साल 2014 में चीन की एक घटना ने पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित किया जिस में एक शिक्षिका ने प्रश्न हल न कर पाने पर 8 वर्षीय बच्चे को पहले सजा के तौर पर खड़ा रखा, फिर एक हजार शब्दों में उसे अपनी ही बुराई लिखने को कहा. बच्चे ने थोड़ी देर बाद कहा, वह नहीं लिख सकता. फिर दोबारा लिखा, ‘‘टीचर, प्लीज, मैं ऐसा नहीं कर सकता…’’ टीचर फिर भी न मानी तो बच्चे ने तीसरी मंजिल से नीचे कूद कर मौत को गले लगा लिया. रोंगटे खड़े कर देने वाली इस घटना की दुनियाभर के मनोवैज्ञानिकों ने भरपूर निंदा की तथा कहा कि उस बच्चे पर टीचर ने इतना दबाव बना दिया कि वह यह कदम उठा बैठा. वह पूरी तरह समझदार व सजग बच्चा था जिस ने अपना मन व असफलता का भाव टीचर के सामने उड़ेल कर रख दिया था.

आजकल लगभग प्रतिदिन शिक्षकों द्वारा उत्पीड़न की ऐसी घटनाएं समाचारपत्रों, चैनलों में देखीसुनी जाती हैं. कभी किसी टीचर ने बच्चियों और किशोरियों के शरीर से खिलवाड़ किया तो कभी बेवजह मारापीटा, धमकाया. कभी घायल कर दिया तो कभी जोर का थप्पड़ मारने से बच्चा बहरा हो गया आदि.

इतिहास भी कहता है

एकलव्य योग्यता की तूती बोलने वाले गुरु द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या सीखने गया परंतु वे कौरवों के वेतनभोगी शिक्षक थे. इसलिए वे उसे सिखाने की असमर्थता व्यक्त कर सकते थे परंतु उन्होंने ऐसा न करने के बजाय उस का अंगूठा ही कटवा लिया. गुरुदक्षिणा के नाम पर इस से बड़ी क्रूरता नहीं मिलती कि कुछ सिखाया भी नहीं और उस की योग्यता का आधार भी छीन लिया तिस पर भी वह अपनी योग्यता से अपनेआप योग्यतम धनुर्धर बन कर उन्हें दिखा देता है. परशुराम ब्राह्मणों को शस्त्रविद्या सिखाते थे. कर्ण भी उन के पास सीखने गए. एक दिन भयंकर जहरीले जीव ने कर्ण की जांघ पर काट लिया. कर्ण रोए, घबराए नहीं बल्कि सहते रहे. तब गुरु ने घावों की इस सहनशीलता से अनुमान लगाया कि यह ब्राह्मण नहीं क्षत्रिय है जिसे वंश और संस्कार में युद्ध व धर्मों की सहनशीलता मिली है. परशुराम ने कर्ण को श्राप (उस समय का भयंकर दंड) दिया कि कर्ण समय पर अपनी विद्या का उपयोग नहीं कर सकेगा.

इस तरह के कई उदाहरण मिलते हैं जो यह बताने को पर्याप्त हैं कि गुरु शिष्य को समझ नहीं पाए तथा उन के गुणों को महत्त्व नहीं दिया.

खर्चीले स्कूल स्तरीय नहीं

मांबाप खर्चीले निजी, पब्लिक या रैजिडैंशियल स्कूलों में बच्चों को भरती करवा कर सोचते हैं कि बच्चों का जीवन बन गया. उन के बच्चे अब मुकाम या जीवन में कुछ करने का मौका पा ही लेंगे. पर हमेशा ऐसा नहीं होता. बढ़ती भौतिकता के चलते स्कूल अधिकाधिक बच्चे भरने की जुगत में रहते हैं. इसलिए सिर्फ कोर्स तक सीमित रहते हैं. बच्चों के आंतरिक तथा भावनात्मक विकास की ओर ध्यान नहीं दे पाते. ऐसे में बच्चे से शैक्षिक संबंधी फीडबैक भी लेते रहना चाहिए. यह फीडबैक परस्पर अच्छे संबंध पर निर्भर करता है. बच्चा कभी कुछ बताए तो ध्यान से सुनें.

पक्षपात रहता है हावी

निन्नी 8वीं कक्षा में पढ़ती है. पिछले 6-7 महीनों से वह स्कूल जाने का चाव खो चुकी है. वह मांबाप से भी ज्यादा कुछ नहीं बताती. उस की सहेलियों से उस के घर वाले जान सके कि उसे क्लासटीचर की आदत अच्छी नहीं लगती. वह बड़े घर के बच्चों का ही ध्यान रखती है.’’

