रूही की पग फिराई की रस्म होते ही सुधा घर में एकदम अकेली रह गई थी. बीते जीवन की स्मृतियां मन के सूने आंगन में दस्तक दिए जा रही थी. वह चाह कर भी उन्हें रोक नहीं पा रही थी. 15 बरस पहले 6 साल की रूही का हाथ पकड़ कर सुधा ससुराल की दहलीज लांघ कर मायके वापस आ गई थी. कारण था लड़के को जन्म नहीं देना. सासससुर ने उस के पति पर दूसरी शादी का दबाव बना रखा था. पति ऐसा नहीं चाहते थे, लेकिन मांबाप की बात नहीं टाल पा रहे थे.

महीनों तक चली कशमकश के बाद सुधा ने उस घर को छोड़ने का फैसला ले लिया था. ससुराल वाले तो यही चाहते थे. आपसी सहमति से तलाक हो गया. उस के मातापिता ने उस के फैसले में उस का साथ तो दिया, किंतु सामाजिक निंदा ने उन के दिल पर इतनी गहरी चोट दी कि कुछ ही सालों में दुनिया को अलविदा कह गए.

भाभी के तानों और भाई की बेरुखी से तंग आ कर सुधा ने दूसरे शहर में एक विद्यालय में शिक्षिका के पद पर आवेदन कर दिया. अब उसी विद्यालय में उस की नौकरी पक्की हो गई थी.

रूही की शादी के लिए ली गई छुट्टियां खत्म होने वाली थीं. घर में कहीं भी कदम रखती तो रूही नजर आ जाती. खयालों से एक पल के लिए भी रूही को निकाल नहीं पा रही थी. परछाईं की तरह हर समय उस के साथ रहने वाली रूही अब दूसरे घर की रौनक बन गई थी. जब से होश संभाला था, उस ने मातापिता के रूप में सुधा को ही देखा था. जाने कहां से इतनी समझ आ गई थी कि कभी किसी बात के लिए जिद ही नहीं की. शादी के लिए भी विचार अलग ही थे उस के. टीवी सीरियल वाला संयुक्त परिवार उसे पसंद था. आधुनिक, किंतु संस्कारी बहू कैसे हर समस्या का समाधान ढूंढ़ लेती थी, उसे भी वैसा ही कुछ करना था. कुछ भी कर के अपने घर को टूटने नहीं देना था बस. पूजा, पाठ और अनुष्ठान कर के अपने घर से हर बुरी बला को दूर रखना था.

सुधा ने अपने तरीके से कई बार समझाने की कोशिश की कि आज के समय में आत्मनिर्भर होना शादी करने से ज्यादा जरूरी है, लेकिन रूही के विचार नहीं बदले.

दोस्तों के घर माता का जागरण होता तो उसे काम मिल जाता. पूरी तन्मयता से सहयोग करती. शादी तो उस का प्रिय इवेंट हुआ करता था. सुधा जब भी कहती कि लड़कियों को केवल शादी कर के घर ही नहीं संभालना होता है, बल्कि अपना अस्तित्व भी पहचानना होता है.

आज का समय औरत और मर्द के विस्तृत दायरे का है. औरत को भी पूरा हक है अपनी काबिलीयत के अनुसार मुकाम हासिल कर के अच्छा जीवन बिताने का. लेकिन रूही पर कोई असर नहीं होता. हर बात वह हंस कर टाल देती,”मां तुम्हारी नौकरी तो अब पक्की हो गई है ना. शादी के बाद कुछ ऊंचनीच हो गई तो तुम्हारे पास रह लूंगी. तुम्हारा खाना, कपड़े, बरतन सब काम संभाल लूंगी.”

यह सुन कर सुधा उसे गले से लगा लेती. उस ने भी कभी दबाव नहीं बनाया रूही के ऊपर. वह खुद को समझा लेती कि रूही भले ही उस की परछाईं हो, लेकिन उस की किस्मत और उस की सोच दोनों अलग हैं. हो सकता है कि एक संयुक्त परिवार में वह बेहतर सामंजस्य बैठा पाए. क्या पता उस की धार्मिक कार्यों में इतनी सक्रियता से ऊपर वाले का ध्यान उस पर चला जाए और उस की जिंदगी की कहानी सुधा से अलग लिखी जाए. यही कारण था कि ग्रेजुएशन होते ही रूही के लिए आए एक संयुक्त परिवार के रिश्ते को सुधा ने तुरंत हां कह दिया.

परिवार में दो भाई ही थे. बड़ा भाई विवाहित था. छोटे भाई के लिए उन्होंने रूही का हाथ मांगा था. दोनों भाई पैतृक व्यवसाय में लगे हुए थे अपने पिता के साथ.

