‘‘सैल्फी के इस दौर में साल 2013 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा व ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन की साउथ अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला की मृत्यु के बाद एक स्मारक के उद्घाटन कार्यक्रम के दौरान यह सैल्फी ली गई थी. दिलचस्प बात यह है कि मौके की नजाकत से बेखबर ओबामा और कैमरन के खिलखिलाते चेहरों के बीच डेनमार्क की पीएम हैली श्मिट भी बिंदास अंदाज में सैल्फी में नजर आ रही हैं. लेकिन बराक की सैल्फी परिधि से उन की पत्नी मिशेल ओबामा बाहर हैं.’’ यह 18 दिसंबर, 2014 की बात है, भोपाल से 60 किलोमीटर दूर स्थित कसबे सुल्तानपुर के नजदीक विनेका के एक पैट्रोल पंप के टौयलेट में 18 वर्षीया लड़की गई तो उसे शक हुआ कि टौयलेट में कोई छिपा हुआ कैमरा है. युवती मोबाइल और कंप्यूटर की जानकार थी. उस के मोबाइल से नैटवर्क गायब हुआ तो उसे शक हुआ. उस ने बारीकी से टौयलेट का मुआयना किया तो कैमरा दिख गया जो टौयलेट की गतिविधियां और दृश्य कैद कर रहा था. इस जागरूक युवती ने हल्ला मचाया तो पता चला कि यह छिपा हुआ कैमरा पैट्रोल पंप मैनेजर के कंप्यूटर से जुड़ा हुआ था. उस की शिकायत पर कार्यवाही हुई तो पता चला कि ऐसी एक नहीं, कई लड़कियों और महिलाओं के वीडियो पैट्रोल पंप मालिक के बेटे अनवर ने बना रखे हैं. अनवर को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. मामला अब अदालत में है. अनवर नाम के युवक की यौन कुंठा को उजागर करता व महिलाओं की प्राइवेसी को भंग करता यह गंभीर मामला था. अदालत में अनवर दोषी पाया गया तो उसे सजा होना तय है. इस घटना के लगभग 3 महीने बाद भोपाल मेंही कई ऐसे मामले उजागर हुए जिन में सोशल साइट्स यूजर्स ने खुद अपनी प्राइवेसी उजागर की. इन का क्या होगा और ऐसा क्यों है, इस पर आएदिन बहस होती रहती है लेकिन कोई निष्कर्ष नहीं निकलता सिवा इस के कि लोग, खासतौर से युवा, सोशल साइट्स के, दिमागी बीमारी की हद तक, आदी होते जा रहे हैं. वे इस बाबत कुछ सुननेसमझने को तैयार नहीं.
खुद उजागर करते प्राइवेसी
वे लोग अनवर से कम दोषी नहीं कहे जा सकते जो अपनी प्राइवेसी सोशल साइट्स पर शेयर कर रहे हैं. भोपाल के ही कुछ चर्चित मामलों पर नजर डालें तो लगता है कि यह जनून इसी तरह कायम रहा तो वह दिन दूर नहीं जब किसी को शौचालयों या दूसरी किसी जगह कैमरे छिपा कर अपनी कुंठा पूरी करने की जरूरत नहीं रह जाएगी. युवा खुद कुंठित हो कर ऐसी बातें, फोटो और अंतरंगता साइट्स व एप्स के जरिए साझा करेंगे. एक युवक ने अपनी पत्नी के प्रसव के फोटो शेयर किए और एकएक मिनट की जानकारी भी अपलोड की. ऐसा वह लगातार करता रहा. चूंकि औपरेशन थिएटर के अंदर के फोटो नहीं खींच सकता था, इसलिए मामला बाहर तक ही सीमित रहा लेकिन जनून के चलते जानेअनजाने में वह ऐसी बेवकूफी और बेहूदगी कर बैठा जिस का खामियाजा पत्नी और घर वालों को शर्मिदगी की शक्ल में भुगतना पड़ा. इसी तरह एक नए जोड़े ने अपनी आलिंगनबद्ध और निजी पलों की तसवीरें अपलोड कर कौन सा समझदारी या बुद्धिमानी का काम किया, बात समझ से परे अब नहीं रही कि यह मानसिक बीमारी तेजी से युवाओं को अपनी गिरफ्त में ले रही है. इस की कई वजहें हैं. इन में से खास है फोटो खींचने की सहूलियत, अब हर हाथ में मोबाइल में जड़ा कैमरा है जिस का उपयोग कम दुरुपयोग ज्यादा किया जा रहा है.
