एक बी श्रेणी के शहर की रिहायशी कालोनी में रहने वाले तकरीबन 72 वर्षीय बुजुर्ग सिन्हा साहब का निधन हो गया है. सुबह के 9 बजे हैं, बारिश का बेमतलब का सुहाना मौसम है. सिन्हा साहब बड़े सरकारी अधिकारी हुआ करते थे. उन के 2 बेटे और 2 बेटियां हैं. बड़ा बेटा उन के साथ रहता है और छोटे की फ्लाइट आने को है. अंतिमयात्रा की तैयारियां जोरों पर हैं. अर्थी यानी मृत्यु शैया लगभग सजाई जा चुकी है. गेट के बाहर किसी ने मटकी में सुलगते उपले रख दिए हैं जिन से धुआं उठ रहा है, इसे हांडी कहा जाता है. वक्त काटने को लोग क्या बातें कर रहे हैं, आइए सुनें-

‘‘अब भाई देरदार किस बात की है.’’ ‘‘छोटे बेटे की फ्लाइट आने वाली है.’’ ‘‘फ्लाइट कितने बजे की है?’’ ‘‘9 बजे की है, टाइम तो हो गया है.’’ ‘‘चलो आता ही होगा तब तक डैडबौडी तो उठवाओ.’’ ‘‘हां, अंदर गए हैं शर्माजी और तीनचार लोग देखता हूं.’’ यह कहने वाला बंदा बजाय अंदर जाने के बाहर सिगरेट के कश लगाने चला गया. उस की जगह तुरंत दूसरे ने इस वक्तव्य के साथ ले ली कि, ‘अरे अर्थी का मुंह तो दक्षिण दिशा की तरफ है.’ यह कह कर वह कोलंबस की तरह ऊंट सा मुंह उठा कर दिशाओं का मुआयना करने लगा. पहले सज्जन को बात सम झ आई, सो खिसियाहट छिपाते बोले, ‘हां, मुंह तो उत्तर या पूर्व की तरफ होना चाहिए.’

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फिर अगले ही क्षण उन्हें सम झ आया कि अर्थी नहीं, बल्कि मुर्दे यानी डैडबौडी का मुंह उत्तर की तरफ होना चाहिए, इसलिए तुरंत प्रतिवाद करते हुए बोले, ‘ठीक है उन का मुंह इस तरफ कर लेंगे.’ महिलाओं के आने का सिलसिला भी जारी है जो आंचल या दुपट्टे से सिर ढके आती हैं और अछूत की तरह अंदर चली जाती हैं. उन के अंदर पहुंचते ही औरतों के रोने की आवाज थोड़ी देर के लिए तेज हो जाती है, फिर धीरेधीरे कम होती जाती है. बाहर भी लोग दोदो, चारचार के गुट बना कर बैठ गए हैं. अंगरेजों के जमाने को याद करते एक बोला, ‘बस, यही खामी है हमारे देश में, टाइम तो 9 बजे का दे दिया लेकिन अभी तक चलने के कहीं अतेपते नहीं हैं.’

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