बड़प्पन व गरिमा का अभाव

पुनीता 7वीं कक्षा में पढ़ती है. वह कहती है, ‘‘पहली बार मुझे कक्षा में पीरियड हो गया. मेरी स्कर्ट पर दाग पड़ गया. टीचर ने कक्षा में ही तमाशा बना दिया.’’ 14 वर्षीय अमिषा कहती है, ‘‘हमारे जूलौजी के टीचर रोमियो की तरह क्लास लेते हैं. हम ने वाइस पिं्रसिपल से कहा तो वे कहते हैं, ‘दिस इज हिज स्टाइल.’ पीटीएम में हमारे पेरैंट्स ने मुद्दा जोर से उठाया तो थोड़ा फर्क पड़ा. 2 साल बाद यह टीचर ट्यूशन के दौरान छेड़छाड़ करने के कारण गिरफ्तार किए गए. यदि पहले इन बच्चों की बात पर अमल हो जाता तो टीचर समय रहते ठीक किए जा सकते थे.’’

सिर्फ खानापूर्ति

दिल्ली में वसंत विहार इलाके के एक नामी पब्लिक स्कूल की छात्रा शालू (बदला हुआ नाम) कहती है, ‘‘मुझे स्कूल जाना क्या जीवन जीना तक बेकार लगता है. मम्मी समझती नहीं, मुझे ही समझाती हैं. मुझे स्कूल वाले काउंसलर के पास भेजते हैं. वहीं स्कूल में 6 बार जाने पर भी वे मुझे डूजडोंट्स यानी क्या करो, क्या न करो बता कर रवाना कर देती हैं. मुझ से घर के बारे में पूछती रहती हैं. मैं ने उन्हें बताया कि क्लास की लड़कियों ने अपने बौयफ्रैंड्स से मुझ से बोलने को मना कर दिया है जबकि वे मेरे अच्छे दोस्त थे. अब वे लड़कियां जोश और गर्व से भरी रहती हैं. मैं लंच में अकेली खाना खाती हूं. क्लासटीचर से कहा तो उन्होंने कहा, हमारा काम आप को पढ़ाना है. दूसरी टीचर से कहा तो वह ‘इट्स योर पर्सनल प्रौब्लम’ कह कर टाल गईं. मौनिटर के कहने पर टीचर ने मुझे बिना बताए काउंसलर के पास भेज दिया. अब वह मुझे बाहर बड़े साइकैट्रिस्ट के पास रैफर कर रही हैं. घरबाहर कहीं मेरी सुनवाई नहीं है.’’

शालू की मां तान्या कहती हैं, ‘‘कुछ है तभी ऐसा हो रहा है वरना हर एक को क्यों नहीं भेजा गया.’’

शालू ने विद्रोही रुख अख्तियार कर के पिता से बात की. पिता ने, उसे समझा और वे काउंसलर के पास गए. तो अगली पीटीएम में पिं्रसिपल ने बच्चे को स्कूल छोड़ने की बात की. शालू के पिता परेशान हैं. शालू बहुत अच्छी पेंटिंग्स करती है, सारे पड़ोसी, रिश्तेदार उस के सरल व सौम्य व्यवहार के कायल हैं. वह झुग्गीझोपड़ी के बच्चों को फ्री पढ़ाती है. कई बच्चे उस की होशियारी के मुरीद हैं. शालू के पिता कहते हैं कि बड़े स्कूल पैसा उगाहते हैं. आप के बच्चे हैं तो आप संभालो, सिखाओ, जो करो.

स्कूल का काम

स्कूल में पढ़ाना मुख्य कार्य है परंतु उस पढ़ाई के माध्यम से संस्कारी युवा व श्रेष्ठ नागरिक तैयार करना भी स्कूलों का मुख्य दायित्व है. एनसीआरटी की प्रोफैसर पूनम अग्रवाल कहती हैं, ‘‘बच्चों को प्यार से पढ़ाना चाहिए. उन्हें डांटफटकार की जगह प्रोत्साहन व प्रेरणा चाहिए. प्रशंसा, प्यार और तवज्जुह उन्हें भीतर से सीखने की क्षमता देते हैं. उन में ललक, रोचकता, मैनर्स आदि जगाना टीचर को आना चाहिए.’’

घटता अनुशासन

दीपिका एक नामीगिरामी स्कूल की शिक्षिका हैं. वे कहती हैं, ‘‘बच्चों को आजकल कुछ कहसुन नहीं सकते, इसलिए टीचर डरते हैं. बड़े घर के बच्चे जो कह दें वही सही. मैं छोटे बच्चे पढ़ाती हूं, उन का प्यार पा कर दंग हूं. एक दिन एक बच्चे ने मुझ से कहा, मिस, आप पढ़ाते हुए अंजोला और रानू की तरफ ज्यादा क्यों देखती हैं? तब मुझे खयाल आया कि मेरा यह नन्हा एंजिल भी अटैंशन चाहता है. मैं ने तुरंत गलती ठीक की. अनुशासन बच्चों के लिए ही नहीं, बड़ों के लिए भी है. अब मैं बहुत ध्यान देती हूं, छोटे बच्चे भी बहुत जीनियस और अच्छे औब्जर्वर ही नहीं, सच्चे कम्युनिकेटर भी होते हैं.’’

छात्र मयूर कुमार का कहना है, ‘‘हमें स्कूल में सिंपल रहने को कहा जाता है. मैं ने क्लासटीचर से कहा, ‘सर, आप चारों उंगलियों में अंगूठियां क्यों पहनते हो?’ तो उन्होंने सीधा थप्पड़ जड़ दिया, ‘पलट कर सवाल करते हो,’ बात आगे बढ़ी तो मैं भी झुका कुछ टीचर भी. फिर भी उन का व्यवहार स्टूडैंटफ्रैंडली नहीं है. जब मेरे पापा अपने टीचर और उन के घर वालों के प्यारव्यवहार की बातें करते हैं तो मुझे लगता है कोई स्वप्नलोक की बात बता रहे हैं.

होते हैं औब्जर्वर टीचर

डा. पूर्णिमा शर्मा डाक्टर होते हुए भी लंदन में छोटेछोटे बच्चों को पढ़ाती हैं. वे कहती हैं, ‘‘लंदन में एक ही क्लास में 40 बच्चे, पर टीचर एक के बजाय 2 होते हैं. एक टीचर सिर्फ पढ़ते बच्चों को औब्जर्व करती हैं, उन के मनोभाव, प्रश्न आदि पर गौर करती हैं. यह अच्छा स्टाइल है. वहां न मांबाप, न टीचर, कोई भी बच्चों को मार नहीं सकता. भारत में शिक्षकों का आक्रामक व्यवहार आम बात है. ऐसे शिक्षकों के छात्र आसानी से आक्रामक तथा हिंसक हो सकते हैं.’’

प्रथम गुरु मां

मां को बच्चे का पहला गुरु माना जाता है. वह बच्चे को प्यार से समझासिखा सकती है. बच्चा स्कूल तो बाद में जाता है, वह मां ही होती है जो बच्चे को जीवन का पहला पाठ पढ़ाती है. प्रख्यात वैज्ञानिक एडिसन को जब स्कूल से प्रश्न पूछते रहने के कारण मूर्ख बच्चा कह कर निकाला जाने लगा तो उन की मां ने प्रतिरोध किया और इस उत्पीड़न के खिलाफ आवाज बुलंद की. ‘‘एडिसन जिज्ञासु और ब्रिलियंट बच्चा है. यदि आप उसे आम बच्चे की तरह समझ कर चुप करते रहे तो यह उस के साथ न्याय नहीं है, आप ने एक बहुत अच्छा स्टूडैंट खो दिया है.’’

यह कह कर वे बच्चे को घर ले जा कर पढ़ाने लगीं. इस का परिणाम हम आज भी देख रहे हैं. इसी तरह न्यूटन और डार्विन जैसे जीनियस भी टीचर द्वारा कमतर आंके और समझे गए. हेलेन किलर अंधी, बहरी, गूंगी थी. हर स्कूल ने उसे पढ़ाने से मना कर दिया. उस की मां ने स्पर्शबोध से प्यारपूर्वक हेलेन किलर को पढ़ानासमझाना शुरू किया तो इतनी अक्षमता के बावजूद वह कुछ ही समय में सब सीख गई. ज्यादा सिखाने के लिए उस की मां ने इश्तिहार दिया तो ऐनी नामक शिक्षिका ने हेलन किलर को पढ़ाया. ऐनी ने सब्र, त्याग और प्यार से उसे ऐसे पढ़ाया कि दोनों ही विश्वव्यक्तित्व बन गईं. ऐनी ने अपनी डायरी में लिखा कि हेलेन किलर की अक्षमता और जिज्ञासाएं किस तरह उन के लिए चुनौती व प्रकाश स्तंभ दोनों बनीं.

शिक्षक विनम्रता, धैर्य, ज्ञानार्जन, नएनए प्रयोग, प्रेरणा के जरिए छात्रों में गुणों को पैदा करते हैं. नबरों के साथसाथ जीवन में भी आगे बढ़ाते हैं. तभी तो ऐसे गुरु व शिष्य ताउम्र याद  करते हैं एकदूसरे को.

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