दिल्ली के 16 दिसंबर के दामिनी गैंगरेप कांड की खौफनाक यादें अभी जेहन से निकली भी न थीं कि राजधानी सहित देश के कई हिस्सों में मासूम बच्चियों के साथ हैवानियत और दरिंदगी की वारदातों ने लोगों को झकझोर कर रख दिया है. यह सिलसिला न जाने और कितनी मासूमों को अपना शिकार बनाएगा, इस का जवाब किसी के पास नहीं है. पढि़ए राजेश कुमार की रिपोर्ट.
दिल्ली के गांधीनगर इलाके में 5 साल की मासूम गुडि़या को जिन हैवानों ने अपनी कामवासना की गिद्धभावना के तहत नोचाखसोटा होगा, उन्हें भी तो उस मासूम बदन से मांस की जगह सिर्फ हड्डियां ही मिली होंगी.
दरअसल, 17 अप्रैल को दिल्ली के गांधीनगर इलाके के एक बेसमैंट में 5 साल की मासूम बच्ची गंभीर रूप से जख्मी हालत में मिली. मैडिकल रिपोर्ट में मासूम के साथ दुष्कर्म और शारीरिक यातनाओं का खुलासा हुआ. हैवानियत भरे इस कुकृत्य को जिस ने सुना, आक्रोशित हो सड़कों पर उतर पड़ा.
10 जनपथ, एम्स, पुलिस हैडक्वार्टर हर जगह गुस्साई भीड़ उन दरिंदों को फांसी देने की मांग करने लगी. 20 अप्रैल को सुबह के 10 बजे जब हम अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान पहुंचे तो मैन गेट पर टीवी चैनलों के
30-40 ओबी वैन और बैरिकेडों की परिधि में माइक और कैमरों से लैस मीडियाकर्मी जमा थे. गेट के दूसरी ओर प्रदर्शनकारी व गेट के बीचोंबीच मीडिया और गुस्साई भीड़ को संतुलित करती दिल्ली पुलिस मूक भूमिका में दिखी.
एम्स परिसर के हर गेट पर पुलिस का कब्जा था. मुख्य गेट के संकरे किनारे से मैं गेट से अंदर दाखिल हुआ. इस बात से बेखबर कि प्रैस का अस्पताल में दाखिल होना सख्त वर्जित है. चूंकि हाथ में किसी तरह का माइक और गले में कोई प्रैस का पट्टा न था, शायद इसलिए मु?ो किसी ने रोकने की जहमत नहीं उठाई.
अंदर पहुंचते ही जनरल वार्ड का रुख किया. एक सुरक्षाकर्मी से गुडि़या के बारे में पूछा तो जवाब में खामोशी मिली. शायद उसे निर्देश मिले थे. दूर किनारे बैठे दार्जिलिंग निवासी सुरक्षाकर्मी संतोष ने जरूर दबी जबान में बताया कि गुडि़या को एबी 5 की 5वीं मंजिल पर आईसीयू में भरती किया गया है. एक दिन पहले यानी 19 अप्रैल की शाम को ही उसे यहां लाया गया था. उस दिन वह जिंदगी और मौत के बीच जू?ा रही थी. मैडिकल बुलेटिन भी अभी तक जारी नहीं हुआ था. लिहाजा, पूरा देश उस की सलामती को ले कर चिंतित था.
अस्पताल के माहौल में अजीब सा सन्नाटा पसरा था. आम दिनों से खचाखच भरा रहने वाला एम्स आज ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वहां कर्फ्यू लगा हो. लिफ्ट से 5वीं मंजिल पर पहुंचा, जहां गुडि़या का इलाज चल रहा था. लंबी गैलरी पुलिस छावनी में तबदील थी. मुख्य दरवाजे पर भारीभरकम ताले लगे थे. एकबारगी लगा मानो तिहाड़ जेल आ गया हूं. हाथ में वौकीटौकी लिए चहलकदमी करती पुलिस इतनी चुस्तदुरुस्त पहली बार देखी थी. काश, यही चुस्ती अगर पुलिस पहले दिखाती तो शायद ये दिन ही नहीं देखने पड़ते.
