‘‘जब तक पापा पढ़ाएंगे तब तक पढ़ेंगे. हम तो पढ़ना चाहते हैं. पढ़ने में मन भी बहुत लगता है. रोज स्कूल आते हैं. पढ़लिख कर बड़ा आदमी बनना है.’’ यह कहते हुए 10 साल की सोनम की आंखें चमक उठती हैं. 5वीं क्लास में पढ़ने वाली उस मासूम की आंखों में कुछ कर गुजरने का सपना साफ दिखाई देता है. उस के पिता भरोसा राम बढ़ई यानी कारपेंटर का काम कर के अपने परिवार का पेट पालते हैं. सोनम कहती है, ‘‘पिताजी दिनरात मेहनत कर के उसे पढ़ा रहे हैं. कभीकभी पैसे की कमी होने पर कौपी, कलम, पैंसिल खरीदने में दिक्कत होती है, लेकिन पापा किसी भी तरह से इंतजाम कर देते हैं.’’

‘‘हम बड़े हो कर अच्छे आदमी बनना चाहते हैं. अच्छा घर हो और अच्छा खाने को मिले. मास्टर साहब कहते हैं कि बड़ा आदमी बनने के लिए पढ़नालिखना जरूरी है.’’ चौथी क्लास में पढ़ने वाली निभा कुमारी मुसकराते हुए एक झटके में अपनी जिंदगी की सीख और प्लानिंग बता देती है. वह कहती है कि उस के पिता विनोद प्रसाद आटोरिकशा चलाते हैं और 6 लोगों के परिवार का पेट पालते हैं. निभा बताती है, ‘‘मेरी कई सहेलियों ने पैसे की कमी या कमाई करने के लिए पढ़ाई छोड़ दी है, लेकिन मैं कभी स्कूल नहीं छोड़ूंगी, ऊपर के क्लास तक पढ़ाई करूंगी. मैं अपने पिता से कहती रहती हूं कि मैं पढ़ाई छोड़ कर दूसरा काम नहीं करूंगी.’’

फिसड्डी सरकारी योजनाएं

पटना शहर के कंकड़बाग आटो स्टैंड के पास राजकीय पब्लिक प्राथमिक विद्यालय है. इस की अपनी इमारत नहीं है. रैंटल फ्लैट नंबर-310 के 3 कमरों में यह स्कूल चलता है. इस स्कूल में 175 बच्चे हैं. पढ़ाई सुबह 7 बजे से ले कर दोपहर साढ़े 11 बजे तक चलती है. इस के बाद उसी फ्लैट में 12 बजे दिन से खुल जाता है राजकीय कन्या मध्य विद्यालय. इस स्कूल की कक्षाएं साढ़े 4 बजे शाम तक चलती हैं. स्कूल में 240 लड़कियां पढ़ती हैं. बिहार विधानसभा भवन से केवल 6 किलोमीटर की दूरी पर चल रहे इन दोनों स्कूलों तक सरकारी योजनाओं और तालीम की तरक्की को ले कर की जाने वाली बयानबाजी व दावों का रत्तीभर हिस्सा भी नहीं पहुंच सका है. 3 छोटेछोटे कमरों में 140-150 बच्चे कबाड़ की तरह ठूंस कर बैठाए जाते हैं. जगह की कमी की वजह से आधे से ज्यादा बच्चे तो मकान के बाहर धूप में दरी या चादर बिछा कर क से कमल, ल से लालटेन, त से तीर, झ से झोपड़ी, ह से हाथ की रट लगाते हैं. लेकिन इन मासूमों की सिसकियों, गरमी के दिनों में चिलचिलाती धूप से शरीर में भरी घमोरियों को सुननेदेखने के लिए तरक्की का दावा करने वाले कभी नहीं आते हैं. न तो ‘कमल’ निशान वाली भाजपा, न ‘लालटेन’ वाली राजद, न ‘तीर’ वाली जदयू, न ‘झोपड़ी’ वाली लोजपा और न ही ‘हाथ’ छाप वाली कांग्रेस के किसी नेता की नजर इस स्कूल की बदहाली पर पड़ी है.