बीमारी है फोटो खींचना
कहीं भी देख लें, लोग खासतौर से युवा बातबात में फोटो खींचते नजर आ जाएंगे. समारोहों में तो यह आम बात है कि मंच या स्टेज के पास खड़े कई युवा मोबाइल हाथ में लिए इस तरह फोटो खींचते हैं मानो एवरेस्ट चढ़ने का कठिन काम सहूलियत से कर रहे हों. लैपटौप, स्मार्टफोन अब हर किसी के पास हैं. इन के यूजर्स वाट्सऐप और फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर फोटो अपलोड करने के लिए जिस तेजी से आदी हो रहे हैं उस से लगता है एक नई दिमागी बीमारी समाज में पैर पसार रही है. इस बीमारी का नामकरण अभी मनोचिकित्सक भी नहीं कर पा रहे हैं, सिवा इस के कि यह एक खतरनाक एडिक्शन है. सफर में हैं तो फोटो, बाजार में तो फोटो, अकेले हैं तो फोटो और मित्र मंडली के साथ हैं तो भी फोटो खींचे जा रहे हैं. इन फोटो की कोई उपयोगिता नहीं है सिवा इस के कि इन्हें उन लोगों को सोशल साइट्स के जरिए दिखाया जाए जो कभी मिले ही नहीं. यह बीमारी द्विपक्षीय है जिस में लाइक और कमैंट्स का बड़ा महत्त्व है. जिसे जितने ज्यादा लाइक्स और कमैंट्स मिलते हैं उस की छाती उतनी ही चौड़ी हो जाती है, मानो पद्मश्री, ज्ञानपीठ या नोबेल जीत लिया हो. एक बेवकूफी और अनुपयोगी काम को उपलब्धि मानना वाकई युवा पीढ़ी की मानसिक विकलांगता ही है.
सैल्फी ने तो इस बीमारी में चारचांद लगा दिए हैं. अब हर कोई हर कहीं फोटो खींच रहा है जिसे दिखाने और कमैंट्स व लाइक्स की तादाद बढ़ाने के लिए सार्वजनिक किया जाता है. यहां से प्राइवेसी भंग होने की शुरुआत हो जाती है. दूसरे शब्दों में कहें तो खुद अपनी प्राइवेसी उधेड़ी जाती है, जिस में गलतसही, व्यावहारिकअव्यावहारिक या जरूरीगैरजरूरी युवा नहीं देख पाते. वे केवल बुद्धिमानी और लोकप्रियता का पैमाना इसे मान बैठे हैं. भोपाल के एक मनोचिकित्सक विनय मिश्रा की मानें तो इस तरह के एडिक्ट यूजर्स अपने लिए कोई सीमाएं तय नहीं कर पाते. वे एक काल्पनिक दुनिया में जीते हैं जिस से डिप्रैशन आता है. ऐसे मरीजों की तादाद लगातार बढ़ रही है.
इस पूरे कुएं में भांग पड़ी है, एक बड़ा तबका फोटो खींचने की बीमारी की गिरफ्त में है, इसलिए लग नहीं रहा कि इस का कोई इलाज है. एक दफा मादक पदार्थों के सेवन के आदी इलाज और अपनी इच्छाशक्ति के चलते एडिक्शन से छुटकारा पा जाएं लेकिन इस क्लिकिंग एडिक्शन के मरीजों पर तो कोई दवा या थैरेपी भी असर नहीं करने वाली.
नुकसान ही नुकसान
दूसरों का ध्यान अपनी तरफ खींचना सहज मानव स्वभाव है. बुद्धिमान लोग अपनी बातों से किसी को भी आकर्षित कर लेते हैं पर सोशल मीडिया पर बात उलटी है. यहां बेवकूफों और बेहूदगियों पर ज्यादा ध्यान जाता है. इसलिए युवा हदें पार करते खुद अपनी प्राइवेसी भंग कर रहे हैं. मकसद, अपने जैसे दूसरे बेवकूफों को खुद की श्रेष्ठता बताना रहता है. फेसबुक पर उत्तेजक और आलिंगनबद्ध जोड़ों की फोटो की भरमार है. इन पर कमैंट्स भी खूब होते हैं और लाइक्स भी मिलते हैं. लड़कियां अपने उत्तेजक फोटो अपलोड कर रही हैं जिस से ज्यादा से ज्यादा यूजर्स तवज्जुह दें और ऐसा होता भी है. जिन्हें संस्कारों या बंदिशों के चलते ऐसा करने की इजाजत नहीं, वे देवीदेवताओं के जरिए यह काम कर रहे हैं. जय मातादी, साईंबाबा, कृष्ण और शंकर की फोटो की भरमार सोशल साइट्स पर है जो युवाओं को अंधविश्वासी और परजीवी बना रही हैं. भगवान भी कहीं होता तो इन साइट्स पर अपनी तरहतरह की फोटो देख घबरा जाता. दरअसल, अब फोटो खींचना आसान और सहूलियत वाला काम हो चला है. पहले कैमरा मध्यवर्गीय लोगों को भी दुर्लभ था उस पर भी दिक्कत यह थी कि रील धुलवाने के लिए स्टूडियो भागना पड़ता था. टैक्नोलौजी ने यह परेशानी तो दूर कर दी लेकिन एवज में हजार परेशानियां खड़ी कर दीं.
