सिंधु, साक्षी, दीपा, पदक के भूखे भारत को ये 3 खिलाड़ी मिल गई हैं, लेकिन इन के त्याग, समर्पण और दमखम का अंदाजा न तो भारत की सरकार व जनता को है और न ही कौरपोरेट घरानों को. हम सब की समझ खेलों को ले कर उथली है. तभी तो सब शोभा न देने वाले बयानों के साक्षी बनते हैं या तो कड़ी आलोचना करते हैं या फिर मक्खी की तरह उन की कामयाबी पर भिनभिनाने लगते हैं.
बेशक इन तीनों के साथसाथ ललिता बाबर, जोकि 3 हजार मीटर बाधा दौड़ फाइनलिस्ट है, ने भी कमाल किया है, लेकिन बड़े अफसोस की बात है कि हम खेलों के लिहाज से बेहद खराब चरित्र वाले देश से हैं. आज जो ब्रैंड जीतने वाले पर सबकुछ निछावर कर रहे हैं, उन्हीं ने एक साल पहले सिंधु का मजाक उड़ाया था. ओलिंपिक ऐथलीट ओ पी जैशा को 42 किलोमीटर की मैराथन के दौरान देश की तरफ से पानी तक मुहैया नहीं कराया गया. नतीजतन, वह रेस पूरी होते ही बेहोश हो गई और इधर, पटियाला में हैंडबौल की नैशनल प्लेयर पूजा को इसलिए खुदकुशी करनी पड़ी, क्योंकि माली तंगी के चलते उसे होस्टल की सहूलत नहीं मिल पाई.
पटियाला में नैशनल लैवल की हैंडबौल खिलाड़ी पूजा की खुदकुशी सरकार और समाज के लिए बेहद शर्म की बात है. इस से यह भी साफ हो जाता है कि सवा सौ करोड़ की आबादी वाला देश रियो ओलिंपिक में एक स्वर्ण पदक भी क्यों नहीं जीत पाया. एक कांस्य और एक रजत पदक पर ही देश इतरा रहा है. जिस देश में नैशनल लैवल के एक खिलाड़ी को होस्टल की फीस नहीं भर पाने की वजह से खुदकुशी करनी पड़े वह देश ओलिंपिक जैसे विश्वस्तरीय मुकाबले में सम्मानजनक जगह कैसे हासिल कर सकता है?
बीए सैकंड ईयर की छात्रा और हैंडबौल खिलाड़ी पूजा को महज 3,720 रुपए जमा नहीं करवा पाने के कारण कोच ने होस्टल में कमरा देने से मना कर दिया. इस से पूजा इतनी हताशनिराश हुई कि उस ने खुदकुशी का रास्ता चुन लिया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम खून से लिखा खत भी छोड़ गई.
हालांकि खुदकुशी करना किसी भी समस्या का हल नहीं है. कहा भी गया है कि जान है, तो जहान है. इस के बावजूद पूजा ने जो कदम उठाया, उस ने सरकार और समाज को कठघरे में खड़ा कर दिया है. इस से साफ है कि ओलिंपिक में रजत और कांस्य पदक जीतने वाली महिला खिलाडि़यों पर करोड़ों रुपयों की बौछार करने वाली सरकारें खिलाडि़यों की आगे बढ़ने में मदद नहीं करतीं. खेल संघ और स्कूलकालेज भी खिलाडि़यों की मदद करने के बजाय उन्हें निराश करते ही नजर आते हैं और फिर सरकार में बैठे नुमाइंदे कहते फिरते हैं कि अभिभावक अपने बच्चों को खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित नहीं करते, जबकि सच तो यह है कि सरकार और खेल संघ जब तक खेल प्रतिभाओं को संभालने और संवारने की जिम्मेदारी नहीं लेंगे, तब तक उन का मनोबल नहीं बढ़ने वाला.
गौरतलब है कि भारत एक भावुकजज्बाती देश है, लेकिन लोगों की शुभकामनाओं के बलबूते पदक जीते जाते तो भारत ओलिंपिक में काफी आगे होता. लिहाजा, आज जो लोग, संगठन और सरकारें सिंधु, साक्षी और दीपा कर्माकर पर इनामों की बारिश कर रही हैं, उन्हें यह उदारता खेलों के लिए माहौल बनाने और उस की सही तैयारी में दिखानी चाहिए थी.
ओलिंपिक और भारत को ले कर फौरी बयानबाजी से आगे की बात करें तो ओलिंपिक में भारत के पिछड़ने की वजह भी साफ समझ में आ जाती है. आज हमारे प्रधानमंत्री देश के बाहर घूमघूम कर भले ही यह बात कहते हैं कि भारत आज जिस गति से तरक्की कर रहा है, उस से पूरी दुनिया की निगाहें हमारी तरफ हैं. लेकिन खेलों में हम पिछड़ रहे हैं.