खैर, दरवाजे तक पहुंचा ही था कि अफरातफरी सी मच गई. सुरक्षाकर्मी व कुछ पुलिसकर्मी मेरी ओर दौड़े. कौन है? कहां से आ गया? किस की ड्यूटी है गेट पर? किस ने अंदर आने दिया इसे? जैसे तमाम सवाल एक के बाद मेरी तरफ उछले. मैं सकपका सा गया. जवाब देते बन नहीं रहा था. बस, इतना ही बोल पाया कि मीडिया से हूं. फिर क्या था. पुलिस वाले तिलमिला उठे और उन में से एक इधरउधर देखते हुए बोला, ‘‘अरे, किस ने घुसने दिया इसे, बाहर निकालो.’’ उस की आवाज में तल्खी थी.
आलम यह था कि आगे कुछ भी पूछता तो पुलिसकर्मी का मु?ा पर हाथ उठ जाता. सोचा कि इस का क्या दोष. यह तो अपनी ड्यूटी कर रहा है. ऊंचे ओहदों पर बैठे अधिकारियों और सियासतदां के तानाशाही फैसलों का पालन करना ही तो इन की ड्यूटी है.
वापस निकलना ही मुनासिब लगा. गेट पर आ कर मीडिया सैल पहुंचा जहां अभीअभी मीडिया बुलेटिन के परचे बांटे जा रहे थे. परचा पढ़ कर मालूम हुआ कि गुडि़या खतरे से बाहर है. लेकिन इस खबर से वहां मौजूद गुस्साए लोगों को कोई खास राहत मिलती नहीं दिखी. वे अभी भी गुस्से में उतना ही उबल रहे थे जितना पहले. जनसैलाब नारों व तख्तियों पर लिखी इबारतों के जरिए बलात्कारियों को फांसी देने की मांग कर रहा था. यह गर्जना, तख्तियां और नारों का कोलाहल 16 दिसंबर के दामिनी वाली घटना की याद दिला रहा था.
उसी भीड़ में माथे पर 16 दिसंबर की काली पट्टी बांधे एक महिला नारेबाजी करती दिखी. पास जा कर पूछा कि वे यहां कब से हैं? जवाब मिला 116वां दिन है. जवाब चौंकाने वाला था. पर उन्होंने बताया कि 16 दिसंबर को दामिनी के साथ हुए गैंगरेप के बाद से ही वे
16 दिसंबर क्रांति के बैनर तले प्रदर्शन कर रही हैं. उन्होंने बताया कि हम तो दामिनी को इंसाफ दिलाने के लिए लड़ रहे थे, उस बेचारी का इंसाफ अभी ढंग से पूरा हो भी नहीं पाया था कि एक और नन्ही दामिनी के लिए लड़ना पड़ रहा है. इस से ज्यादा बुरी व दर्दनाक बात और क्या हो सकती है.
दिल्ली की इस महिला का नाम सरिता गुप्ता है. सरिता की तरह सुल्तानपुरी से आई राखी कहती हैं कि अगर यही हादसा प्रधानमंत्री की बेटी के साथ होता तो अपराधी को सजा मिल गई होती. गुडि़या तो मजदूर की बेटी है.
वहीं, नरेला के दीप भारद्वाज ‘दिल्ली पुलिस चोर है, कामचोर है और दलाल है’ के नारे लगा रहे थे और पुलिस सिर नीचे किए चुपचाप सुनने को विवश थी. तपती गरमी में लोगों में यह गुस्सा इसलिए था कि दरिंदों ने मासूम बच्ची को भी नहीं छोड़ा.
