धारा – 125 सिर्फ तलाक लेने वाली महिलाओं के लिए ही गुजारे भत्ते का इंतजाम नहीं करती, बल्कि यह निराश्रित मातापिता, जायजनाजायज या अनाथ बच्चों, छोटे भाईबहनों या बहुओं के लिए भी सम्मान से जीवन जीने लायक पूंजी दिलवाने का प्रावधान करती है. नए कानून भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) में ये प्रावधान धारा 144 में किया गया है.
10 जुलाई 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने एक तलाकशुदा स्त्री को गुजारा भत्ता देने के संबंध में फैसला सुनाते हुए उस के पति को प्रतिमाह 20 हजार रुपये गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया. मामला चूंकि मुसलिम धर्म से जुड़ा था, लिहाजा अखबारों और टीवी चैनलों पर खूब चला. भारतीय जनता पार्टी और उस के गोदी मीडिया ने तो दो कदम आगे बढ़ कर इसे तीन तलाक के मुद्दे के बाद मुसलिम महिलाओं की दूसरी जीत करार दिया. तमाम मुसलिम महिलाओं की बाइट टीवी पर दिखाई जाने लगी. जबकि सीआरपीसी की धारा – 125 के तहत किसी भी आश्रित के लिए गुजारा भत्ता पाने का यह कोई पहला मामला नहीं था. देश भर की अदालतों में हर दिन ऐसे सैकड़ों मामलों की सुनवाई होती है और आश्रितों के हक में अदालतों द्वारा ऐसे फैसले दिए जाते हैं. पर चूंकि यह मुसलिम समाज से जुड़ा मामला था इसलिए होहल्ला अधिक हुआ.
पत्नी, बच्चों, और मातापिता के भरणपोषण के लिए आदेश देने से जुड़ी दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125, साल 1973 में बनी और 1 अप्रैल, 1974 को लागू हुई. यह धारा खासतौर पर हिंदू महिलाओं की दुर्दशा को देखते हुए लागू की गयी थी. पति द्वारा त्याग दिए जाने पर, पति की मृत्यु हो जाने पर, बच्चों द्वारा प्रताड़ित किए जाने पर अधिकांश हिंदू औरतें नारकीय जीवन जीने के लिए बाध्य हो जाती थीं. उन्हें उस नारकीय जीवन से निकल कर सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार मिले, इस सोच के तहत यह कानून बना.
आमतौर पर हिंदू विवाह विच्छेद के बाद महिलाओं की दूसरी शादी बहुत मुश्किल से होती है. पुराने समय में तो होती भी नहीं थी, यही वजह थी कि पति द्वारा त्याग दिए जाने पर वे वृन्दावन की राह पकड़ लेती थीं और वहां भिक्षा मांग कर अपना गुजरबसर करती थीं. वृन्दावन विधवाओं और निराश्रित हिंदू महिलाओं का इतना बड़ा स्थल इसीलिए बना क्योंकि महिलाओं के पास ना तो कोई आश्रय स्थल होता था और न ही अपने गुजरबसर करने लायक पूंजी होती थी. पति ने यदि त्याग दिया तो मायके वाले भी उस को नहीं अपनाते थे. हिंदू समाज ऐसी औरतों को बहुत नीच दृष्टि से देखता था. इस के विपरीत मुसलिम समाज में तलाक और दूसरा निकाह दोनों ही काफी आसान और जल्द होते थे. वे अपनी महिलाओं को बेसहारा नहीं छोड़ते थे और तलाक के 3 महीने बाद ही उस का दूसरा निकाह पढ़वा देते थे. यही वजह है कि मुसलिम महिलाओं के लिए वृन्दावन जैसी किसी व्यवस्था की जरूरत इस देश में कभी नहीं हुई. हिंदू महिलाओं की दुर्दशा को दृष्टिगत रखते हुए कानून के जानकारों ने धारा-125 लागू की और इस के जरिए महिलाओं को आत्मसम्मान के साथ जीवन यापन करने की राह हासिल हुई.
धारा-125 सिर्फ तलाक लेने वाली महिलाओं के लिए ही गुजारे भत्ते का इंतजाम नहीं करती, बल्कि यह निराश्रित मातापिता, जायज, नाजायज या अनाथ बच्चों, छोटे भाईबहनों या बहुओं के लिए भी सम्मान से जीवन जीने लायक पूंजी दिलवाने का प्रावधान करती है. नए कानून भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) में ये प्रावधान धारा 144 में किया गया है.
ये धारा कहती है कि कोई भी पुरुष अलग होने की स्थिति में अपनी पत्नी, बच्चे और मातापिता को गुजारा भत्ता देने से इनकार नहीं कर सकता. इस में नाजायज लेकिन वैध बच्चों को भी शामिल किया गया है. धारा साफ करती है कि पत्नी, बच्चे और मातापिता अगर अपना खर्चा नहीं उठा सकते तो पुरुष को उन्हें हर महीने गुजारा भत्ता देना होगा. गुजारा भत्ता मजिस्ट्रेट तय करेंगे. पत्नी को गुजारा भत्ता तब तक मिलेगा जब तक महिला दोबारा शादी नहीं कर लेती.
