डेढ़दो दशक पहले तक भारत में पाकिस्तानी कलाकारों का स्वागत दिल खोल कर होता था. लखनऊ महोत्सव और दिल्ली में आयोजित अनेक सांस्कृति कार्यक्रमों में प्रसिद्ध पाकिस्तानी ग़ज़ल गायक गुलाम अली, नुसरत फतेह अली खान को सुनने के लिए भीड़ उमड़ती थी. रातरात भर चलने वाले उन की गायकी को मंत्रमुग्ध होकर सुनती थी. भारत पाकिस्तान का मैच रोमांच पैदा करता था. पाकिस्तानी क्रिकेटर्स भारत आ कर खुश होते थे, भारतीय खिलाड़ियों के सतह हंसीमजाक करते, साथ घूमते और साथ खातेपीते थे. मगर बीते डेढ़ दशक में बहुसंख्यक धर्म के प्रचार-प्रसार का ऐसा नकारात्मक असर जनता पर पड़ा कि कला और खेल जो सरहदों के नियमों से बहुत ऊपर हैं, उन के प्रति भारतीयों के दिल छोटे और दिमाग कुंद हो गए.

आज भारत और पाकिस्तान के बीच जब भी कोई मैच होता है, हम गुस्से और तनाव से भर जाते हैं. मैच को खेल की भावना से नहीं बल्कि नफरत और गुस्से की भावना से देखते हैं. मैदान में खेल रहे पाकिस्तानी खिलाड़ियों पर हूटिंग करते हैं, उन्हें कोसते हैं, गालियां देते हैं. कहीं हम पाकिस्तानी फोबिया से ग्रस्त तो नहीं? अब कोई बड़ा पाकिस्तानी कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए भारत आने को तैयार नहीं है. पाकिस्तान को ले कर जो संकीर्णता आज देखी जा रही है, सुप्रीम कोर्ट में आने वाला एक मामला इस का ताज़ा उदाहरण है, जिस की शीर्ष अदालत ने काफी भर्त्सना की है.

उच्चतम न्यायालय ने भारत में प्रस्तुति देने या काम करने के लिए आने वाले पाकिस्तानी कलाकारों पर पूर्ण प्रतिबन्ध के अनुरोध वाली एक याचिका को 28 नवंबर को खारिज करते हुए याचिकाकर्ता फैज अनवर कुरैशी से कहा कि पाकिस्तान को ले कर इतनी संकीर्ण मानसिकता ठीक नहीं है.

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