एक बी श्रेणी के शहर की रिहायशी कालोनी में रहने वाले तकरीबन 72 वर्षीय बुजुर्ग सिन्हा साहब का निधन हो गया है. सुबह के 9 बजे हैं, बारिश का बेमतलब का सुहाना मौसम है. सिन्हा साहब बड़े सरकारी अधिकारी हुआ करते थे. उन के 2 बेटे और 2 बेटियां हैं. बड़ा बेटा उन के साथ रहता है और छोटे की फ्लाइट आने को है. अंतिमयात्रा की तैयारियां जोरों पर हैं. अर्थी यानी मृत्यु शैया लगभग सजाई जा चुकी है. गेट के बाहर किसी ने मटकी में सुलगते उपले रख दिए हैं जिन से धुआं उठ रहा है, इसे हांडी कहा जाता है. वक्त काटने को लोग क्या बातें कर रहे हैं, आइए सुनें-
‘‘अब भाई देरदार किस बात की है.’’ ‘‘छोटे बेटे की फ्लाइट आने वाली है.’’ ‘‘फ्लाइट कितने बजे की है?’’ ‘‘9 बजे की है, टाइम तो हो गया है.’’ ‘‘चलो आता ही होगा तब तक डैडबौडी तो उठवाओ.’’ ‘‘हां, अंदर गए हैं शर्माजी और तीनचार लोग देखता हूं.’’ यह कहने वाला बंदा बजाय अंदर जाने के बाहर सिगरेट के कश लगाने चला गया. उस की जगह तुरंत दूसरे ने इस वक्तव्य के साथ ले ली कि, ‘अरे अर्थी का मुंह तो दक्षिण दिशा की तरफ है.’ यह कह कर वह कोलंबस की तरह ऊंट सा मुंह उठा कर दिशाओं का मुआयना करने लगा. पहले सज्जन को बात सम झ आई, सो खिसियाहट छिपाते बोले, ‘हां, मुंह तो उत्तर या पूर्व की तरफ होना चाहिए.’
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फिर अगले ही क्षण उन्हें सम झ आया कि अर्थी नहीं, बल्कि मुर्दे यानी डैडबौडी का मुंह उत्तर की तरफ होना चाहिए, इसलिए तुरंत प्रतिवाद करते हुए बोले, ‘ठीक है उन का मुंह इस तरफ कर लेंगे.’ महिलाओं के आने का सिलसिला भी जारी है जो आंचल या दुपट्टे से सिर ढके आती हैं और अछूत की तरह अंदर चली जाती हैं. उन के अंदर पहुंचते ही औरतों के रोने की आवाज थोड़ी देर के लिए तेज हो जाती है, फिर धीरेधीरे कम होती जाती है. बाहर भी लोग दोदो, चारचार के गुट बना कर बैठ गए हैं. अंगरेजों के जमाने को याद करते एक बोला, ‘बस, यही खामी है हमारे देश में, टाइम तो 9 बजे का दे दिया लेकिन अभी तक चलने के कहीं अतेपते नहीं हैं.’