बेपरवाह प्रशासन

5वीं क्लास में पढ़ने वाली प्रमिला कुमारी से जब पूछा गया कि स्कूल में क्या दिक्कत होती है तो उस ने तुरंत कहा कि बाथरूम जाने में दिक्कत होती है. कहने को स्कूल में छोटा सा बाथरूम है लेकिन वह गंदगी से भरा है और उस के बाहर गंदा पानी जमा रहता है. बाथरूम की परेशानी बता रही प्रमिला ने केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा चलाई जा रही ‘घरघर शौचालय’ की योजना की धज्जियां उड़ा दीं. जिस स्कूल में 400 से ज्यादा लड़केलड़कियां पढ़ाई करने आते हैं वहां तरीके से एक शौचालय तक नहीं बना हुआ है. ऐसे में बच्चे जाएं तो कहां जाएं? इस सवाल के जवाब में स्कूल की प्रिंसिपल बेबसी से कहती हैं कि महकमे के अफसरों को कई दफे चिट्ठी लिखी गई है, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हो सका है.

राजकीयकृत पब्लिक प्राथमिक स्कूल के 175 बच्चों में से 17 ही जनरल कैटेगरी के हैं, बाकी सभी बच्चे पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों के हैं. सोशल वर्कर उमेश कुमार कहते हैं कि सरकारें दलितों और महादलितों के नाम पर केवल राजनीति की रोटियां सेंकती रही हैं. इस स्कूल की हालत देख कर साफ हो जाता है कि राजनीतिबाजों को दलितों और महादलितों की असली तरक्की से कोई लेनादेना नहीं है. पटना शहर के बीचोंबीच स्थित इस सरकारी स्कूल की खस्ता हालत को देख कर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि दूरदराज के इलाकों के स्कूलों की हालत कैसी होगी? दलितों और पिछड़ों की तरक्की व उन के बच्चों को तालीम दिलाने की बात कह कर अपनी पीठ थपथपाने वाली सरकार और उस के झंडाबरदारों को यह समझ में नहीं आता कि स्कूल पढ़ाई करने की जगह है न कि मुफ्त में खाना, कपड़ा, साइकिल और बाकी खैरात बांटने की. राजकीयकृत पब्लिक प्राथमिक स्कूल की 11 साल की लड़की मनीषा से जब पूछा गया कि वह स्कूल क्यों आती है तो उस ने झट से कहा कि वह पढ़लिख कर बड़ी अफसर बनने के लिए स्कूल आती है. उस से अगला सवाल पूछा गया कि क्या स्कूल में खाना, कपड़ा, साइकिल वगैरह मिलने पर मजा नहीं आता? वह तपाक से कहती है, ‘‘स्कूल में बच्चा पढ़ाई करने आता है, न कि खाना खाने. पढ़ाई का इंतजाम ठीक से होना चाहिए. हम लोगों को स्कूल में ठीक से बैठने की जगह भी नहीं मिलती है, जिस से पढ़ने में काफी दिक्कत होती है.’’

11 साल की बच्ची को यह समझ है कि स्कूल पढ़ाई की जगह है, लेकिन सरकार के मंत्रियों और अफसरों को यह बात समझ में नहीं आती है. सरकार की सोच है कि मुफ्त में दोपहर का खाना, स्कूल ड्रैस और साइकिल बांटने से बच्चों में स्कूल आने की लालसा बढ़ेगी, लेकिन 5वीं क्लास में पढ़ने वाली मनीषा की सोच है कि स्कूल में बढि़या से पढ़ाई होगी तभी बच्चे स्कूल पहुंचेंगे. वह साफतौर पर कहती है, ‘‘साइकिल, ड्रैस, दोपहर का खाना बांटना बंद कर दें. इस से यह होगा कि वही बच्चे स्कूल आएंगे जिन्हें पढ़ने में रुचि होगी.’’ छोटी सी बच्ची की इस सोच पर क्या सरकार और पढ़ाई की तरक्की का दावा करने वाले ठेकेदारों को गौर फरमाने की जरूरत नहीं होगी? ड्रौपआउट यानी बीच में ही स्कूल की पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों के आंकड़े के बारे में स्कूल की प्रिंसिपल और टीचर चुप्पी साध लेते हैं. नाम नहीं छापने का भरोसा दिलाने पर एक टीचर कहते हैं कि 60 फीसदी बच्चे 5वीं और छठी क्लास के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं. इस के पीछे की वजह बताते हुए वे कहते हैं कि परिवार की गरीबी की वजह से ज्यादातर मांबाप कहते हैं कि उन के बच्चे पढ़ाई छोड़ कर काम में लग जाएं. इस से परिवार की आमदनी में कुछ तो इजाफा हो सकेगा.

