रामचरितमानस को अधिकतर हिंदू अपना धार्मिक ग्रंथ मानते हैं. लेकिन बहुत कम ही इन चीजों पर ध्यान देते हैं या पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं कि यह ग्रंथ अपशब्दों से भरा पड़ा है. लेखक या कवि अपनी रचना की भूमिका में यह लिखना नहीं भूलता कि अगर पाठकों ने उस की रचना को पसंद किया है तो वह अपने श्रम को सार्थक समेगा. साथ में पाठकों के सुझाव भी आमंत्रित करता है. यदि कोई भी कवि या लेखक उस के कथन या लेखन पर विश्वास न करने वालों के लिए अपशब्दों का प्रयोग करे तो कितना अजीब लगता है.

लेकिन जो व्यक्ति तुलसीदास के रामचरित मानस के कथन पर विश्वास नहीं करता है, तुलसी ने उसे अंधा, बहरा, कौआ, दुष्ट, अधर्मी, कुतर्की आदि शब्दों का प्रयोग करते हुए अपमानित किया है. ऐसे तुलसीदास को महान कवि कैसे कहा जाए, समझ नहीं आता. रामचरितमानस एक धार्मिक ग्रंथ है. उस में आदि से अंत तक तुलसी का यही प्रयास रहा है कि राम को भगवान मानने के साथसाथ लोग उन के ऊलजलूल कथन पर आंख मूंद कर विश्वास करते रहें. तुलसीदास ने सज्जन उसी व्यक्ति को कहा है जो उन के कथन पर विश्वास कर प्रशंसा से सिर हिलाता रहे, चाहे उन का कथन फीका ही क्यों न हो.

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परंतु वे यह अच्छी तरह समझाते थे कि भावी पीढ़ी उन की कवित्व शक्ति की सराहना भले ही करे, पर उन की बेसिरपैर की बातों का मजाक उड़ाए बिना नहीं रहेगी. इसीलिए उपहास करने वालों को तुलसीदास ने दुष्ट के साथसाथ कौआ की उपाधि भी दे डाली. कौआ क्या खाता है, यह सभी जानते हैं. यहां तुलसी बाबा ने अपनेआप को मीठे स्वर वाली कोयल कह डाला. देखिए : ‘‘पैहहिं सुख सुजन सब खल करिहहिं उपहास.’’ अर्थात, इसे सुन कर सज्जन सभी सुख पाएंगे और ‘दुष्ट’ हंसी उड़ाएंगे. ‘खल परिहास होहि हित मोरा. काक कहहिं कलकंठ कठोरा.’ अर्थात, ‘दुष्टों’ के हंसने से मेरा हित होगा. मधुर कंठवाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं. तुलसीदास ने अपशब्द भी बहुत सोचसम? कर प्रयोग किए हैं. उन्होंने ‘विनती करो और गाली दो’ का सिद्धांत अपनाया है. तुलसी जो कह रहे हैं उस पर शंका नहीं करनी है.

जिस ने शंका की वही मूर्ख है. यहां तुलसी ने पहले स्वयं को मूर्ख कहा है, फिर दूसरों को. ‘‘समु? बिबिध बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥ एतेहु पर करिहिं जे असंका। मोहि ने अधिक ते जड़ मतिरंका॥’’ अर्थात, मेरी अनेक प्रकार की विनती को सम? कर कोई भी इस कथा को सुन कर दोष नहीं देगा. इतने पर भी जो शंका करेंगे वे तो मुझसे भी ‘मूर्ख’ और ‘बुद्धि के कंगाल’ होंगे. कोई रचना कैसी है, इस का मूल्यांकन रचनाकार पाठकों पर छोड़ देता है. अपनी रचना के संबंध में तुलसी का ‘नित कबित्त केहि लाग न नीका, सरस होइ अथवा अति फीका’ तक कहना तो ठीक था, परंतु अपने ग्रंथ की तुलना मानसरोवर से कर आत्मप्रशंसा करना कहां तक उचित कहा जा सकता है.

