सुसाइड-आखिर क्यों जीना नहीं चाहती नई पीढ़ी
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आत्महत्या व्यक्ति के जीवन में दर्द, तनाव और अवसाद के चरम पर पहुंचने का सूचक है. आत्महत्याओं के कारण और तरीके भले अलग-अलग हों, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि जब परिवार, समाज और देश की व्यवस्था से सहारे की हर उम्मीद खत्म हो जाती है, तभी कोई व्यक्ति इस आखिरी रास्ते को चुनता है। तो क्या विकास की चकाचौंध और आगे बढ़ने की अंधी प्रतिस्पर्धा के बीच हमारे परिवार, समाज और शासन में नयी पीढ़ी को सहारा देने की शक्ति क्षीण हो रही है? क्या यह सच नहीं है कि हमारी सामाजिक मान्यताएं, सामाजिक स्तर, सामाजिक अपेक्षाएं हमारे जीवन को ऐसे बंधन में जकड़े हुए हैं, जो कभी-कभी फांसी का फंदा बन जाता है?
रितु के मामा के बेटे ने डौक्टरी का एन्ट्रेंस इग्जाम पास कर लिया था। रितु पर उसकी मां का जबरदस्त प्रेशर था कि उसे भी डौक्टर ही बनना है. उन्होंने रितु की पढ़ाई-ट्यूशन पर खूब पैसा लगाया, मगर दो साल की कोशिशों के बाद भी रितु सीपीएमटी की परीक्षा उत्तीर्ण नहीं कर पायी और उसने आत्महत्या कर ली. क्या जीवन इतना सस्ता है कि एक परीक्षा में नाकाम होने पर समाप्त कर दिया जाए? महज बीस साल की रितु ने अपने घर, बाजार और कौलेज के अलावा इतनी बड़ी और खूबसूरत दुनिया का कोई भी कोना अभी तक नहीं देखा था। उसके जीवन पर उसकी मां की, परिवार की, सामाजिक स्टेटस की अपेक्षाएं इतनी हावी हो गयीं कि उसने अपना जीवन ही खत्म कर लिया. यह कहानी सिर्फ रितु की नहीं, बल्कि इस देश के उन तमाम नौजवानों की है, जो किसी एक परीक्षा में फेल होने पर अपने समस्त जीवन को ही फेल समझ लेते हैं और फांसी का फंदा गले में डाल लेते हैं.
भारत में आज मध्यवर्ग तेजी से बढ़ रहा है. यह वर्ग अपनी हर छोटी-बड़ी जरूरत को पूरी करने की आकांक्षा पाले रहता है। इस वर्ग में बच्चों को लेकर मां-बाप की आकांक्षाएं बढ़ रही हैं. दरअसल मध्यवर्गीय मां-बाप अपने बच्चों के जरिये ही अपनी आकांक्षाएं पूरी करना चाहते हैं. इसलिए वे अपने बच्चों पर अच्छी पढ़ाई के लिए दबाव बनाने लगते हैं। कई मां-बाप तो ऐसे हैं, जो अपने बच्चों के लिए ऐसी नौकरी चाहते हैं, जिसमें खूब पैसे हों, यह देखे बिना कि उसकी पढ़ाई का दबाव बच्चा बर्दाश्त कर पाएगा या नहीं. बच्चों पर अनावश्यक दबाव बनाने का खामियाजा यह होता है कि कभी-कभी बच्चे अवसाद का शिकार हो जाते हैं और आत्महत्या जैसा खतरनाक कदम उठा लेते हैं.
