एक तरफ हम डिजिटल इंडिया के साथ मंगल और चांद पर जाने की बात करते हैं लेकिन वहीं हमारे समाज ने आज भी महिलाओं को अंधविश्वासों, दकियानूसी रीतिरिवाजों, रूढि़वादी परंपराओं में कैद किया हुआ है. ‘भले घर की बहू बेटियां ऐसा नहीं करतीं’ के नाम पर ऐसे कई रिवाज हैं जिन्हें महिलाओं को सदियों से निभाने पर मजबूर किया जाता रहा है.

गैरजिम्मेदार ठहरा कर व्यर्थ की बंदिशों में बांधने की कोशिश

हमारे समाज में अगर कोई महिला अपने छोटे बच्चे को छोड़ कर नौकरी जौइन कर ले तो उसे गैरजिम्मेदार होने का ताना दे कर व्यर्थ के रीतिरिवाजों में बांधने की कोशिश की जाती है. अगर वास्तव में देखा जाए तो किसी भी बच्चे को 5 साल तक ही मां की जरूरत होती है या कहें तो बच्चे केवल 5 साल तक ही तंग करते हैं, उस के बाद बच्चे अपनेआप संभल सकते हैं. वैसे भी, आजकल 5 साल का बच्चा स्कूल जाने लगता है तो कोई मां आराम से नौकरी या अपना कोई काम कर सकती है, इसलिए उस को गैरजिम्मेदार ठहरा कर व्यर्थ की बंदिशों में बांधने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए.

अगर देखा जाए तो कोई भी महिला 25 से 70 साल तक अपनी काबिलीयत के अनुसार कोई भी काम कर सकती है और घरपरिवार में अपना योगदान दे सकती है. इसलिए उसे जिम्मेदारी के नाम पर बच्चों के ऊपर अपना समय और अपना कैरियर बरबाद नहीं करना चाहिए.

पूजापाठ, व्रत का जाल

धर्म का उद्देश्य स्त्रियों को नकारा बनाना, अपनी सोचने समझने की शक्ति का प्रयोग न करने देना है. महिलाएं व्यर्थ के व्रतत्योहारों में उलझी रहें, इसीलिए हर पर्व को मनाने के लिए उस की पूरी तैयारी की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ महिलाओं के कंधों पर होती है.

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