मामला यों था. दिल्ली के गांधी नगर इलाके की गली संख्या 14 में स्थित मकान संख्या 7619 में रहने वाली गुडि़या 15 अप्रैल को शाम 4 बजे अपनी मां को खेलने जाने की बात कह कर घर से निकली. जब रात 8 बजे तक वह वापस नहीं आई तो उस की गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराने उस के पिता थाने पहुंचे, लेकिन बमुश्किल रात 1 बजे तक एसएचओ के आने पर ही रिपोर्ट दर्ज हो सकी.
अगले दिन यानी 16 अप्रैल को सुबह 8 बजे से शाम 8 बजे तक पिता को थाने में यों ही बिठाए रखा गया. 17 अप्रैल को सुबह 11 बजे उसी मकान के बेसमैंट से किसी ने बंद कमरे से बच्ची के रोने की आवाज सुनी. यह आवाज गुडि़या की थी. सूचना मिलने पर पुलिस ने कमरे का ताला तोड़ कर बच्ची को निकाला.
गंभीर हालत में मिली बच्ची को दिल्ली के स्वामी दयानंद अस्पताल में दाखिल कराया गया जहां मैडिकल परीक्षण से दुष्कर्म का खुलासा हुआ. रात 9 बजे औपरेशन कर बच्ची के अंग से प्लास्टिक की शीशी व मोमबत्ती निकाली गई.19 अप्रैल सुबह 10.30 बजे अस्पताल परिसर में प्रदर्शन शुरू हुआ. बच्ची की गंभीर हालत को देखते हुए शाम 5.40 बजे उसे एम्स ट्रांसफर किया गया.
गुडि़या के साथ हुई इस दर्दनाक घटना को दबाने के लिए पुलिस ने कथित तौर पर बतौर रिश्वत 2 हजार रुपए गुडि़या के परिवार को देने की पेशकश की ताकि बात वहीं की वहीं दब जाए. दूसरी ओर पुलिस अधिकारी एसीपी बी एस अहलावत ने विरोध कर रही एक लड़की को सार्वजनिक रूप से थप्पड़ जड़ने में भी हिचक नहीं दिखाई. जब मीडिया में यह बात आ गई तो एसीपी अहलावत को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया. हालांकि दबाव बढ़ते ही पुलिस ने इस कुकृत्य के मुख्य आरोपी मनोज साह और प्रदीप को बिहार से गिरफ्तार कर लिया.
सवाल उठता है कि एम्स को छावनी बनाने वाली दिल्ली पुलिस आखिर उस वक्त कहां गायब हो जाती है जब ऐसी घटनाएं होती हैं? पुलिस जितनी मुस्तैदी वारदात के बाद बेकाबू भीड़ को संभालने में दिखाती है उस की आधी मुस्तैदी ही आम दिनों में अपनी ड्यूटी में दिखाए तो ऐसे हादसे ही न हों.
लेकिन सवाल यह भी है कि क्या सारा दोष पुलिस का है? पुलिस के लिए यह संभव नहीं है कि हर जगह वह मौजूद रहे. इसलिए स्वयं को सचेत रहने की जरूरत है. समाज को इस के लिए सोचना होगा. केवल नारेबाजी या सड़कों पर तोड़फोड़ करने से इस तरह की वारदातों पर लगाम नहीं लगाई जा सकती. यही समाज कल को गुडि़या पर लांछन लगाएगा.
भविष्य में सामान्य जिंदगी जीना उस के लिए कतई आसान नहीं होगा. कई कठिन सर्जरी से गुजर चुकी गुडि़या को शारीरिक तौर पर कई मुश्किलों का सामना तो करना ही पड़ेगा साथ ही उसे मानसिक तौर पर भी कई मुश्किलें परेशान करेंगी. जब वह बड़ी होगी तो समाज से तिरस्कार और उलाहने भी उसे सामान्य जिंदगी से दूर कर सकते हैं. इस बात का अंदाजा शायद गुडि़या के पिता को भी है. इसीलिए वे कह रहे हैं कि उन की बेटी के ठीक हो जाने के बाद क्या समाज सामान्य व्यवहार करेगा?