ढेरों मामले
इस धारा में ये भी प्रावधान है कि अगर कोई पत्नी बिना किसी कारण के पति से अलग रहती है या किसी और पुरुष के साथ रहती है या फिर आपसी सहमति से अलग होती है तो वो गुजारा भत्ता पाने की हकदार नहीं होगी. वहीं अगर पत्नी की आय पति से अधिक है, या पति बेरोजगार है तो वह भी इस धारा के तहत पत्नी से गुजारा भत्ता पाने का हकदार हो सकता है. इस धारा के तहत, अगर कोई व्यक्ति पर्याप्त साधन संपन्न है, लेकिन भरणपोषण करने में उपेक्षा करता है या इनकार करता है, तो प्रभावित व्यक्ति मजिस्ट्रेट के सामने आवेदन कर के भरणपोषण की मांग कर सकता है. मजिस्ट्रेट को भरणपोषण देने की उचित मासिक दर तय करने का अधिकार है. किसी भी धर्मजाति, सम्प्रदाय, भाषा का नागरिक इस धारा के तहत आवेदन कर सकता है. ऐसे सैकड़ों केस देशभर की अदालतों में आएदिन आते हैं.
हालिया सुप्रीम कोर्ट के फैसले की इतनी चर्चा इसलिए हो रही है क्योंकि मुसलिम महिला पर 1986 का मुसलिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) कानून भी लागू होता है. यह कानून 1986 में तब बना जब शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने धारा-125 के तहत उसे गुजारा भत्ता देने का प्रावधान किया. शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से देशभर में राजनीतिक माहौल गरमा गया था. मुसलिम धर्मगुरुओं और पर्सनल ला बोर्ड ने इस फैसले का पुरजोर विरोध किया था. जिस के चलते कांग्रेस पार्टी के हाथ से मुसलिम वोट के खिसकने का डर पैदा हो गया था, लिहाजा मई 1986 में मुसलिम कठमुल्लाओं के दबाव में तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार ने मुसलिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) कानून पास किया और सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया.
1986 के इस कानून की धारा 3 में तलाकशुदा मुसलिम महिला के गुजारा भत्ता का प्रावधान है. धारा 3 में लिखा है कि तलाकशुदा मुसलिम महिला को पूर्व पति से इद्दत की अवधि तक ही गुजारा भत्ता मिल सकता है. इद्दत की अवधि तीन महीने होती है. इसी धारा में ये भी लिखा है कि अगर तलाक से पहले या तलाक के बाद महिला अकेले बच्चे का पालनपोषण नहीं कर सकती तो उसे दो साल तक पूर्व पति से गुजारा भत्ता मिलेगा.
हालांकि, शाहबानो मामले में फैसले के दो साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक और फैसले में साफ किया था कि तलाकशुदा मुसलिम महिला इद्दत की अवधि के बाद भी पूर्व पति से तब तक गुजारा भत्ता पाने की हकदार है, जब तक वो दोबारा शादी नहीं कर लेती. शाहबानो इंदौर की रहने वाली थीं और उन के पति ने उन्हें तीन तलाक दे दिया था. तब सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते हुए कहा था कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत शाहबानो अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता पाने की हकदार है.
इतना ही नहीं, 2001 में डेनियल लतीफी नाम के वकील ने 1986 की कानून की वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून की वैधता बरकरार रखते हुए साफ किया था कि 1986 का कानून सिर्फ इद्दत की अवधि तक ही गुजारा भत्ता देने तक सीमित नहीं है.
गौरतलब है कि इद्दत एक इस्लामी परंपरा है. इद्दत का पालन एक मुसलिम महिला को करना पड़ता है. पति से तलाक होने या उसकी मृत्यु होने पर मुसलिम महिला को इद्दत का पालन करना होता है.
इद्दत की अवधि के दौरान तलाकशुदा महिला के दोबारा शादी करने पर पाबंदी होती है. अगर किसी गर्भवती महिला का तलाक होता या वो विधवा होती है तो बच्चे के जन्म के साथ ही इद्दत की अवधि खत्म हो जाती है. पति की मृत्यु के बाद इद्दत की अवधि 4 महीने 10 दिन होती है, जबकि तलाक के बाद 3 महीने 10 दिन की इद्दत की जाती है.
1986 का कानून और धारा 125 दोनों ही देश में एक साथ चल रहे हैं. मुसलिम महिला अगर 1986 के कानून के तहत आवेदन नहीं करना चाहती है तो वह धारा 125 के तहत मुकदमा दर्ज कर गुजारे भत्ते की मांग कर सकती है. हालिया केस में यही हुआ है.