दूसरों ने यह कहते उस का मूक समर्थन इस बचाव के साथ किया कि छोटा बेटा रास्ते में है. यह मैसेज चूंकि पहले ही बाहर आ चुका था, इसलिए वक्त पर आ गए लोग खुद को फंसा महसूस कर रहे थे. लौन में शव लाया जा चुका था, इसलिए हलचल मचने लगी थी. महिलाओं के रुदनक्रंदन की भी आवाज बढ़ गई थी, जो शवयात्रा के प्रारंभ होने का सिग्नल था. चार लोग भारीभरकम सिन्हा साहब को उठा कर बाहर ले आए थे, लेकिन अर्थी पर नहीं लिटा पा रहे थे क्योंकि दोनों विशेषज्ञों में बहस छिड़ गई थी. एक का कहना था कि पिंड अंदर से ही शव के साथ रखने चाहिए थे जबकि दूसरे का तर्क था कि पिंड बाहर भी शव के साथ रखे जा सकते हैं. इस विवाद में जो लोग शव को कांच के बरतन की तरह नजाकत से उठाए हुए थे उन्हें गुस्सा आ रहा था कि इस में हमारी क्या गलती, अगर ज्यादा देर चेंचेंपेंपें की तो सिन्हा साहब हमारे हाथ से फिसल जाएंगे, फिर हम से मत कहना. हम कोई वेटलिफ्टर नहीं हैं. विवाद और बढ़ पाता, इस से पहले ही एक पंडितजी प्रकट हो गए. उन्होंने मुलायम आवाज में जज की तरह फैसला दिया, ‘
उस से कोई फर्क नहीं पड़ता पिंड तो प्रतीक भर हैं, कहीं भी रख दो.’ फिर वे बिना जवाब का इंतजार किए फसल्ला मार कर अर्थी के पास बैठ कर पिंडों का आकार ठीक करते दूसरे निर्देश देने लगे. दोनों विशेषज्ञों ने मैच ड्रा हो जाने पर चैन की सांस ली. पंडितजी ने हजार कमियां निकाल दीं, मसलन देसी घी, कपूर और काला तिल नहीं हैं. शव के ऊपर हलदी और डालो व फूल माला और लाओ. ऐसी दर्जनभर खामियां उन्होंने गिनाईं जिन से सिन्हा साहब के नर्क में जाने का खतरा बढ़ जाता तो सभी सतर्क हो कर उन की मांगें पूरी करने में जुट गए. बाहर जिन्हें यह लग रहा था कि शवयात्रा बस शुरू होने ही वाली है वे पंडित को आया देख फिर घंटेआधाघंटे के लिए बेफिक्र हो गए कि अभी तक तो कार्रवाई दामाद, फूफा और मामा किस्म के नातजरबेकारों के हाथों में ही थी, अब ये पंडितजी अपनी दुकान चमकाएंगे. लौन के एक कोने में खास लोगों से घिरा सिन्हा साहब का बड़ा बेटा रट्टू तोते की तरह सब को बताए जा रहा था,
‘कल तो बिलकुल ठीक थे. मैं उन्हें सुला कर ही खुद सोने गया था. 11 बजे अचानक उन के सीने में दर्द उठा और फिर अस्पताल जाने का भी वक्त नहीं मिला. छोटा भी मुंबई से आ गया है, टैक्सी रास्ते में है. एक बड़ी एमएनसी में मैनेजर है.’ जवाब में लोग उसे तसल्ली दे रहे थे, जिस का सार यह था कि सिन्हा साहब अपनी नहीं, बल्कि ऊपर वाले की मरजी से इस नश्वर संसार से कूच कर गए हैं. इधर बाहर गपशप, मोबाइल और सिगरेटतंबाकू के सहारे वक्त काट रहे लोग इस गैरजरूरी देरी पर झल्लाने लगे थे. शांति वाहन आ चुका था, जो घर से कुछ दूर खड़ा था. आजकल शवयात्रा कुछ मीटर की ही दूरी की होती है. पंडितजी ने आधे घंटे में शव को विधिविधान से सजवा और बंधवा दिया था जो वाकई आकर्षक दिखने लगा था. बाहर छोटे की टैक्सी रुकी तो फिर हलचल हुई और इंतजार कर रहे लोगों को भरोसा हो गया कि अब जरूर बस थोड़ी देर ही और बची है. इसी बीच मौजूद पृथ्वीलोक के कुछ लोग चित्रगुप्त से पहले ही सिन्हा साहब की जायज और नाजायज दोनों तरीकों से निर्मित जायदाद और पाप व पुण्यों का हिसाबकिताब लगा चुके थे.
