अंधविश्वासियों और पोंगापंथ में यकीन करने वाले गंगा नदी समेत कई नदियों में सिक्के फेंक कर यह समझते हैं कि उन्होंने झटके में काफी पुण्य कमा लिया या ईश्वर को खुश कर दिया. नदी के उपर बने पुलों से गुजरने वाले ज्यादातर लोग नदियों में चंद सिक्के फेंक यह समझते हैं कि उन्होंने मां के समान नदी में चढ़ावा चढ़ा कर उसे खुश कर दिया. उन सिक्कों के फेंकने के बाद उनकी सारी बाधाएं दूर हो जाएंगी, मन की हर मुराद पूरी हो जाएगी, ईश्वर उसके घर धन-दौलत की बरसात कर देगा आदि आदि. याने जितने दिमाग उतने ही तरह के भरम और बेबकूफी की मिसाल. पोंगापंथियों की इस अंधी सोच की वजह से जहां हजारों-लाखों सिक्के बर्बाद हो रहे हैं जिसकी वजह से बाजार में छोटे कारोबारी और आम आदमी सिक्कों की भारी कमी से जूझ रहे हैं.

समाज सेवी आलोक कुमार कहते हैं कि अंधविश्वास की वजह से हजारो-लाखों सिक्के रोज ही नदियों में फेंके जाते हैं. किसी भी पुल से गुजरते हर छोटी-बड़ी गाड़ियों से दनादन सिक्के नदियों में फेंके जाते हैं. पोंगापंथ के जाल में फंसे लोग समझते हैं कि नदियों में सिक्का डालने से उन्हें पुण्य मिलेगा या उनका सफर महफूज होगा. लोग यह नहीं समझते हैं कि इस तरह से पुण्य कमाने के चक्कर में रोज ही हजारों सिक्के नदियों में फेंक दिए जाते हैं, जिससे बाजार में सिक्कों की भारी किल्लत मची रहती है. आज तकनीक और विज्ञान के जमाने में भी इस तरह की मूर्खता पर रोना ही नहीं शर्म भी आती है.

पुल को पार करते समय हर बस, ट्रक, कार और रेलगाड़ियों से कई सिक्के नदी में लोग फेंकते हैं. पोंगापंथ की वजह से बाजार में सिक्कों की भारी कमी हो जाती है. बैंक औफ इंडिया में सीनियर मैनेजर सुरेश प्रसाद कहते हैं कि बाजार में हमेशा ही सिक्कों की कमी रहती है, जबकि रिजर्व बैंक बड़े पैमाने पर सिक्के बनाता रहता है. नदियों में सिक्का फेंकने, सड़कों के किनारे बने मजारों पर फेंकने, मंदिरों की दान-पेटी में डालने से हजारो लाखों सिक्के डम्प हो कर चलन से बाहर हो जाते हैं. इसके अलावा गुल्लकों में 5 और 10 के सिक्कों का जमा करने से भी लाखों सिक्के बाजार से गायब हो जाते हैं. इससे व्यापारियों के साथ-साथ आम लोगों को भी सिक्कों की कमी की वजह से परेशानियों से जूझना पड़ता है.

नदियों में जमा सिक्कों के खजाने को देखना है तो किसी भी नदी के किसी घाट पर 2-3 घंटे खड़ा हो जाइए. वहां पर दर्जनों बच्चे नदियों के अंदर छलांग लगाते रहते हैं और सिक्के ढूंढते रहते हैं. पटना के कलेक्टेरियट घाट समेत कई घाटों पर सुबह से लेकर शाम तक नंग-धडंग बच्चों का हूजूम गंगा नदी में छलांग लगाता दिख जाता है. हर बच्चे के हाथ में एक चुंबक होता है. नदी में कूदने के बाद वे उसके तल तक पहुंच जाते हैं और चुंबक को इधर-उधर घुमाते हैं. कई सिक्के चुबंक से चिपक जाते हैं. बच्चे चुबंक से छुड़ा कर सिक्कों को अपने मुंह में डाल लेते हैं और चुबंक को सतह पर इधर-उधर घुमाने लगते हैं. इस बीच कुछ और सिक्के उससे चिपक गए तो ठीक वरना सांस लेने के लिए वे पानी के सतह पर आ जाते हैं. अपने-अपने मुंह से सिक्के उगल कर उसे गिनते हैं और उसे अपने साथी को थमा देते हैं. कुछ देर तक फेफड़ों को ताजा हवा देने के लिए लंबी-लंबी सांसे खींचते है और सिक्कों की तलाश में दुबारा नदी के भीतर डुबकी लगा देते हैं.

स्कूल जाने के लिए घर से निकले 12 साल के विमल को सिक्कों की खनक गंगा के किनारे खींच लाती है. उससे पूछा गया कि वह स्कूल क्यों नहीं गया तो वह कहता है- ‘पढ़-लिख कर का करेंगे  गंगा नदी में डुबकी लगाने से कुछ पैसा मिल जाता है, जिससे उसके घर में रोटी बनती है. मेरा बाप नहीं है. अम्मा दाई का काम करती है, पर कुछ दिनों से बीमार है. 8-10 दफे नदी की गहराई में गोता लगाने पर 50-60 रूपए मिल जाते हैं.’

बाजार में सिक्कों की कमी की वजह से ‘चौकलेट सिक्का’ धडल्ले से चलने लगा है. इस सिक्के से करीब-करीब हर किसी का पाला पड़ चुका होगा. जब भी बाजार में कुछ छोटी-मोटी चीजें खरीदने जाते हैं तो दुकानदार खुल्ले पैसे की मांग करता है. खुल्ले पैसे नहीं रहने पर या तो दुकानदार नाक भौं सिकोड़ता है, या फिर खरीददार को सामान देने से मना कर देता है. बाजार में सिक्कों की भारी कमी को दूर करने के लिए दुकानदारों ने ‘चौकलेट सिक्का’ का चलन शुरू कर दिया है. अगर आप 47 रूपए की कोई चीज खरीदते हैं और दुकानदार को 50 का नोट थमाते हैं तो वह खुल्ले पैसे का रोना रोते हुए एक-एक रूपए का 3 चौकलेट थमा देता है. 4-5 रूपए लौटाने के बजाए दुकानदार खरीदार को उतने ही कीमत का चौकलेट थमा देता है. बेचारे ग्राहक के पास उसे चुपचाप ले लेने के सिवा और कोई चारा ही नहीं रहता है.

पटना के एक्जीविशन रोड में गिफ्ट के सामानों का कारोबार करने वाला सोमू मुखर्जी कहता है कि रोज सुबह से रात तक हम जैसे दुकानदार खुल्ले सिक्कों की कमी से जूझते रहते हैं. हरेक दिन दुकान आने के बाद सबसे पहले 5 सौ या हजार रूपए के सिक्के बैंकों से मंगवाते हैं, पर वह 2-4 घंटे में ही खत्म हो जाता है. उसके बाद तो ‘चौकलेट सिक्का’ ही उन जैसे कई दुकानदारों को फजीहत से बचाता है. कुछ लोग सिक्कों के बदले चौकलेट लेने से मना कर देते हैं, जिससे दुकानदारों और खरीदार के बीज बेवजह की तू-तू मैं-मैं भी होती रहती है.

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