ऐसा नहीं है कि गुडि़या के साथ हुई हैवानियत अब थम गई है. जिस दिन गुडि़या को एम्स में लाया गया उसी दिन यानी 19 अप्रैल को मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में 8 साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म हुआ. कई दिनों तक वह मौत से जूझती रही पर आखिरकार उस ने दम तोड़ दिया. फिर 24 अप्रैल को मसूरी की कृष्णा कालोनी में एक अधेड़ व्यक्ति ने 8 साल की बच्ची से रेप की कोशिश की. इस के बाद पलवल, हथीन के गांव गुराकसर में 3 युवकों ने 15 वर्षीय किशोरी को अगवा कर गैंगरेप किया और गुड़गांव में भी पुलिस ने सौतेले बाप को उस की 2 बेटियों से रेप के आरोप में गिरफ्तार किया है.
पूर्व पुलिस अधिकारी किरण बेदी कहती हैं कि पुलिस सिस्टम को, समाज को, पुलिस के प्लान को दोबारा सजीव करने की जरूरत है. सिटिजन वार्डन, सिविल डिफैंस और सिविल पैट्रोलिंग को वापस लाना होगा. पुलिस समाज में ह्वील्स पर हो रहे अपराधों को रैंडम्ली चैक करे. हो सकता है कि यह उपाय कारगर हो पर पूरी तरह से इस सिस्टम को लागू करने में कितनी सफलता मिलेगी, इस की गारंटी किसी के भी पास नहीं है.
सब जानते हैं कि कानून व्यवस्था के नाम पर सरकार सिर्फ दिखावा करती है. सांप के गुजरने के बाद लाठी पीटी जाती है. लेकिन व्यवस्था को बदलने के लिए आंदोलन का गुस्सा तभी उबाल लेता है जब इस तरह की कोई ताजा वारदात होती है. जैसेजैसे मामला मीडिया की सुर्खियों और नेताओं की बयानबाजियों से ठंडा पड़ने लगता है वैसेवैसे ही हमारे गुस्से का उबाल भी ठंडा पड़ने लगता है. यह कारगर उपाय नहीं है.
दरअसल, रोष, आक्रोश, गुस्सा, नाराजगी सब अपनी जगह है और यह दिखना भी चाहिए लेकिन सर्वविदित है कि बलात्कारी जनपथ, पुलिस हैडक्वार्टर या फिर जंतरमंतर पर नहीं रहते. ये तो हमारे पड़ोस और गलीमहल्ले में हैं. अगर वहां इन्हें पहचान सकें तो बात बने. शुरुआत खुद से कीजिए. अपने बिजी शैड्यूल से इतर कम से कम अपने इलाके की जानकारी तो रखिए. अपने घर के दरवाजे या खिड़कियां बंद करने से कुछ नहीं होगा. बेहतर है कोई स्थायी समाधान निकाला जाए. वरना कौन सा आयोग, कौन सा कमीशन, कौन सी रिपोर्ट, कौन सा कानून और कौन सी सजा इन पर लगाम लगा सकी है?
ये घिनौनी वारदातें इस बात की तसदीक करती हैं कि मासूमों के साथ दरिंदगी यों ही होती रहेगी. हजारों में इक्कादुक्का मामले जो मीडिया के चलते देश भर के सामने उजागर हो जाते हैं, उन के आरोपियों को सजा देने भर से इस तरह के अपराध थम जाएंगे, लगता तो नहीं है. फिर क्या हो? इस मसले पर सब के अपनेअपने विचार हैं. कोई सरकार को कुसूरवार मानता है, कोई पुलिस सिस्टम और अशिक्षा को. लेकिन खुद को कोई जवाबदेह नहीं मानता.
ऐसे हादसों के बाद जनाक्रोश सड़कों पर दिखाई तो देता है पर उसे ठंडा पड़ते देर नहीं लगती, जैसे कि दामिनी व गुडि़या मामलों में देखा गया.