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छोटा आते ही दहाड़ मार कर पिता के शव से लिपट गया. उस की पत्नी सास के गले लग गई. महिलाओं को इस से और रोने की प्रेरणा मिली और वे फिर रोईं. इस रस्म के बाद पंडित की हिदायतें शुरू हो गईं कि दोनों बेटे आगे से अर्थी को कांधा देंगे और पीछे दामाद, भतीजे, भांजे आदि रहेंगे लेकिन श्मशान पहुंचने पर आगे वाले पीछे और पीछे वाले आगे हो जाएंगे. क्रिकेट के खेल में फील्ंिडग जमाने का आइडिया अंगरेजों को शायद भारतीय शवयात्राओं से ही मिला था. तभी कोई फूफा टाइप का आदमी अर्थी की तरफ चिल्ला कर तो नहीं लेकिन तेज आवाज में बोला, अरे, कैसे बांधा है, एक हाथ बाहर दिख रहा है. बात सही थी और पंडितजी की मेहनत, अनुभव और योग्यता पर सवाल उठाती हुई थी. सो, वे सकपका गए और घरघराती सी आवाज में बोले, ‘ढके लेते हैं’ लेकिन सच तो यही है कि आदमी मुट्ठी बांधे आता है और हाथ पसारे जाता है. यह एक ऐसी चलताऊ दार्शनिक बात है जिस से हर कोई हमेशा सहमत रहता है.
वह बात का रुख बदलते बोला, ‘अब महिलाएं आ कर चरण छुएं.’ यह एक मनपसंद काम था, इसलिए महिलाएं आगे बढ़ने लगीं. पंडित ने फिर निर्देश दिया कि बाएं से नहीं दाएं से आइए. अब क्या दायां और क्या बायां, जिस को जैसी सहूलियत रही, उस ने वैसे पैर पड़ कर सिन्हा साहब को विदा किया. 4 लोगों ने अर्थी को कांधा दिया तो मौजूद लोगों ने लंबी सांस ली और ‘राम नाम सत है, सत बोलो गत है’ के नारों से महल्ला गूंज उठा. कुछ देर के लिए सभी सचमुच में गमगीन हो उठे. मुखाग्नि रिवाज के मुताबिक बड़े बेटे ने ही दी जिसे उस के 2 दोस्त मुश्किल से धोती पहना पाए, पहना भी क्या पाए जैसेतैसे कमर में खोंस दी थी. कंधे पर मटका रख बेटे ने शव के 3 चक्कर लगाए और मुखाग्नि दी. ये सभी काम पंडित के निर्देशन में संपन्न हुए. चिता जब धूधू कर जलने लगी तो शवयात्रियों ने पांचपांच टुकड़े लकडि़यों के उस में डाले. कुछ नौजवानों का कुतूहल देख कर एक बुजुर्ग ने उन की शंका का समाधान किया कि ये लकड़ी के टुकड़े पंचतत्त्व के प्रतीक हैं. बात में दम लाने को उन्होंने एक दोहा भी पढ़ दिया,
‘क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंचतत्त्व मिल बना शरीरा.’ यह संस्कृतनुमा तर्क युवाओं को न तो सम झ आया और न ही हजम हुआ. इतना सबकुछ हो जाने के बाद सब का प्रिय कार्य शोकसभा का हुआ जिस में तकरीबन 10 लोगों ने संबोधित करते सिन्हा साहब की जिंदगी पर रोशनी डालते साबित कर दिया कि वे महान थे और अपने जीवनकाल में पूरी जिम्मेदारियां निभा गए. अब दोनों बेटे उन के आदर्शों का भार उठाएंगे. यह और बात है कि बेटे सिर्फ जायदाद और मकान का भार उठाने को ही तैयार थे. श्मशान से लोग सीधे अपनेअपने घर वापस लौट गए. मृतक के नजदीकी रिश्तेदार ही बचे और चिता पूरी जलने का इंतजार करते रहे. बचे लोग श्मशान में पसरी अव्यवस्थाओं को कोसते खारी उठाने और तेरहवीं की तारीख निकालने में व्यस्त हो गए.