वक्त की बरबादी तो इस से होती ही है, साथ ही गैरजरूरी और फालतू काम करने की आदत भी युवाओं में बढ़ रही है. हजारों की तादाद में एक युवा फोटो खींचता है, फिर कुछ दिन बाद मैमोरी कार्ड भर जाने पर उन्हें डिलीट कर देता है. यानी इन फोटो की अहमियत की तुलना घर की अलमारी में रखे एलबम से नहीं की जा सकती जिसे बड़े सहेज कर रखा जाता है और साल में एकदो बार देखने में जिस रोमांच का अनुभव होता है, स्मृतियां साकार हो जाती हैं वह नई पीढ़ी की बीमारी क्लिकिंग एडिक्शन में नहीं होती. फोटो खींचने की लत से युवाओं की रचनात्मकता और मौलिकता भी खत्म हो रही है. उन का दिमाग हमेशा फोटो खींचने के बारे में सोचता रहता है कि इन्हें कैसेकैसे खींचा जाए कि ज्यादा से ज्यादा लोग आकर्षित हों. इसीलिए वे ऐसेऐसे फोटो खींच डालते हैं जिन से कई दफा तरहतरह के फसाद भी हो जाते हैं. टीवी, कंप्यूटर, इंटरनैट और स्मार्ट फोन ने लोगों को जिस तेजी से दूर किया है उतना कभी कोई नहीं कर पाया. यूजर्स इन्हें संपर्कसूत्र समझते हैं. दरअसल, यह भ्रम है. एकदूसरे को जाननेसमझने के लिए सीधा परिचय व संवाद होना जरूरी है लेकिन सोशल साइट्स पर तो प्यार और शादियां तक होने लगी हैं. इस का बड़ा आधार फोटो हैं जो यह एहसास कराती हैं कि हम किसी काल्पनिक व्यक्ति से प्यार या बात नहीं कर रहे, जबकि फोटो कभी किसी की होती है और वास्तविक पर्सन कोई और होता है.
वक्त की बरबादी
यह कतई सुखद स्थिति नहीं है कि एक घर में 3-4 लोग हों और जब वक्त मिले तो बजाय आपस में बातें करने व दिनचर्या साझा करने के, अपने स्मार्ट फोन, लैपटौप या कंप्यूटर पर सोशल साइट्स खोल कर बैठ जाएं और उस पर फोटो डालने के साथ वक्त गुजारें बल्कि यह कहना बेहतर होगा कि वक्त बरबाद करें. 80-90 के दशक के युवा पढ़ने की लत के इस तरह के शिकार थे कि वे खानापीना भी भूल जाते थे. इस से फायदा यह था कि प्रतियोगी परीक्षाओं में वे आगे रहते थे और वे व्यावहारिक भी होते थे. उन के पास जानकारियां होती थीं. वे तार्किक भी होते थे. अब जब जानकारियों के साधन बढ़ गए हैं और सहज उपलब्ध हैं, तब 100 में से 5 युवा भी न बता पाएंगे कि देश का कृषि मंत्री कौन है. आज का युवा अमेरिका, क्यूबा के संबंधों जैसे विषयों पर बहस न करे यह हर्ज की बात नहीं, हर्ज की बात यह है कि वे बहस करने की स्थिति में नहीं रह गए हैं. इस तरह की अज्ञानताओं और बेचारगी की वजह सोशल साइट्स और उस से भी ज्यादा फोटो खींचने की लत है जिस के तहत यह मान लिया गया है कि कोई दूसरा करे तो बवाल मचाओ और खुद अपनी प्राइवेसी भंग करो तो बात हर्ज की नहीं. यानी दोष हमेशा दूसरों को देने की गलत प्रवृत्ति को भी बढ़ावा मिल रहा है.