बच्चे ही नहीं, बड़े और घर-गृहस्थी वाले लोग भी सामाजिक दबाव में आत्महत्या का रास्ता अपना लेते हैं. रेहान की पत्नी को शिकायत थी कि उसके परिवार का स्टेटस रेहान के बड़े भाई के परिवार के स्टेटस से मेल नहीं खाता था. उसको अपने जेठ-जेठानी के घर जाने में शर्मिंदगी महसूस होती थी. लिहाजा वह रेहान पर दबाव बनाती थी कि वह ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाये. ज्यादा कमाई के चक्कर में रेहान रिश्वतखोरी में फंसता चला गया और एक दिन पुलिस के हाथों रंगेहाथों पकड़े जाने के बाद उसने मारे शर्मिंदगी के आत्महत्या कर ली. अपने सामाजिक स्तर को लेकर जिस तरह आज का युवा परेशान है, वह उसको लगातार अवसाद और निराशा की ओर ढकेल रही है. बड़ी गाड़ी, बड़ा फ्लैट, सुख-सुविधा का हर सामान, नौकर-चाकर जैसे सपने आंखों में लेकर युवा इसको हासिल करने की जद्दोजहद में जीवन के असली सुख से लगातार दूर होते जा रहे हैं. कभी देखा है पश्चिमी देशों के युवा सैलानियों को? वह अपना सबकुछ बेच कर जरूरत का थोड़ा सा सामान कंधे पर लिये, साधारण सूती कपड़े पहने दुनिया भर की सैर पर निकल पड़ते हैं। क्यों? क्योंकि वह 60-70 साल की छोटी सी जीवन-अवधि में इस दुनिया का ज्यादा से ज्यादा देख लेना चाहते हैं. वे इस बात में विश्वास करते हैं कि जीवन सिर्फ एक बार ही मिलता है, इसलिए वे कुएं के मेढ़क नहीं बनना चाहते. उनके लिए जीवन कोई एक परीक्षा पास कर लेना, या अपना सामाजिक स्तर ऊपर उठाना भर नहीं है. वह संकीर्ण दायरों से निकल कर जीवन की असली सुन्दरता देखने-जानने में रमे हैं.
दिल्ली के किशनगढ़ की आरती नाम की 19 साल की लड़की ने सड़क पर अपने साथ हो रही लगातार छेड़छाड़ से विचलित होकर (शायद खुद से घिन महसूस करके!) आत्महत्या कर ली. उसके दिमाग में शायद बचपन से यह बिठाया गया था कि उसके साथ किसी प्रकार की शारीरिक छेड़छाड़ या भद्दा मजाक अगर होता है तो उसकी जिम्मेदार वह स्वयं है। उसे विश्वास था कि अगर वह अपनी परेशानी किसी से शेयर करेगी तो उसको ही और ज्यादा प्रताड़ित और अपमानित होना पड़ेगा. शायद आरती अपनी परेशानी के साथ अकेली पड़ गयी. यही वजहें थीं कि उसने इस परेशानी से मुक्त होने के लिए आत्महत्या को सुगम रास्ता समझा.
हमारी शिक्षा और सामाजिक मान्यताओं ने हमें इतना गुमराह कर रखा है कि हमें सही और गलत रास्ता ही दिखायी नहीं देता. हम छोटे-छोटे दायरों में बांध दिये गये हैं और उससे बाहर निकलने के लिए हम प्रश्न खड़ा करने से डरते हैं. हम विरोध से डरते हैं. एक गोत्र में विवाह को वर्जित मानना, अन्तरधर्मीय विवाह को मान्यता न होना, दलित-सवर्ण विवाह की अनुमति न होना जैसी बातों ने हमारे समाज के युवाओं को इतना हताश कर दिया है कि वे लगातार आत्महत्या की ओर अग्रसर हैं. आये-दिन देश के किसी न किसी कोने से यह खबर आ रही है कि अमुक प्रेमी ने प्रेम में असफल होकर आत्महत्या कर ली. क्या विदेशी समाज में ऐसी खबरें सुनने को मिलती हैं? नहीं, फिर हम क्यों हमारे युवाओं की जान के दुश्मन बने हुए हैं? और हमारे युवा भी क्यों इन सामाजिक मान्यताओं का विरोध करने के बजाये आत्महत्या जैसा पलायनकारी और कायरता का मार्ग पकड़ रहे हैं?
कितना करुण है कि जिनका जीवन अभी पूरा खुला-खिला भी नहीं, वे जीने से मुंह मोड़ रहे हैं! एक औस्ट्रेलियाई लेखक पीटर मायर ने इस विषय पर कुछ साल पहले ही एक किताब लिखी थी. उस किताब में मायर ने इस बात को रेखांकित किया था कि भारतीय युवाओं में आत्महत्या बढ़ रही है और हम लोग इस आंकड़े पर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं. भारत में किसानों की आत्महत्या पर खूब चर्चा होती है, होनी भी चाहिए, लेकिन युवाओं की आत्महत्या पर कुछ नहीं होता, जबकि युवाओं की बड़ी संख्या इसका शिकार हो रही है.