पंडितजी को मालूम था कि अब 13 दिन उन्हें सिन्हा साहब के वारिसों से दक्षिणा ही बटोरना है, लिहाजा, वे रुके रहे और चिता पूरी जल जाने पर बाद के विधान व कार्यक्रम सम झाने लगे कि परसों तीसरा होगा. 10 दिनों बाद दसवां यानी दशगात्र होगा और तेरहवें दिन गंगापूजन और मृत्युभोज होगा. इस दौरान मृतक की तसवीर के सामने देसी घी का दिया लगातार जलाए रखना है. बेटे, खासतौर से बड़ा बेटा, अस्थियां विसर्जित करने प्रयागराज जाएंगे जहां उन्हें कायस्थों का पुश्तैनी पंडा मिलेगा जो पूरे विधिविधान से सारे संस्कार सस्ते में संपन्न करा देगा, फिर वहीं बेटों का मुंडन होगा. जो रिश्तेदार चाहें, वहीं मुंडन करा लें. गरुड़ पुराण बहुत जरूरी है जिस का पाठ वे 13 दिन सिन्हा साहब के यहां रोज शाम को करेंगे, इस का श्रवण सभी को करना चाहिए. क्या माने इस बकवास के फिर 12 दिन सिन्हा साहब के परिजन मृत्यु के बाद के रीतिरिवाजों के नाम पर लुटतेपिटते रहे.
प्रयागराज, परंपरा के मुताबिक, बड़ा बेटा ही गया क्योंकि उस ने ही मुखाग्नि दी थी. बारबार जेब में हाथ न डालना पड़े, इसलिए उस ने 21 हजार रुपए के ठेके पर सारा क्रियाकर्म बिना किसी टैंडर के दे दिया था. हालांकि इतनी ज्यादा दक्षिणा उसे अखर रही थी लेकिन सवाल पापा के मोक्ष और मुक्ति का था, सो अनिच्छापूर्वक लुटतापिटता रहा. त्रिवेणी में डुबकी लगाने से ले कर अस्थिविसर्जन के लिए पोटली खोलने व पिंडदान से ले कर मुंडन कराने तक वह पंडित के न सम झ आने वाले मंत्रोच्चार हजम करता रहा. इधर सिन्हा साहब के घर रोज शाम को उस्तरा पंडितजी गरुड़ पुराण के जरिए चला रहे थे. ठीक 5 बजे उन की पत्नी, बेटियां, बहुएं, दामाद और कुछ नजदीकी रिश्तेदारों सहित दोचार पड़ोसी इस वीभत्स कथा का श्रवण नियमपूर्वक कर रहे थे.
10 दिनों में ही उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया था कि नर्क बड़ी भयावह जगह है जहां जाने से बचने के लिए या तो जिंदगीभर सद्कर्म करना चाहिए (जो कोई नहीं कर सकता) या फिर पापों से बचने के लिए पंडित को दानदक्षिणा देना चाहिए जो कि वे कर रहे थे और सभी नर्क जाने से बचने के लिए यही शौर्टकट अपनाते हैं. छोटे बेटे का इन ढकोसलों में भरोसा नहीं था लेकिन वह अभी इतना बड़ा नहीं हुआ था कि परिजनों से पंगा ले पाता. लिहाजा, चुपचाप सुनता रहा कि नर्कों की संख्या 28 से ले कर 50 करोड़ तक है जहां भीषण यातनाएं पापात्माओं को दी जाती हैं. कर्मों के हिसाब से कहीं उन्हें खौलते तेल के कड़ाहों में उबाला जाता है तो कहीं आग से हो कर गुजारा जाता है. कहीं कीड़ेमकोड़ों के बीच फेंक दिया जाता है तो कहीं पक्षी अपनी चोंच से पापी की जीभ नोंचते हैं. अलगअलग किस्म के पापियों के लिए अलगअलग किस्म की सजा का इंतजाम आईपीसी की धाराओं की तरह है.