दूसरे टीचर बताते हैं कि एक दिन उन्होंने सुबह की सैर के दौरान देखा कि कंकड़बाग पंचमंदिर के पास की चाय की दुकान में उन के स्कूल का एक बच्चा काम कर रहा है. वह पिछले 1 महीने से स्कूल नहीं आ रहा था. जब उस बच्चे से स्कूल नहीं आने के बारे में पूछा तो उस का सपाट सा जवाब था कि उस के पिता ने कहा है कि स्कूल छोड़ो और कुछ कामकाज करो, नहीं तो जीना मुश्किल हो जाएगा.

शिक्षा की बदतर हालत

स्कूल में एक प्रिंसिपल समेत 12 टीचर हैं. इन सब के वेतन पर करीब 2 लाख रुपया सरकार हर महीने खर्च करती है. इस के अलावा चपरासी, बिजली बिल और स्कूल के रखरखाव आदि पर हर महीने 20 हजार रुपए खर्च होते हैं. कुल मिला कर उस स्कूल पर सालाना 25 लाख रुपए से ज्यादा खर्च करने के बाद भी शिक्षा की हालत बद से बदतर है. इतना खर्च करने के बाद भी 60 फीसदी बच्चे हर साल स्कूल छोड़ कर चले जाते हैं. दोपहर का खाना, स्कूल ड्रैस, साइकिल बांटने के बाद भी बच्चों का रुझान स्कूल जाने और पढ़ाई करने में कतई नहीं है. स्कूल के बरामदे की दीवार पर बड़े से बोर्ड पर दोपहर को मिलने वाले खाने की लिस्ट लगी हुई है. सोमवार और गुरुवार को दाल, चावल और सब्जी, मंगलवार को चावल और सब्जी, बुध और शनिवार को खिचड़ी और चोखा एवं शुक्रवार को पुलाव, छोला और सलाद बच्चों को खिलाए जाने का इश्तिहार लगा हुआ है. एक टीचर से पूछा गया कि बच्चों को दोपहर का खाना मिल रहा है, तो बताया गया कि पिछले 1 साल से खाना देना बंद है. पिछले साल पटना के ही बहादुरपुर इलाके के सरकारी स्कूल में दोपहर के खाने में मरा हुआ चूहा मिलने के बाद हंगामा मचा था, उसी के बाद से जिले के स्कूलों में मिड डे मील बंद कर दिया गया है.

ऐसी ही हालत पटना के फुलवारीशरीफ प्रखंड के मलाही पकड़ी गांव के राजकीय प्राथमिक स्कूल की भी है. बांस से बने गेट को खोल कर स्कूल में घुसते ही बच्चों का शोरशराबा सुनाई देता है. स्कूल कैंपस में नए चेहरे को देखते ही टीचर चिल्लाने लगती है, ‘‘सभी ठीक से बैठो. हल्ला नहीं करो. चलो अपनीअपनी किताबें खोलो. अनिल, तुम बाहर क्या कर रहे हो?’’ ऐसा कह कर शायद वह यही जताना चाह रही थी कि स्कूल में वह अपना काम ठीक से कर रही है. टीचर के मन में रहता है कि स्कूल के कैंपस में घुसने वाला नया चेहरा कहीं स्कूलों की जांचपड़ताल करने वाले महकमे का अफसर तो नहीं है.

गैर सामाजिक तत्त्व

जब टीचर को इस संवाददाता के बारे में पता चला तो उस के तेवर ही बदल गए. पत्रकार का नाम सुनते ही वह अकड़ गईं और बोलने लगी कि प्रिंसिपल आज छुट्टी पर हैं. वे आएंगी तो ही कुछ बात हो सकेगी. जब इस संवाददाता ने कहा कि मुझे प्रिंसिपल से नहीं, बच्चों से मिलना है और स्कूल की हालत को देखना है तो वह खामोश हो गई. स्कूल में 1 से 5वीं क्लास तक की पढ़ाई होती है और कुल 70 बच्चे हैं. रोज करीब 30-35 बच्चे स्कूल आते हैं. स्कूल में घुसते ही सभी अपनीअपनी मरजी के काम में लगे हुए नजर आते हैं. कुछ क्लास में रट्टा लगा रहे थे तो कुछ बरामदे में बैठ कर ड्राइंग बनाने में मसरूफ थे. कुछ कैंपस में धमाचौकड़ी मचा रहे थे. तीसरी क्लास में पढ़ने वाली नेहा कहती है कि उस का पढ़ने में मन लगता है, लेकिन उस के बाबूजी उसे पढ़ने के लिए कौपीकलम नहीं देते हैं.

