भगवान तो दाता है, भक्तों को दोनों हाथ से देता है. फिर भला क्यों भक्तों से दानदक्षिणा मांगी जाती है. भगवान के नाम पर धर्म के धंधेबाज आखिर अपनी जेब कब तक भरते रहेंगे? प्रस्तुत है, कुसुमलता?का लेख.

धर्म मुक्ति दिलाता है, भगवान का भजन करने से भूख मिटती है, भगवान को याद करो तो समृद्धि मिलती है. इस तरह की बातें प्रवचनों में खूब कही जाती हैं. सवाल है कि अगर भगवान ही देता है तो भक्तों से क्यों मांगा जाता है. यही नहीं, भक्तों का दिया दान भगवान के बिचौलिए अपने ऊपर क्यों खर्च करते हैं. क्यों नहीं भगवान सारा अन्न अपनेआप भिखारियों में बांट देते. आइए, इस यक्ष प्रश्न की कुछ गहरी जांच करें :

हरिद्वार, गयाजी या अन्य तीर्थस्थलों पर जा कर आप पाएंगे कि वहां हजारों की संख्या में अंधे,  लूलेलंगड़े बैसाखियों के सहारे या छोटेछोटे लकड़ी के फट्टों की गाडि़यों पर घूमते नजर आएंगे. ये इतने सारे बेकार, नाकारा लोग समाज के भोलेभाले, लोगों को धर्म के नाम पर बेवकूफ बना कर उन का शोषण कर रहे हैं.

इतने लोगों को हर रोज खाना सदावर्त या भंडारों से मुफ्त में मिलता है. जो लोग अपने पूर्वजों, पितरों या पे्रतात्माओं को स्वर्ग या मोक्ष दिलवाने के लिए, अस्थि विसर्जन या पिंडदान करने आते हैं वे भी 1, 5, 7 या कितनी ही संख्या में इन लोगों को भोजन करवाते हैं.

इन की संख्या इतनी बढ़ गई है कि अब इन्होंने भी अपनी यूनियन बना कर तय कर लिया है कि भोजन करने के बजाय भोजन का अमुक होटल का कूपन या वाउचर लेंगे. उस की राशि, आनेजाने का रिकशा भाड़ा, दांतघिसाई चार्जिज तथा दक्षिणा यूनियन रेट पर या अधिक देनी होगी. आजादी के बाद जैसेजैसे वैज्ञानिक सोच घटता जा रहा है भंडारा व्यवसाय बढ़ता जा रहा है.

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