दिल्ली हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में भीख मांगने को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है. कोर्ट ने कहा कि भीख मांगने वालों को दंडित करने का प्रावधान असंवैधानिक है और यह रद्द करने लायक है. अदालत ने इस कानून की कुल 25 धाराओं को असंवैधानिक करार देते हुए निरस्त कर दिया. कानून का दायरा दिल्ली तक बढ़ाया गया है.
कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश गीता मित्तल और जस्टिस सी हरिशंकर की पीठ ने कहा कि भीख मांगने को अपराध बनाने वाले ‘बौंबे भीख रोकथाम अधिनियम’ के प्रावधान संवैधानिक जांच में टिक नहीं सकते. लोग सड़कों पर इसलिए भीख नहीं मांगते कि ऐसा करना उन की इच्छा है, बल्कि इसलिए मांगते हैं क्योंकि यह उन की जरूरत है. भीख मांगना जीने के लिए उन का अंतिम उपाय है. उन के पास जीविका चलाने के लिए कोई अन्य साधन नहीं है.
यह ठीक भी है. सरकार के पास जनादेश सभी को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए होता है जिस से सभी नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं मिलना सुनिश्चित हो सके. लेकिन भीख मांगने वालों की मौजूदगी इस बात का सुबूत है कि सरकार सभी नागरिकों को जरूरी चीजें उपलब्ध कराने में कामयाब नहीं रही.
भीख मांगने को अपराध बनाना पुलिस को भिखारी माफिया बनाने का निमंत्रण देता रहा है. भिखारियों को भोजन, आश्रय और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतें मिलती ही नहीं और ऊपर से उन्हें अपराधी बताना दुर्दशा से निबटने के मौलिक अधिकार से रोकता है.
इस फैसले का असर यह होगा कि भीख मांगने को अपराध कह कर मुकदमे नहीं हो सकेंगे. अदालत ने भीख मांगने को मजबूर करने वाले गिरोहों को काबू करने के लिए सरकार को वैकल्पिक कानून बनाने की स्वतंत्रता दी है, पर यह टेढ़ी खीर है. हाईर्कोर्ट ने यह फैसला हर्ष मंदर और कर्णिका साहनी की जनहित याचिकाओं पर सुनाया.
अदालत ने सरकार से पूछा था कि ऐसे देश में भीख मांगना अपराध कैसे हो सकता है जहां सरकार भरपेट भोजन और नौकरियां प्रदान करने में असमर्थ है.
‘बौंबे भीख रोकथाम अधिनियम’ के तहत भिखारियों को जेल में डाला जाता है. यह कानून पुलिस और प्रशासन को तुरंत और बिना वारंट के गिरफ्तारी का अधिकार देता है. इस कानून के तहत अगर कोईर् पहली बार भीख मांगते हुए पकड़ा जाता है तो उसे 3 साल तक सजा हो सकती है. इस के अलावा इस कानून के अंतर्गत 10 साल तक हिरासत में रखने का भी प्रावधान है.
भिक्षावृत्ति धर्म की देन
वैसे हमारे यहां भिक्षावृत्ति धर्म और जातिप्रथा की देन है. धर्म की किताबों में भीख मांगना सर्वोत्तम कार्य माना गया है, लेकिन यह काम केवल ब्राह्मणों व साधुओं के हिस्से ही था. दूसरे लोगों के जिम्मे इन को भीख देना होता था. भीख लेने वाले चूंकि ऊंची जातियों के थे तो उस में पुण्य मिलने की गारंटी है. सदियों से भीख मांगना अपराध नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति का एक सम्मानजनक पहलू समझा गया. ‘भिक्षाम् देहि’ हिंदू समाज में एक ईश्वरीय आदेशात्मक मंत्र बन गया.
हिंदू समाज में भिक्षावृत्ति को मिली धार्मिक मान्यता के चलते सालों से भिखारियों की संख्या बढ़ती गई. भिक्षा ग्रहण करने का पात्र केवल ऊंची जाति का होता था लेकिन हमारी चातुर्वर्ण्य धार्मिक व्यवस्था में काम के बंटवारे के चलते जो निचला शूद्रवर्ग था वह छुआछूत का शिकार रहा. वह ऊपर के 3 वर्णों की सेवा के धार्मिक आदेश के अलावा और कोई काम नहीं कर सकता था. सेवा के बदले उसे ऊंचे वर्णों की जूठन खा कर, उतरे हुए कपड़े पहन कर ही अपना जीवनयापन करना होता था. उसे अन्य कोई काम करने का अधिकार नहीं था.
अब हुआ यह कि धर्म की इस व्यवस्था के कारण जो निचला अछूत वर्ग था, वह अपना पेट भरने के लिए अन्य कोई काम नहीं कर सकता था तो जिंदा रहने के लिए उस के पास भीख मांगने के अलावा कोई चारा नहीं बचा. आज मंदिरों के बाहर, चौराहों पर भिखारियों की जो भीड़ लगी रहती है, ये वे लोग हैं जिन्हें अछूत मान कर दूसरे कामों से वंचित रखा गया. इन्हें अपनी इस दशा के लिए पूर्वजन्म के कर्मों का फल बता कर दूर रखा गया. यह वर्ग मेहनतकश था, पर छुआछूत के कारण इस को छूने से परहेज किया गया.
सरकारें और समाज इन के लिए भोजन और नौकरियों के पर्याप्त इंतजाम करने में नाकाम रही हैं, इसलिए जीवनयापन के लिए विवशतावश इन लोगों को भिक्षावृत्ति का सहारा लेना पड़ रहा है. मंदिरों की अपार आय में से इन्हें कुछ नहीं मिलता. बचा हुआ प्रसाद भी नहीं.
अदालत ने हालांकि अपने फैसले में धर्म का कहीं कोई जिक्र नहीं किया है पर फैसले से साफ है कि सामाजिक और आर्थिक विसंगतियों के चलते कोई भिखारी बनता है. यह ठीक है कि अदालत ने
भीख मांगने की परिस्थितियों पर मानवीय दृष्टिकोण से विचार किया है और इसे देखते हुए संवैधानिक आधार पर फैसला सुनाया है.
भीख मांगने वाले धर्म के सताए हुए हैं, लेकिन धर्म को चलाने वाले संगमरमर के भव्य मंदिरों, मठों, एसी गाडि़यों में घूमने वाले पंडे, पुरोहित, साधु, संन्यासी भी भीख मांगने का ही काम कर रहे हैं. उत्पादकता से उन का कौन सा रिश्ता है? एक जिंदा रहने के लिए भीख मांगता है, दूसरा ऐशोआराम के लिए दानदक्षिणा मांगता है. उत्पादकता की सीख अदालत नहीं देगी, और न सरकारें सब को भोजन व नौकरियां देंगी. सो, भीख का धंधा बदस्तूर चलता ही रहेगा.