बालू के ढूहों के बीच सनसनाती हवा के झकोरों से उठते रेत के बगूलों के थपेडे़ सहती ढाणीनुमा बस्ती वरना के कच्चेपक्के फूस के झोपड़े आसपास भी थे और दूरदूर तक छितराए हुए भी. राजस्थान के रेगिस्तानी जिले जैसलमेर के आखिरी छोर पर बसी इस बस्ती में उस दिन सुबह से ही बादल छाए हुए थे.

बरसात का एक जोरदार झोंका आ कर चला गया था, लेकिन उमड़ते बादलों के घटाटोप से अंधेरे के आंचल में ढकी शाम तेजी से गहराती जा रही थी. ढलान पर बने एक झोपड़े के अधखुले दरवाजे से फैलती ठंडी हवा के झोंकों से दीए की रोशनी का दायरा बारबार कांपता और फिर स्थिर हो जाता था. हवा के तेज होते थपेड़े अधखुले दरवाजे पर बारबार दस्तक दे रहे थे.

मटमैली रोशनी में जागती बतियाती शनीचरी की जुबान पर आखिर वह सवाल आ ही गया, ‘‘भीखणी, एक बात पूछूं, तेरा तो घरबार है, मेरा तो कोई भी नहीं. सच्ची बता, तू ठाकुरों की मौत पर ऐसा मातम करती है जैसे तेरा कोई अपना सगा मर गया हो. रोनेपीटने का स्वांग भी करे तो आंसुओं का ऐसा परनाला बहता है. इतने ढेर सारे आंसू...बाप रे बाप, कैसे कर लेती है तू ये सब?’’

‘‘यही तो चमत्कार है शनीचरी,’’ दीए की मंद पड़ती रोशनी में अपनी बड़ीबड़ी आंखें फैलाते हुए भीखणी रहस्य में डूबे स्वर में बोली, ‘‘पूरी बात समझेगी तो हैरान रह जाएगी.’’

‘‘पर भीखणी, मैं तो नासपीटी अभागी ही रही,’’ शनिचरी ने झुंझलाते हुए कहा, ‘‘शनीचर को पैदा हुई तो नाम भी शनीचरी धर दिया गया. लोग कहते हैं, जनमते ही बाप को खा गई. मनहूस बेटी को मां पीवली भी छोड़ कर भाग गई. बेटे को जन्मा, वह भी छोड़ कर चला गया. पर मेरी आंख से आंसू का कतरा भी नहीं टपका. मेरे ऊपर इतना सब बीता, फिर भी नहीं रोई.’’

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