मसलन, जो व्यक्ति किसी भी रिश्ते में दरार डालता है उसे आरी से चीरा जाता है. दूसरों को तकलीफ देने वालों को तपती हुई बालू में मूंगफली की तरह भूना जाता है. चुगलखोरों की जीभ चाकू से काट दी जाती है. सब से कष्टदायक सजा बड़ों की बेइज्जती करने वालों को मिलती है, उन्हें मलमूत्र से भरे बड़ेबड़े कुंडों में उलटा लटकाया जाता है. गाय, ब्राह्मणों और पुरोहितों को बेइज्जत करने वालों के हाथ लोहे के जलते हुए खंबों से चिपका दिए जाते हैं, इस से आत्मा को बड़ी तकलीफ होती है. छोटा बेटा पहले तो यह सब सुन कर घबराया लेकिन बेरोजगारी के दिनों में उस ने चूंकि श्रीमद्भगवतगीता में कहीं पढ़ रखा था कि आत्मा अनुभूति और सुखदुख से परे होती है. शस्त्र उसे काट नहीं सकते, अग्नि उसे जला नहीं सकती, पानी भिगो नहीं सकता, हवा सुखा नहीं सकती (नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक, न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत) तो फिर ये सजाएं कैसे मिलती होंगी.
लेकिन उस ने चुप रहने में ही अपनी भलाई सम झी. फिर यह सुन कर कि दानदक्षिणा दे कर काल्पनिक नर्क और इन नारकीय सजाओं से बचा जा सकता है. मुद्दे की बात उसे सम झ आ गई कि यह भी पंडों का रचा प्रपंच है जिस से उन्हें बैठेबिठाए मालपुआ मिलता रहे. वह कसमसा उठा पर कुछ नहीं, बल्कि बहुतकुछ सोच कर चुप रहा. लेकिन 10वें अध्याय को सुनने के दौरान उस का माथा ठनका क्योंकि पापा का अंतिम संस्कार गरुड़ पुराण में वर्णित विधिविधान से नहीं हुआ था जबकि सबकुछ करवाया इसी पंडित ने था. इस लिहाज से तो वे अब तक भूलोक से नर्क पहुंच ही गए होंगे. कर्म से परे अंतिम संस्कार के रिवाजों के पूरा न होने पर सजा आत्मा को क्यों? वह तो पंडों को मिलनी चाहिए. 10वें अध्याय में जैसे ही पंचकों में मरने का जिक्र आया तो वह सब से नजरें चुरा कर दूसरे कमरे में गया और पंचांग देखा तो भौचक्का रह गया क्योंकि पंचांग के मुताबिक तो सिन्हा साहब पंचकों में ही मरे थे और दाहसंस्कार और्डनरी मौत का करवा दिया गया था.
इधर पंडितजी लय में बांचे जा रहे थे कि- पंच्केशु मृतो यस्तु न गतिं लभते नर. दाहस्त्त्र न कर्त्व्ये क्रितेंयामरण भवेत. (गरुड़ पुराण, अध्याय 10, श्लोक 25) अर्थात, पंचक में जिस का मरण होता है उस मनुष्य को सद्गति प्राप्त नहीं होती. उस का दाहसंस्कार नहीं करना चाहिए अन्यथा अन्यों की मृत्यु हो जाती है. वह कान लगा कर सुनता रहा कि पंडितजी इस बला का भी उपाय बता रहे थे कुश यानी घास से निर्मित पुतलों को शव के साथ अभिमंत्रित कर जलाना चाहिए और उन में सोना रखना चाहिए. यह बात भी छोटे के गले नहीं उतरी कि यह कौन सा तरीका हुआ कि घास के पुतलों के साथ सोना रख शव जलाने से पंचक दोष दूर हो जाता है. अब अगर वह बाहर जा कर यह कहता कि पापा तो बिना पुतले और सोने के ही जला दिए गए तो खासा बवंडर मच जाता, इसलिए वह मजे ले कर यह पुराण सुनने लगा.
