पटना-दीघा रेल लाइन के किनारे ही कई सालों से झोपड़ियां बसी हुई हैं. उसे हटाने की हिम्मत न लोकल प्रशासन और न ही रेल महकमे को है. इतना ही नहीं पटना के बेलीरोड हौल्ट तबेला में और दीघा घाट हौल्ट शराब और शराबियों के अड्डे में तब्दील हो गया है.
पुनाईचक हौल्ट का बुकिंग काउंटर ध्वस्त हो गया है, जबकि शिवपुरी हौल्ट बुकिंग काउंटर पर गाय-भैंस बांधा जा रहा है. पूर्व मध्य रेलवे के इस रूट पर बदइंतजामी की इंतहा ही नजर आती है.
इस रेल रूट पर रेलगाड़ियां छुक-छुक करते हुए नहीं बल्कि रूक-रूक कर चलने को मजबूर हैं. आजादी से पहले ब्रिटिश सरकार ने दीघा घाट से लेकर पटना घाट तक रेलवे ट्रैक बिछाया था. तब से यह ट्रैक कभी अच्छे तो कभी बुरे दौर से गुजरता रहा है.
अंग्रेज सरकार ने इस ट्रैक को व्यापार के लिए से विकसित किया था. आजादी के बाद भी इस ट्रैक का उपयोग व्यापार के लिए किया जाता रहा. इस रूट से दीघा में भारतीय खाघ निगम अनाज भंडारण करने का काम शुरू किया गया.
इसके बाद दीघा-पटना रूट को लावारिस हालत में छोड़ दिया गया. इस रेल लाइन के पास बसी झोपड़ियों के लोग आए दिन ट्रेन के नीचे आकर जान गंवाते रहे हैं या जख्मी होते रहे हैं. इसके बाद भी न सरकार की नींद टूट पा रही है न ही रेलवे को इसकी कोई फिक्र है.
कुछ ऐसा ही हाल पटना से सटे दानापुर अनुमंडल से गुजरने वाले रेलवे लाइनों का हैं. हर हादसों के बाद रेलवे अफसरों की नींद टूटती हैं और पटरियों के आसपास से झोपड़ियों को हटाने का ऐलान करते हैं और मामले के ठंडा होते ही वे भी ठंडे पड़ जाते हैं.
दानापुर राजकीय मध्य विद्यालय में 7 वीं कक्षा में पढ़ रही 13 साल की संजना कुमारी की कहती हैं कि अगर रेलवे के अफसर उसके घर को हटाने की कोशिश करेंगे तो वह जान दे देगी.
उसका परिवार पिछले कई सालों से इंदिरा आवास की मांग कर रहा है, पर कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है. समाजशास्त्री हेमंत राव कहते हैं कि सरकारी योजनाओं को जमीन पर उतारने के नाम पर उनके जैसे सैंकड़ों परिवार को इधर-उधर होना पड़ रहा है. सरकार एक जगह से उजाड़ती है तो वे दूसरी जगह अपना झोपड़ा बना लेते हैं. उसके बाद कुछ ही समय बाद सरकार के लोग पिफर से उन्हें उजाड़ने के लिए आ ध्मकते हैं.
दानापुर में ही रेल की पटरियों से सट कर बसे टेसलाल वर्मा नगर की हालत तो और ज्यादा बदतर है. रेल लाइनों के किनारे खाली पड़ी जमीनों पर झोपड़ी बना कर बसे गरीबों के सिर पर हर दिन उजड़ने की तलवार लटकती रहती है.
झोपड़ी में रहने वाला उमेश बिन्द का बेटा धर्मवीर कुमार पास के ही प्राइमरी स्कूल में चैथी क्लास में पढ़ता हैं. वह बड़ी ही मासूमियत से कहता है कि उसके जैसे कई बच्चों ने मुख्यमंत्री अंकल और डीएम अंकल से कहा था कि उन्हें रहने को छोटा सा घर दिया जाए, जिससे झोपड़ी के बच्चे मन लगा कर पढ़ सके और बड़ा आदमी बन सकें, पर कोई सुनता ही नहीं है.
झोपड़पट्टी में 456 झोपड़ियां है जिसमें पिछड़ी जातियों के करीब 3 हजार लोग रहते हैं. यह लोग मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पाल रहे हैं. मिट्टी खोदने कर काम करने वाला देबू बिंद कहता है कि सरकार कहती है कि गरीबों और पिछड़ों को बसाने के लिए इंदिरा आवास बनाया जा रहा है, पर उनके आस-पास बसे लोगों में से किसी को भी इस योजना का फायदा नहीं मिल सका है. अपनी बस्ती का नाम उन्होंने मशहूर सामाजिक कार्यकर्ता टेसलाल वर्मा के नाम पर टेसलाल वर्मा नगर रख है.
वैसे तो देश भर में रेलवे लाइनों के किनारे झुग्गियों के कुकुरमुत्तें की तरह उगी हुई हैं पर बिहार में तो रेलवे लाइनों को घर के आंगन की तरह इस्तेमाल किया जाता है. दूर-दराज के इलाकों की छोड़िए, पटना के आसपास के इलाकों में भी रेल पटरियों के किनारे बसी झुग्गियां हर समय हादसों को न्यौता देती रहती हैं.
रेल लाइनों झुग्गियों के बच्चें हुड़दंग मचाए रहते हैं. न बच्चों को और न ही उनके मां-बाप को यह चिंता है कि रेलगाड़ी के नीचे आने से जान जा सकती है. बच्चों और जानवरों को हटाने के लिए रेलगाड़ी का ड्राइवर सीटी बजाते-बजाते परेशान रहता है, जिससे गाड़ी अपनी सही चाल से नहीं चल पाती है.
हादसे के बाद होने वाले उपद्रव मारपीट और तोड़-फोड़ के डर से ड्राइवर गाड़ी की सीटी लगातार बजाने और ट्रेन को रूक-रूक कर चलाने के लिए मजबूर हैं. इसका नतीजा यह होता है कि रेलगाड़ियां लेटलतीपफी का शिकार होती रहती है.
सूबे के कई जिलों से पिछले कई दशकों से गरीब लोग रेलवे की खाली जमीन पर या रेल लाइनों के किनारे झोपड़ी बना कर जिंदगी गुजार रहे हैं. उन झोपड़ियों में रहने वाले हर पल मौत का सामना करते हुए जिंदगी बिता रहे हैं. रेलवे उन्हें हटाने की जिद करता हैं तो वे मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं.