2018 की शुरुआत भी हर साल की तरह क्रिकेट की प्रतिस्पर्धाओं से हुई और तय है साल का अंत भी इन्हीं से होगा. हौकी तभी याद की जाएगी जब उस का कोई बड़ा टूर्नामैंट होगा. तब हौकी की बदहाली और दुर्दशा पर कलपते हुए ध्यानचंद की दुहाई दी जाएगी और फिर दोहराया जाएगा कि कभी हम हौकी के सिरमौर हुआ करते थे और हम ने 1928 से ले कर 1956 तक लगातार ओलिंपिक में मैडल जीते थे. 1975 में हम ने विश्वकप भी अपनी झोली में डाल कर खुद को चैंपियन साबित कर दिया था.
सुनहरे अतीत पर गर्व करने में कोई हर्ज नहीं बशर्ते हम वर्तमान में कहां हैं. नए साल में हौकी से जुड़ी खबरों को 5 फीसदी जगह भी मीडिया में कहीं नहीं मिली तो बात चिंता की है. क्रिकेट में सालभर कुछ न कुछ होता रहता है. और तो और, अब दूसरे मैदानी और इंडोर गेम्स भी इफरात से होने लगे हैं. इस बात को समझने के लिए विज्ञापन काफी हैं जिन में क्रिकेट के साथसाथ बैडमिंटन, टैनिस, रैसलिंग और ऐथलैटिक्स तक के खिलाड़ी ब्रैंड चमकाते दिख जाते हैं पर हौकी का कोई खिलाड़ी नजर नहीं आता.
तकनीकी तौर पर यह विश्लेषण अपनी जगह ठीक है कि भारतीय टीम पैनल्टी कौर्नर को गोल में तबदील नहीं कर पाती और दिक्कत यह है कि आधिकारिक स्तर पर इस शाश्वत कमजोरी को दूर करने की कोशिश के बजाय हम मेजर ध्यानचंद, कैप्टन रूप सिंह, परगट सिंह और जफर इकबाल से ले कर अशोक कुमार और धनराज पिल्लै को याद करने बैठ जाते हैं. इस मोह से समस्या बजाय हल होने के और बढ़ती ही है. यह चर्चा किसी अहम टूर्नामैंट के समय शुरू हो कर हौकी फैडरेशन की निंदा के साथ खत्म हो जाती है.
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