इसी अध्याय के श्लोक 60 और सुन कर तो उसे पूरी तरह भरोसा हो गया कि गरुड़ पुराण सिर्फ लूट का जरिया है क्योंकि पंडित बांच रहा था. दाहादनन्तंरकार्यं स्त्रीभि: स्नानं तत: सुतै:। तिलोदकं ततो दद्यान्नामगोत्रोपकल्पितम् ॥ 60॥ प्राश्येन्निम्बपत्राणि मृतकस्य गुणान् वदेत्। स्त्रीजनोऽग्रे गृहं गच्छेत्पृष्ठतो नरसञ्च्य: ॥ 61॥ गरुड़ पुराण अध्याय 10 (श्लोक 60 व 61) अर्थात, दाह के अनंतर स्त्रियों को स्नान करना चाहिए, तत्पश्चात पुत्रों को स्नान करना चाहिए, तदंतर मृत प्राणी के गोत्र नाम का उच्चारण कर के तिलांजलि देना चाहिए. फिर नीम के पत्तों को चबा कर मृतक के गुणों का गान करना चाहिए.
आगेआगे स्त्रियों को और पीछे पुरुषों को घर जाना चाहिए. यहां तो ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था क्योंकि स्त्रियों को श्मशान जाने की मनाही है, फिर घर में आगेपीछे दाखिले का तो सवाल ही नहीं उठता और नीम की पत्तियां भी किसी ने नहीं चबाई थीं और न ही गोत्र वगैरह का नाम किसी ने लिया था. यानी हजारों रुपए खर्च करवाने के बाद भी इस पंडे ने पापा को नर्क भेज कर ही दम लिया, जिस से वे 84 लाख योनियों में भटकते रहें जबकि अलिखित करार तो उन की मुक्ति का हुआ है. उस के मन में तो आया कि जा कर पंडित का टेंटुआ पकड़ ले कि यह क्या उलटासुलटा करवा कर रोज की हजार रुपए के करीब चढ़ोत्री समेट कर ले जा रहा है और गंगापूजन व तेरहवीं के दिन फिर मूढ़ेगा. पापा की मुक्ति के नाम पर भूदान, स्वर्णदान, गौदान, वस्त्रदान, शैयादान और न जाने कौनकौन से दान मांगेगा जो पापा तक तो पहुंचने से रहे. दान से तू और पंडताइन बच्चों सहित ऐश करेंगे.
खामखां की हीरोपंती दिखाने से कोई फायदा नहीं, उस ने सोचा, अभी सारे रिश्तेदार मिल कर चढ़ाई कर देंगे कि चार किताबें साइंस, कंप्यूटर और गणित की क्या पढ़ लीं कि धर्म में खोट नजर आने लगी और क्या इसी दिन के लिए पिता ने तुम्हें पढ़ालिखा कर इस काबिल बनाया था कि तुम उन के संस्कार में भी रोड़ा अटकाओ. ‘अब जो हो रहा है उसे चुपचाप होने दिया जाए,’ यह सोचते ही उस की तबीयत हलकी हो गई कि मैं सिस्टम सुधारने को पैदा नहीं हुआ हूं. मेरा काम नएनए सौफ्टवेयर बनाना है. मन में गिल्ट लिए अपनी इस बुजदिली से बचने को वह फिर पूजा वाले कमरे में आ कर शांति से पसर गया, जहां गरुड़ पुराण बदस्तूर जारी था. पंडितजी अब कह रहे थे- श्मशानानलदग्धोऽसि परित्योऽसि बान्धवि:। इंद नीरमिदं क्षीरमत्र स्नाहि इदं पिब ॥ 66॥ (गरुड़ पुराण, अध्याय 10, श्लोक 66) अर्थात, (हे प्रेत) तुम श्मशान की आग से जले हुए हो. बांधवों से परित्यक्त हो. यह जल और यह दूध तुम्हारे लिए है, इस में स्नान करो और इसे पियो. यह सुन कर छोटा मन ही मन मुसकरा कर अपनेआप से बोला, ‘