स्कूल के बाहर की दीवार पर मास्टरों ने लिख रखा है, ‘यहां पर लट्टू नचाना नहीं है. यहां पर जुआ खेलना नहीं है’. स्कूल के कुछ शरारती बच्चों ने दोनों ही हिदायतों में से ‘नहीं’ को मिटा दिया है. इस के बाद उस का मतलब ही नजर आता है, ‘यहां पर लट्टू … नचाना है. यहां पर जुआ खेलना … है. ‘नहीं’ शब्द पर हरे रंग से पेंट कर के मिटा दिया गया है. इस से साफ है कि स्कूल दबंग और असामाजिक लोगों का अड्डा बना हुआ है. वे लोग बच्चों को बहकाने में लगे रहते हैं. जब स्कूल प्रशासन ने इस बारे में नोटिस लगाया तो उस का भी मजाक उड़ाया गया. 120 घरों वाले मलाही पकड़ी गांव में ज्यादातर मल्लाह जाति के लोग रहते हैं और कुछ घर यादवों के हैं. गांव के रहने वाले सामाजिक कार्यकर्ता श्याम साहनी कहते हैं कि पिछले 45 सालों से गांव में स्कूल चल रहा है. लेकिन कभी भी स्कूल की हालत ठीक नहीं रही. पहले तो टीचर कभीकभार ही आते थे पर पिछले कुछ सालों से टीचर तो रोज आने लगे हैं, पर पढ़ाई के नाम पर हल्ला ही होता है.

पढ़ाई पर भारी साइकिल

बच्चों को पढ़ाई और स्कूल के प्रति ललक पैदा करने के लिए चलाई जा रही साइकिल और स्कूल ड्रैस योजनाओं में अकसर गड़बडि़यों का खुलासा होता रहा है. बिहार के प्राइमरी और मिडिल स्कूलों के बच्चों को साइकिल और पोशाक दी जाती है, जिस को लाखों बच्चे 2-2 और 4-4 दफे गलत तरीके से ले कर सरकार को चूना लगाते रहे हैं. लाखों बच्चों ने 3-4 स्कूलों में दाखिला ले कर साइकिल और पोशाक उठा ली. इतना ही नहीं, हजारों ऐसे बच्चे भी सामने आए हैं जो पढ़ तो रहे हैं प्राइवेट स्कूल में पर साइकिल और पोशाक पाने की नीयत से उन्होंने सरकारी स्कूलों में भी दाखिला ले रखा है. साल 2013 में सेवा यात्रा के दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की निगाह में इस तरह की गड़बड़ी को लाया गया था और उन्होंने सभी सरकारी स्कूलों में बच्चों के दाखिले व उपस्थिति के आंकड़ों की जांच का हुक्म दिया था. जांच में हजारों स्कूलों में बच्चों के दाखिले और उपस्थिति में भारी अंतर पाया गया था. साइकिल और पोशाक पाने के खेल में शिक्षा महकमे के अफसर, स्कूल प्रिंसिपल, मास्टरों और बच्चों के अभिभावकों की मिलीभगत से घपले का बड़ा खेल खेला गया, जिस ने सरकार को करोड़ों रुपए की चपत लगाई.

सूबे के तकरीबन हर जिले में एक ही बच्चे के एक से ज्यादा स्कूलों में गलत तरीके से दाखिला लेने के फर्जीवाड़े की परत दर परत खुलने से सरकार की काफी किरकिरी हो चुकी है. शिक्षा महकमे के सूत्र बताते हैं कि करीब 3 लाख से ज्यादा बच्चों का दाखिला 2 स्कूलों में कर लिया गया है. वहीं डेढ़दो लाख बच्चों ने 3-4 स्कूलों में दाखिला ले लिया है. 2-2 और 3-3 बार साइकिल व पोशाक पाने के लालच में पढ़ाई की ओट में यह खेल खेला गया, जो स्कूलों के प्रिंसिपल और शिक्षा महकमे के कई अफसरों की मिलीभगत के बगैर मुमकिन ही नहीं था. साइकिल के लिए हर बच्चे को 2,500 रुपए दिए जाते हैं. सूबे के 71,031 प्राइमरी और मिडिल स्कूलों में 1 करोड़ 95 लाख बच्चे हैं. 

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...