क्या है मामला
ये पूरा मामला शुरू होता है 15 नवंबर 2012 से. उस दिन तेलंगाना में एक मुसलिम महिला आगा ने अपने पति अब्दुल समद का घर छोड़ दिया. 2017 में महिला ने अपने पति के खिलाफ आईपीसी की धारा 498A और 406 के तहत दहेज़ उत्पीड़न, विश्वासघात और घरेलू हिंसा का केस दर्ज कराया. इस से नाराज हो कर पति ने महिला को तीन तलाक दे दिया. 28 सितंबर 2017 को दोनों को तलाक का सर्टिफिकेट जारी हो गया.
दावा है कि तलाक के बाद इद्दत की अवधि तक पति ने महिला को हर महीने 15 हजार रुपये का गुजारा भत्ता देने की पेशकश की. इद्दत की अवधि तीन महीने तक होती है. लेकिन महिला ने इसे लेने से इनकार कर दिया. इस के बजाय महिला ने फैमिली कोर्ट में याचिका दायर की और सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता देने की मांग की. 9 जून 2023 को फैमिली कोर्ट ने हर महीने 20 हजार रुपये का गुजारा भत्ता देने का आदेश पति को दिया.
फैमिली कोर्ट के फैसले को पति ने तेलंगाना हाईकोर्ट में चुनौती दी. 13 दिसंबर 2023 को हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा. लेकिन हर्जाने की रकम 20 हजार से घटा कर 10 हजार रुपये कर दी.
अब्दुल समद ने हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. उस ने दलील दी कि एक तलाकशुदा मुसलिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने की हकदार नहीं है. मुसलिम महिला पर 1986 का मुसलिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) कानून लागू होता है. उस ने यह भी दलील दी 1986 का कानून मुसलिम महिलाओं के लिए ज्यादा फायदेमंद है. लेकिन वहां से भी उसे राहत नहीं मिली और मामला सुप्रीम कोर्ट में आ गया.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
10 जुलाई 2024 को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस औगस्टिन जौर्ज मसीह की बेंच ने 99 पन्नों का फैसला देते हुए कहा कि एक तलाकशुदा मुसलिम महिला भी सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता पाने के लिए याचिका दायर करने की हकदार है.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ किया कि सीआरपीसी की धारा 125 सभी शादीशुदा महिलाओं पर लागू होती है, जिन में शादीशुदा मुसलिम महिलाएं भी शामिल हैं. अदालत ने ये भी कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 सभी गैर-मुसलिम तलाकशुदा महिलाओं पर भी लागू होती है.
मुसलिम तलाक पर कोर्ट ने कहा –
– अगर किसी मुसलिम महिला की शादी या तलाक स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत होती है, तो भी उस पर धारा 125 लागू होगी.
– अगर मुसलिम महिला की शादी और तलाक मुसलिम कानून के तहत होता है तो उस पर धारा 125 के साथसाथ 1986 के कानून के प्रावधान भी लागू होंगे. तलाकशुदा मुसलिम महिलाओं के पास दोनों कानूनों में से किसी एक या दोनों के तहत गुजारा भत्ता पाने का विकल्प है.
– अगर 1986 के कानून के साथसाथ मुसलिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भी याचिका दायर करती है तो 1986 के कानून के प्रावधानों के तहत जारी हुए किसी भी आदेश पर सीआरपीसी की धारा 127(3)(b) के तहत विचार किया जा सकता है. इस का मतलब ये है कि अगर पर्सनल लॉ के तहत मुसलिम महिला को गुजारा भत्ता दिया गया है, तो धारा 127(3)(b) के तहत मजिस्ट्रेट उस आदेश पर विचार कर सकते हैं.
दोनों जजों का फैसला
1. जस्टिस मसीह – एक तलाकशुदा मुसलिम महिला को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता पाने के अधिकार का उपयोग करने से नहीं रोका जा सकता, बशर्ते वो सारी शर्तें पूरी करती हो. धारा 125 एक सेक्युलर प्रावधान है और 1986 के कानून की धारा 3 के बराबर ही है.
2. जस्टिस नागरत्ना – 1986 का कानून धारा 125 का विकल्प नहीं है और दोनों कानून तलाकशुदा मुसलिम महिलाओं के लिए हैं. अगर मुसलिम महिलाओं को धारा 125 से बाहर रखा जाता है तो संविधान के अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन होगा, जो सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है.
गौरतलब है कि तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2017 में असंवैधानिक घोषित कर दिया था. इस के बाद 2019 में मोदी सरकार ने कानून लाकर तीन तलाक को न सिर्फ असंवैधानिक किया, बल्कि इसे अपराध के दायरे में भी रखा.
जस्टिस नागरत्ना ने अपने फैसले में साफ किया है कि तीन तलाक के अवैध तरीके से भी किसी मुसलिम महिला को तलाक दिया जाता है तो वो भी सीआरपीसी की धारा 125 के तहत हर्जाने का दावा कर सकती है.
उन्होंने कहा, तलाकशुदा मुसलिम महिला को सीआरपीसी की धारा 125 से बाहर नहीं रखा जा सकता है, भले ही उसे किसी भी कानून के तहत तलाक दिया गया हो. जिस का