनी सारी कमाई पढ़ाई में लगा दी.
शांता ताई, जोकि रेखा के घर में खाना बनाने का काम करती थी, सुरुचि के बहुत करीब थी. सुरुचि उन से अपने सारे दुखदर्द बयां करती थी. सुरुचि चूंकि रसोईघर के अंदर जा नहीं सकती थी, इसलिए वह जो भी बात करती, रसोईघर से दूर हट कर ही करती.
रात के समय जब सुरुचि अपना खाना ले कर बैठी तो रेखा उस का खाना देख कर आगबबूला हो गई. ‘तुम से कितनी बार कहा है कि तुम हमारे जैसा खाना नहीं खा सकती. जाओ, जा कर वही अपनी चटनीरोटी खाओ. यही तुम जैसों का खाना है. तुम जैसे लोगों के लिए यही खाना बना है.’
क्या खाना भी जाति के हिसाब से बंटा होता है, क्या धर्म, जाति भूख से बढ़ क़र होती है? इन सवालों ने सुरुचि को परेशान कर दिया था. वह भी आलूमटर की सब्जी खाना चाहती थी, वह भी चाहती थी कि शाहीपनीर खाए. वह भी सर्दी में गाजर का हलवा खाना चाहती थी. लेकिन समाज ने तो खाने की भी जाति बांटी हुई है. यही सोचते हुए सुरुचि ने अपनी थाली में चटनी डाली और खाना खाया. यह चटनी उस की मां बनाया करती थी. उसे यह बहुत पसंद थी. इसलिए जिद कर के उस ने इसे बनाना सीख लिया था.
कुछ दिनों बाद रेखा रसोईघर में आई और बोली, ‘शांता ताई, आज चटनी भी बना लो.’ यह सुनते ही हौल में फर्श पर बैठ कर पढ़ाई करती सुरुचि को कुछ याद आया. रेखा के जाते ही सुरुचि रसोईघर के गेट से बोली, ‘मेरी मां एक चटनी बनाया करती थी, वह बहुत स्वादिष्ठ होती थी. क्या आप आज आप वही बनाओगी?.’ ‘मुझे तो वह चटनी बनानी नहीं आती,’ शांता ताई ने कहा.
लेखिका – प्रियंका यादव