दादा ने व्यवसाय खड़ा किया था. अब भी बीचबीच में औफिस जाते रहते थे. दादी सास अत्यंत धार्मिक प्रवृत्ति वाली थीं. जैसी रूही ने ससुराल की कल्पना की थी, वैसा ही परिवार था, इसलिए उसे तो कोई एतराज था ही नहीं.
छुट्टियां खत्म हो गई थीं. सुधा ने फिर से विद्यालय जाना प्रारंभ कर दिया था. सालभर चलने वाले त्योहारों के बारे में सुधा को सोचने की जरूरत नहीं पड़ी.

रूही की ससुराल से फोन आ जाता कि हमारे घर में यह रस्म इस तरह अदा होती है. सुधा वैसा ही मान लेती.

होली पर रूही उस के पास आई थी. क्योंकि पहली होली पर उन के परिवार की परंपरा के अनुसार बहू अपने घर ही रहती थी. उस की ससुराल से नेग आना था. सुधा इस बात से ही खुश थी कि इसी बहाने रूही से तसल्ली से बात तो हो जाएगी.

रूही ने बताया कि वहां पर सब निर्णय पंडितजी से पूछ कर लिए जाते हैं. बहुएं सुबह नहाधो कर पहले मंदिर में पूजा करने जाती हैं, उस के बाद घर के काम करती हैं.

उस के ददिया ससुर ने घर के सामने ही एक छोटा सा मंदिर बनवाया हुआ था. एक पुजारी भी रखा हुआ था. उस की जेठानी अभी पंडित के निर्देशानुसार संतान प्राप्ति के लिए अखंड पाठ कर रही थी. दादी सास अपने पूजा, व्रत, पाठ आदि में रूही को साथ रखती थी. वही उन्हें व्रत के विधान और व्रत, कथा पढ़ कर सुनाती थी. घर के सभी मर्द व्यवसाय में व्यस्त रहते. समय होता तो पूरा परिवार साथ में कहीं घूमने चला जाता.

रूही के पति शोभित से उस की अब तक सीमित बातचीत ही हुई थी. होली के अगले दिन ही रूही के दादा ससुर और उस के जेठ उसे वापस ससुराल लिवा ले गए. सुधा भी अपने विद्यालय में व्यस्त हो गई. अब पहले से अधिक समय विद्यालय को देने लगी थी. शिक्षण के साथसाथ दूसरी जिम्मेदारियां भी उस ने संभाल ली थीं. व्यस्तता बढ़ने से दिनचर्या अव्यवस्थित हो गई थी. लेकिन समय निकल रहा था. रूही के साथ औपचारिक बातचीत ही होती थी. घर में रहते हुए वह खुल कर बात नहीं कर पाती थी. सुधा ने भी धीरेधीरे अपने मन को समझा लिया कि रूही ने अपनी ससुराल में सामंजस्य बैठा लिया है. उसे ज्यादा फोन कर के संतुलन में अवरोध उत्पन्न नहीं करना चाहिए.

एक दिन सुधा विद्यालय से घर आई, तो सिर में अचानक दर्द होने लगा. उस ने चाय बना कर पी ली, फिर भी शरीर निढाल सा हो रहा था. थर्मामीटर में देखा तो बुखार था. परिचित डाक्टर को फोन किया, तो वो घर आ कर निरीक्षण के उपरांत दवा दे कर चले गए. साथ में आराम करने और खानपान व्यवस्थित रखने की सलाह भी दे कर गए.

सुधा का मन हो रहा था कि इस समय रूही उस के पास आ कर रहे. इसी उम्मीद से उस ने उस की सास के पास फोन किया. उन्होंने बताया कि दादी सुंदरकांड सुन रही हैं. रोज रूही उन को पढ़ कर सुनाती है. अभी और एक महीना पाठ चलेगा, तब तक रूही घर से कहीं नहीं जा सकती है.

सुधा ने दवा ली और मुंह ढक कर लेट गई. आंख खुली तो दरवाजे की घंटी जोरजोर से बज रही थी. उस ने देखा तो रूही अपने दादा ससुर और ड्राइवर के साथ घर के बाहर खड़ी थी.
दरवाजा खोला तो सब अंदर आए. रूही मां के साथसाथ अंदर आ गई. लिपट गई सुधा से.

“मां मेरे जाने का यह मतलब तो नहीं कि आप अपना ध्यान ही नहीं रखें और बीमार हो जाएं,” सुन कर सुधा मुसकरा दी और बोली,” अब ठीक हो जाऊंगी, तुम से मिल ली हूं ना. बहुत दिनों से मन था मिलने का.”

“अच्छा तो मुझे बुलाने का सब नाटक था,” कह कर रूही जोर से हंस पड़ी. उस ने बताया कि वह जिद कर के बस मां को देखने के लिए आई है. आज ही वापस जाना है. जातेजाते अगले महीने अधिक समय तक रुकने को बोल कर गई. सुधा के शरीर में जैसे जान सी आ गई थी. दिन गिनगिन कर एक महीना निकाल लिया उस ने.