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इस मानसरोवर के उत्तम देवता वे ही मनुष्य हैं, जो इसे आदर के साथ सुनते और गाते हैं. जो इसे आदर के साथ नहीं सुनते हैं वे ‘दुष्ट’, ‘बगुला’, ‘कौआ’, ‘घोंघा’, ‘मेंढक’ आदि के समान हैं. ‘‘अति खल जे विषई बग कागा। संबुक भेक सेवार समाना।’’ (बालकांड 2) अर्थात, जो अति ‘दुष्ट’ और ‘बिषई’ हैं, वे अभागे ‘बगुले’ और ‘कौए’ हैं जो इस सरोवर के करीब नहीं आते क्योंकि यहां ‘घोंघे’ ‘मेंढक’, ‘सेवार’ के समान विषय रस की नाना कथाएं नहीं हैं. संपूर्ण मानस में यह देखा जाता है कि जो राम का भक्त है वह तुलसी के लिए प्रिय है, जो राम का भक्त नहीं है वह तुलसी का शत्रु है. जहां भी रावण का वर्णन आया है तुलसी ने वहां उसे ‘मूर्ख’, ‘दुष्ट’, ‘पापी’, ‘अभिमानी’ कह कर अपमानित किया है : मंदोदरी रावण को राम से मित्रता करने की सीख दे रही है. परंतु रावण राम के आगे आत्मसमर्पण करने को तैयार नहीं है.

तब तुलसी रावण को यों अपमानित करते हैं : ‘‘श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहंसा जगत विदित अभिमानी॥’’ अर्थात ‘मूर्ख’ और विश्वप्रसिद्ध ‘अभिमानी’ रावण कानों से उस की वाणी सुन कर खूब हंसा. (सुंदरकांड) अंगद-रावण संवाद चल रहा है. रावण राम को मनुष्य मानता है, तब तुलसीदास अंगद से रावण पर अपशब्दों की वर्षा करा देते हैं. (यह कूटनीतिक आचरण के भी विरुद्ध है.) इस प्रकार के अपशब्द शायद ही किसी ग्रंथ में हों : ‘‘रे त्रियचोर कुमारणगामी। खल मलरासि मंदमति कामी॥ सन्निपाति जल्पसि दुर्बादा। भयेसि कालबस खल मनुजादा॥ राम मनुज बोलत असिबानी। गिरहिं न तव रसना अभिमानी॥’’ (लंकाकांड) अर्थात, अरे ‘स्त्री के चोर’, अरे ‘कुमार्ग पर चलने वाले’, अरे, ‘दुष्ट पाप की राशि’, ‘मंदबुद्धि’ और ‘कामी’, तू सन्निपात में क्या दुर्वचन बोल रहा है? अरे ‘दुष्ट राक्षस’, तू काल के वश में हो गया है. राम मनुष्य है. ऐसे वचन बोलते ही, अरे ‘अभिमानी,’ तेरी जीभ क्यों नहीं गिर गई. रामचरितमानस में कवि ने ‘मानो, विचार मत करो’ का ही सिद्धांत अपनाया है. अगर विचार करने पर शक हुआ तो वह व्यक्ति मूर्ख,

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दुष्ट और अभागा है : ‘‘मायाबस मतिमंद अभागी। हृदय जवनिका. बहु बिधि लागी॥ ते सठ हठबस संसय करहिं। निज अग्यान राम पर धरहिं॥’’ (उत्तरकांड) अर्थात, जिन मंदबुद्धि अभागे लोगों के हृदय पर परदे पड़े रहते हैं वे ही मूर्ख हठ कर के ऐसा संदेह करते हैं और अपना अज्ञान राम पर थोपते हैं. लोग सगुण उपासक रह कर राम को ईश्वर मानते रहें, इस के लिए तुलसी ने कागमुशुंडि के माध्यम से खूब कसरत की है. ‘‘सुनु खगेस हरि भगति विहाई। जे सुख चहहिं आन उवाई॥ ते सठ महासिंघु-बिन तरनी। पैरिपार चाहहिं जड़ करनी॥’’ (उत्तरकांड) अर्थात, हे पक्षीराज, सुनिए, जो लोग हरि की भक्ति को छोड़ कर दूसरे उपायों से सुख चाहते हैं, वे मूर्ख और अभागे बिना नाव के तैर कर महासमुद्र पार करना चाहते हैं.

रामचरितमानस को अधिकांश हिंदू अपना धार्मिक ग्रंथ मान कर आदर के साथ पढ़ते हैं, चाहे यह रचना ‘स्वांत: सुखाय’ ही क्यों न हों, पर ऐसा नहीं है कि इस का प्रभाव पाठकों के मनमस्तिष्क पर न पड़ता हो. भारत कई संस्कृतियों का देश है. क्या तुलसी के ये अपशब्द भारत जैसे ‘महामानव समुद्र’ में विष नहीं घोल रहे हैं? (यह लेख चिरोंजीलाल श्रीवास्तव ने अपने जीवनकाल में लिखा था.)

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