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हफ्तेभर में वैशाली जींसटौप छोड़ कर सलवारकुरते में आ गई. 10 दिनों तक दुपट्टा पूरा खोल कर ओढ़ कर आती रही. 15वें दिन तक दुप्पट्टे में इधरउधर कई सेफ्टीपिन लगाने लगी. पर बौस की एक्सरे नज़रें हर दुपट्टे, हर सेफ्टीपिन के पार पहुंच ही जातीं. आखिर वह इस से ज्यादा कर ही क्या सकती थी? वह समझ नहीं पा रही थी कि इस समस्या का सामना कैसे करे. एकएक दिन कर के एक महीना बीता. पहली पगार उस के हाथ में थी. पर वह ख़ुशी नहीं थी जिस की उस ने कल्पना की थी. मंजुलिका ने टोका, “आज तो पगार मिली है, पहली पगार. आज तो पार्टी बनती है.” वैशाली खुद को रोक नहीं पाई, जितना दिल में भरा था, सब उड़ेल दिया.

मंजुलिका दांत भींच कर गुस्से में बोली, "सा SSS... की मांबहन नहीं हैं क्या? उन्हें जा के घूरे, जितना घूरना है. और भी कुछ हरकत करता है क्या ?”

नहीं, बस, गंदे तरीके से घूरता है. ऐसा लगता है कि... कुछ कहने के लिए शब्द खोजने में असमर्थ वैशाली की आंखें क्रोध, नफरत और दुख से डबडबा गईं.

“अब समझी, तू जींसटौप से सूट कर क्यों आई यी. अरे, तेरी गलती थोड़ी न है. देख, तब भी उस का घूरना तो बंद हुआ नहीं. कहां तक सोचेगी. इग्नोर कर ऐसे घुरुओं को. हम लोग कहां परवा करते हैं. जो मन आया, पहनते हैं, ड्रैस, शौर्ट्स, जैगिंग... अरे जब ऐसे लोगों की आंखों में एक्सरे मशीन फिट रहती ही है तो वे कपड़ों के पार देख ही लेंगे. सो मनपसंद कपड़ों के लिए क्यों मन मारें? जरूरी है हम अपना काम करें, परवा न करें. वह कहावत सुनी है ना, ‘हाथी अपने रास्ते चलते हैं और कुत्ते भूंकते रहते हैं’. अब आगे बढ़ना है तो इन सब की आदत तो डालनी ही होगी. ठंड रख, कुछ दिनों बाद नया शिकार ढूंढ लेंगे,” मंजुलिका किसी अनुभवी बुजुर्ग की तरह उस को शांत करने की कोशिश करने लगी.

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