धार्मिक हिंसा जोरू और जमीन के लिए की गई हिंसा से कई गुना अधिक होती है. हम जिस सर्वधर्म समभाव या धार्मिक सहिष्णुता की बात करते हैं, वह मिथ्या के अलावा कुछ नहीं. प्रस्तुत है, मोहन वर्मा की विवेचना.

प्रागैतिहासिक मनुष्य ने अस्तित्व के लिए संघर्ष का एक लंबे समय तक सामना बर्बरतापूर्वक लड़ कर अपना बचाव कर किया. उस के  लिए हर तरह के शत्रु को समाप्त करना जरूरी था, वरना शत्रु उसे समाप्त कर देता.

संगठन की ताकत का आभास होने के बाद लोग समूहों, गिरोहों, कबीलों में बंटने लगे. सामूहिक हिंसा शुरू हुई. यह भोजन एवं सुरक्षित घर पाने के लिए तिहरी लड़ाई का हिस्सा थी-प्राकृतिक आपदाओं के विरुद्ध, वन्य जंतुओं के विरुद्ध और दूसरे व्यक्ति समूहों के विरुद्ध.

खेतीबाड़ी और पशुपालन की शुरुआत के बाद, संघर्षों के कारणों में जीने के लिए भोजन व रहने की जगह के अलावा नई चीजें भी जुड़ती गईं जिन में खेती के लायक जमीनों पर कब्जा, दूसरे समूहों के व्यक्तियों को गुलाम बनाने के लिए बंदी बनाना और शारीरिक शोषण के लिए औरतों को हथियाना, कुछ खास वजहें थीं. दूसरों की पैदा की या पाई चीजों पर कब्जा कर खुद उन का आनंद लेना भी उन्हीं में से था.

आंधीतूफान, बाढ़, सूखा और दावानल की भीषण मार झेलते मनुष्य को जल, वायु और अग्नि रक्षक की तरह दिखने लगे. विनाशकारी ताकत रखने वाले तत्त्वों के प्रति भय और बेबसी ने रक्षक तत्त्वों को वश में करने की कामना ने पूजापाठ के विधानों को बल दिया. चतुर लोगों ने इस भय का लाभ उठा कर बड़े अनिष्टों को टालने के लिए कर्मकांड शुरू किए. कर्मकांडों की सघनता बढ़ने के साथ ईश्वरीय अवधारणाएं भी नएनए रूपों में विस्तार पाती गईं.

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