खेल में क्यों पिछड़ा भारत
इंटरनैशनल इकोनौमिक सर्वे एजेंसियों से ले कर कई वैश्विक संगठन भारत को इस उम्मीद के साथ देख रहे हैं कि माली नजरिए से यहां की जमीन काफी उपजाऊ है, लेकिन ओलिंपिक जैसे गौरवशाली इवैंट में हमारे खिलाडि़यों के प्रदर्शन ने हमारी साख और हैसियत की कलई खोल दी है, जिस में एक भी स्वर्ण नहीं है, जबकि इस बार 119 खिलाडि़यों का बड़ा दल ओलिंपिक के लिए रवाना हुआ था. पदक तालिका में 67वें स्थान पर टिकी हमारी हैसियत देश में खेलों को ले कर कई विरोधाभासी तथ्यों की ओर इशारा करती है.
पिछले दिनों चीन की एक सरकारी वैबसाइट में तार्किक तौर पर इस सत्यापन के लिए खबर छपी थी कि भारत ओलिंपिक में फिसड्डी है. वैबसाइट के मुताबिक, पिछले 3 ओलिंपिक एथेंस-2004, बीजिंग-2008 व लंदन-2012 को देखें तो भारत ने अपनी आबादी के लिहाज से जितने मैडल जीते हैं, उस हिसाब से वह देशों की प्रदर्शन सूची में आखिरी नंबर पर आता है.
इस की वजह टटोलते हुए वैबसाइट ने कर्नाटक और राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में किए गए एक सर्वे का हवाला दिया है. ग्रामीणों से पिछले एक दशक में सुनी सब से अच्छी नौकरी के बारे में पूछा गया. इस पर जो जवाब आए, उन में सौफ्टवेयर इंजीनियर, आर्किटैक्चर, डाक्टर और वकीलों का तो जिक्र था, लेकिन खेलों को ले कर कोई जिक्र नहीं था. इस की एक जाहिर वजह क्रिकेट तो है ही, लेकिन दूसरी और भी कई वजहें हैं.
हम चीनी वैबसाइट का हवाला न भी लें तो यह बात तो साफ है कि हमारे यहां खेलों को तरजीह न के बराबर दी जाती है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय की स्थायी समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन महज 3 पैसे खेलों पर खर्च हो रहे हैं, जबकि बात करें ओलिंपिक में लगातार अपने को अव्वल साबित कर रहे अमेरिका की तो उस ने औसतन 74 करोड़ रुपए खर्च किए हैं अपने ऐथलीटों को रियो में पदक जिताने लायक बनाने में. भारत के पड़ोसी और हर लिहाज से प्रतियोगी चीन में खर्च का यह आंकड़ा 47 करोड़ रहा है.
जाहिर है कि बगैर तैयारी और खिलाडि़यों की तंदुरुस्ती व प्रैक्टिस पर माली निवेश के ओलिंपिक में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद बेमानी है, बहुत पीछे न भी जाएं तो बीते ढाई दशक के उदारीकरण में इस देश में आईटी से ले कर रीयल इस्टेट तक वर्टिकल ग्रोथ की भले ही कई चमकदार कहानियां दोहराई जाती रही हैं, लेकिन इस ने खेलों और युवाओं के स्वाभाविक साझे को तो बुरी तरह तहसनहस कर ही दिया है.
भूले नहीं हैं लोग कि इसी देश में स्कूलों में फुटबौल, कबड्डी, वौलीबौल से ले कर दौड़, कुश्ती और तैराकी के कई खेल नियमित गतिविधियों का हिस्सा थे. ये कुछ निजी स्कूलों में होता हो, ऐसा भी नहीं था. असल में सार्वजनिक निकायों की तरह सरकारी स्कूलों की बदहाली ने भी सबकुछ चौपट कर के रख दिया है. इस की जगह जिस सनक और ललक ने ली है, उस ने युवा प्रतिभा को सैक्स, सक्सैस और सैंसैक्स के तिघेरे में बांध कर रख लिया है.
आज भारत भले ही दुनिया का सब से युवा देश है, लेकिन ये तथ्य ओलिंपिक जैसे इवैंट में अपना कोई दमखम नहीं दिखा पाए तो यह सरकार व समाज के लिए वाकई बड़ी चिंता का कारण होना चाहिए.
आज जो लोग टीवी चैनलों से ले कर सोशल मीडिया तक रियो ओलिंपिक में भारत को पिछली बार से भी गिरने की बातें करने में लगे हैं, उन से यह पूछा जाना चाहिए कि ओलिंपिक में भारत को सब से ज्यादा सम्मान दिलाने वाले मेजर ध्यानचंद को यदि आज तक भारत रत्न के लायक नहीं समझा गया तो इस का बुरा कितने लोगों को लगा.
साल 1928 से ले कर 2016 तक भारत ने अब तक कुल 28 पदक ओलिंपिक में जीते हैं, जिन में 11 पदक अकेले हौकी के बूते आए हैं.