अगर मरने वाला कुछ पी सकता है तो मेरे पापा को दो पैग व्हिस्की भिजवा दो जो वे रोज पिया करते थे.’ कोरोना प्रोटोकौल बेहतर फिर और कर्मकांड हुए जिन में प्रमुख मृत्युभोज था जिस पर भी दोनों भाइयों ने दिल खोल कर डेढ़ लाख रुपया खर्च किया था. इस पर समाज और रिश्तेदारी में उन्हें खूब वाहवाही मिली थी. 8 सौ लोगों ने छक कर तरहतरह के पकवानों का लुत्फ उठाया था जिन में 51 ब्राह्मण भी थे. उन्हें कपड़े, बरतन, चांदी की गाय और नकद 501 रुपए दिए गए थे. जिस के एवज में पापा के स्वर्ग में होने का सर्टिफिकेट दोनों को मिल गया था. पूरे 13 दिनों में लगभग 3 लाख रुपए खर्च हो गए थे जिन का इन्हें कोई खास अफसोस नहीं था क्योंकि पापा इस से कई गुना ज्यादा छोड़ गए थे. फिर कोरोना की दूसरी लहर आई तो लाखों लोग बेमौत औक्सीजन की कमी से मरे. कइयों के शव लावारिसों की तरह जलाए गए. न उन की अर्थी विधिविधान से बांधी गई और न ही अंतिमयात्रा निकली. एक, दो या चार लोग उन्हें जला आए.
गरुड़ पुराण और मृत्युभोज तो जैसे गुजरे कल की बात हो गई. छोटे को इस बात का जरूर दुख था कि लोगों का अंतिम संस्कार असम्मानजनक तरीके से किया जा रहा है लेकिन सुकून भी था कि चलो, पंडों की लूटपाट और बकवास से तो बचे. एक दिन बड़े भाई का फोन आया कि मम्मी को कोरोना हो गया है और फेफड़े ज्यादा इन्फैक्टेड हो गए हैं तो वह पहली फ्लाइट से घर पहुंच गया लेकिन अस्पताल उन्हें देखने नहीं जा पाया क्योंकि इस की मनाही थी. तीसरे दिन खबर मिली कि मम्मी की हालत बहुत बिगड़ गई है, उन्हें वैंटिलेटर पर रखा गया है. माहौल देख दोनों भाई मानसिक रूप से मां की मौत के लिए खुद को तैयार कर चुके थे. चौथे दिन मम्मी चल बसीं. उन की डैडबौडी अस्पताल वालों ने पौलिथीन में लपेट कर एंबुलैंस में रख दी थी जहां से दोनों श्मशान पहुंचे और नम आंखों से नगरनिगम कर्मियों द्वारा मम्मी का अंतिम संस्कार होते देखते रहे थे. अब न कोई पंडित था, न कोई शवयात्रा थी, न पिंड थे और न कपूर और शुद्ध घी जैसे दर्जनभर आइटम.
न किसी को प्रयागराज जाना था, न तीसरा होना था और न दसवां होना था. दोनों बेटों ने दुखी मन से मां को दूर से विदा किया और 3 वर्षों पहले हुए ताम झाम को याद करते रहे कि उस से क्या मिला था. अब मम्मी सहित लाखों लोग नर्क में जाएंगे या स्वर्ग में, पैसे और दानदक्षिणा ले कर यह बताने वाला कोई पंडित भी नहीं था. हां, उन की यह इच्छा जरूर अधूरी रह गई कि मम्मी को भी पापा की तरह अंतिम विदाई घर से देते लेकिन मजबूरी कोरोना प्रोटोकौल की थी, गरुड़ पुराण में वर्णित बकवास की नहीं जिसे वे पापा के वक्त भुगत चुके थे. अब कोई यह नहीं कह सकता था कि पैसे बचाने के लिए मां को लावारिसों जैसा जला दिया और इस के पीछे दोष तुम्हारे शिक्षित होने का है. शिक्षित होने का दोष तो पापा के वक्त था जब दोनों धार्मिक पाखंडों का कोई विरोध नहीं कर पाए थे.