रूही को बस एक हफ्ते का कह कर भेजा उस की ससुराल वालों ने. घर पर आते ही उस ने सब गहनेकपड़े उतार कर रख दिए और अपनी शादी से पहले की एक ड्रेस पहन ली. 2 दिन तक तो वह सोती ही रही. सुधा ने भी कुछ नहीं कहा.

उस दिन सुधा की छुट्टी थी. उस ने रूही की पसंद का नाश्ता बना कर उसे जगाया. दोनों साथ बैठ कर नाश्ता कर रही थी. अचानक ही रूही बोली, “मां, मुझे वहां वापस मत भेजना,” यह सुन सुधा चौंक गई, सोचा, ‘मजाक कर रही होगी.’ फिर भी उस ने पूछा, “पर क्यों? तुम्हारी पसंद की सीरियल वाली ससुराल है.”

रूही की आंखों से टपटप आंसू गिर रहे थे. वह बोली, “यही तो समस्या है मां, सीरियल वाली ससुराल सीरियल में ही अच्छी लगती है. वास्तविकता में उस मे नहीं रहा जा सकता है,” कह कर रूही तो चुप हो गई, लेकिन सुधा के पैरों के नीचे से जमीन निकल गई. उस ने बात जारी रखते हुए पूछा, “पर, हुआ क्या? खुल कर बताओ.”

अब तो रूही और भी जोर से रोने लगी. सुधा ने उसे चुप कराया. बहुत देर बाद उस ने मुंह खोला,” मां, शोभित ने मुझ से शादी सिर्फ अपने परिवार को खुश करने के लिए की है. वह पहले ही कोर्ट में अपनी एक महिला दोस्त से शादी कर चुका था. वे दोनों विदेश जाने वाले थे, लेकिन घर में पता चल गया. घर वाले उस शादी को नहीं मानते हैं, वो चाहते हैं कि मैं पूजापाठ से, तंत्रमंत्र से उसे वश में कर लूं, जिस से वो उस लड़की से तलाक ले ले.”

सुधा की तो जैसे चेतना ही शून्य हो गई थी यह सब सुन कर. फिर भी उस ने खुद पर नियंत्रण रखते हुए रूही से पूछा, “बेटा, वे लोग तुम्हारे साथ हैं तो हो सकता है कि सब ठीक हो जाए और शोभित तुम्हें पत्नी स्वीकार कर ले.”

रूही ने सुधा की ओर ऐसे देखा, जैसे कहना चाह रही हो, “मां, ऐसे चमत्कार नहीं होते हैं.” सुधा परेशान तो नहीं, हैरान थी. भारतीय समाज की प्रगति के बारे में सोच कर. बस पूजा करने के तरीके आधुनिक हो गए हैं. पुजारी का मन और मंशा आज भी वही है. रूही भी आज उसी दोराहे पर खड़ी है, जहां सालों पहले वह खड़ी थी. सुधा बेटा नहीं दे पाई और रूही बेटा नहीं लौटा पा रही है. तभी रूही बोल पड़ी, जैसे कुछ याद आ गया हो, “मां, मेरी ससुराल वाले मेरे साथ नहीं, पंडित के साथ हैं. मेरी जेठानी को उन की पूजा से बेटा हो गया है, इसलिए वो लोग फिर से अनुष्ठान करना चाहते हैं. पर, मैं नहीं करना चाहती. यदि शोभित वापस आ भी गया तो फिर बेटा पैदा करने के लिए अनुष्ठान करना होगा. मुझ से यह सब नहीं होगा मां,” कह कर रूही तो उठ कर चली गई, लेकिन सुधा आंखें बंद कर के बैठ गई. एक निर्णय उस ने ले लिया था कि रूही कोई समझौता नहीं करेगी. वह आज ही रूही को वकील से मिलवाने ले कर जाएगी. लेकिन एक बात उसे समझ नहीं आ रही थी कि ऊपर वाले ने रूही की किस्मत भी उस के जैसी क्यों लिख दी थी? क्या ऊपर वाला भी अनुष्ठान करने से प्रभावित हो जाते हैं? क्यों हर बार औरत ही शिकार होती है? गलती मर्द करे और सुधार के लिए अनुष्ठान औरत करे. बेटे के जन्म के लिए जिम्मेदार मर्द है और जिंदगीभर दुख औरत उठाती है. आखिर कब यह मानसिकता बदलेगी? किस दिन एक औरत अपने तरीके से अपने जीवन को जी सकेगी?

रूही शादी से पहले वाले अपने कपड़े पहने सामने खड़ी थी. हाथ में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी की एक किताब थी, जो उस ने खुद ही खरीदी थी.

“मां, मैं अपना अनुष्ठान शुरू कर रही हूं. आप को मेरा साथ देना होगा,” रुही की आत्मविश्वास से भरी आवाज सुन कर सुधा ने ऊपर की ओर देखा, “तेरे अनुष्ठान का तरीका बदल रही हूं, बस तुम मेरा साथ देना.”

” तथास्तु,” यह रूही की आवाज थी.

लेखिका -अर्चना त्यागी

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