मतलब, जिस खेल के बूते पूरे विश्व के सब से बड़े खेल आयोजन में हम सब से ज्यादा कामयाब रहे हैं, वह आज की तारीख में देश का सब से लोकप्रिय खेल नहीं बन सका है. हौकी महासंघ अपनी गुटबाजी साधने में लगा है, तो हौकी खिलाड़ी अपने कैरियर को भाग्य भरोसे मान रहे हैं. यही हाल दूसरे खेलों व संघों का है. उन से जुड़े खिलाड़ी और ऐथलीट भी लगन और उत्साह से भरपूर तो हैं, लेकिन उन के अभ्यास, संसाधन और प्रशिक्षण के लिए ऐसा कोई पुख्ता बंदोबस्त नहीं है, जिसे अंतर्राष्ट्रीय क्या मामूली स्तर पर भी हम संतोषजनक कह सकें.
नूराकुश्ती में चित हुआ देश
नैशनल डोपिंग एजेंसी यानी नाडा और नरसिंह यादव व सुशील कुमार की नूराकुश्ती के चलते कुश्ती में पदक जीतने का सपना चारों खाने चित हो गया. जिन 2 पहलवानों सुशील कुमार और नरसिंह यादव पर देश अब तक लगातार नाज करता आ रहा था, डोपिंग मामले के बाद दुनियाभर में हमारी हालत बेहद विवादित और शर्मनाक हुई है.
पिछले साल सितंबर माह में विश्व सीनियर कुश्ती चैंपियनशिप में सुशील कुमार ने किनारा किया, नरसिंह प्रवीण राणा पर भारी पड़ा और इस चैंपियनशिप में नरसिंह कांस्य पदक जीत कर ओलिंपिक कोटा हासिल करने वाला पहलवान बन गया. उस समय कुश्ती महासंघ के आला अधिकारियों ने ओलिंपिक प्रतियोगिता को यह कह कर दबा दिया कि देश ने सिर्फ 74 किलोग्राम भार वर्ग में कोटा हासिल किया है. ओलिंपिक में कौन जाएगा यह कुश्ती फैडरेशन तय करेगी.
इस दौरान सुशील कुमार भी अभ्यास में जुटे रहे और नरसिंह यादव भी. मई में विवाद तब बढ़ा जब कुश्ती फैडरेशन ने अपनी पुरानी परंपराओं का हवाला देते हुए नरसिंह के ही ओलिंपिक में जाने का ऐलान कर दिया, लेकिन यह फैसला सुशील कुमार को पसंद नहीं आया और मामला हाईकोर्ट तक जा पहुंचा.
तालीमी लैवल पर फेल खेल और खिलाड़ी
ओलिंपिक में हमारी जो दुर्गति हुई है या अब तक होती आई है, वह मौजूदा हालात में तो जारी ही रहेगी. हमारे देश में खेलखिलाडि़यों के लिए कोई बड़ी योजनाएं नहीं हैं. पदक विजेता खिलाड़ी तैयार करने में कम से कम 10 से 12 साल लगते हैं. वह खिलाड़ी किनकिन हालातों से गुजरता है, उस पर कोई गौर नहीं करता. हमारे देश का जो ऐजुकेशन सिस्टम है, उस में भी कोई नहीं झांकता. वहां महज किताबी रेस होती है, जबकि खेलों के प्रति गंभीरता स्कूल स्तर से ही पैदा होती है, क्योंकि ऐथलीट, जिमनास्ट या तैराक आदि बचपन से ही तैयार करने होते हैं.
तालीम केंद्रों को युवाशक्ति का असीम स्रोत ऐसे ही नहीं कहा जाता. इस का ताजा नमूना पेश किया है रियो ओलिंपिक में सब से ज्यादा तमगों पर कब्जा जमाने वाले अमेरिका यूनिवर्सिटीज ने. अमेरिका के 500 से ज्यादा खिलाडि़यों की टीम में से ज्यादातर किसी न किसी यूनिवर्सिटी से ताल्लुक रखते हैं. अमेरिका की यूनिवर्सिटी औफ जार्जिया से 11 खिलाड़ी रियो ओलिंपिक का हिस्सा बने. रियो ओलिंपिक में सब से ज्यादा दबदबा रहा यूनिवर्सिटी औफ कैलिफोर्निया का. इस के विभिन्न कैंपसों से कुल 44 छात्रों ने ओलिंपिक में हिस्सा लिया. इस के अलावा पेंसिलवेनिया से 13, औरेगन से 12 व यूनिवर्सिटी औफ वाशिंगटन से 11 खिलाडि़यों ने ओलिंपिक में हिस्सा ले कर अपने खेल का जौहर दिखाया.
वहीं हमारे खिलाड़ी कालेजयूनिवर्सिटीज में तैयार होने के बजाय खेल एसोसिएशन और फैडरेशन से जूझते रहते हैं. वहां भी खेल से ज्यादा खेल पर राजनीति हावी है. हौकी का ही हाल देख लें, कभी इस में हमारा परचम लहराता था, आज पिछड़े हुए हैं. सही कदम की कमी और नीतिगत खामियों से हमारे खेलखिलाड़ी पैंदे में हैं. शुरुआत स्कूली स्तर से हो तभी नतीजों में सुधार हो सकता है.