लेखक-विजन कुमार पांडेय

मानव अस्तित्व से भी हजारों वर्ष पहले धरती पर हिमयुग का लंबा दौर चला था जब दुनिया बर्फीली चादर से ढक गई थी. वैज्ञानिकों के अनुसार अब ‘सोलर मिनिमम युग’ का दौर है. ऐसे में एक बार फिर से हिमयुग के आने की अटकलें लगाई जा रही हैं. ‘सबकुछ शांत था, न हवा थी, न समुद्र में लहरों की उथलपुथल. आसमान गहरा नीला एवं धूप इतनी चमकदार कि मीलों तक साफसाफ देखा जा सकता था. दूरदूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था. अचानक बहुत दूर एक भूरी सी पहाड़ी नजर आई. पहाड़ी के ऊपर ग्लाबिनों हाथ हिलाहिला कर नाच रहे थे. ऐसा लग रहा था मानो वे कह रहे हों कि मैं धरती के आखिरी छोर पर पहुंच गया हूं. मौत के चंगुल में पहुंच चुके हम सभी लोगों के लिए यह एक नया जीवन था, परम आनंद की अनुभूति का क्षण था.’ 175 वर्ष पहले अंटार्कटिका की खोजयात्रा पर गए अंगरेज नाविक विलियम्स स्मिथ ने अंटार्कटिका प्रायद्वीप के नजदीक के एक द्वीप को देख कर ये शब्द लिखे थे.

स्मिथ, दरअसल एक व्यापारिक यात्रा पर निकले थे. मौसम खराब हो जाने के कारण वे भटक कर दक्षिण शेरलैंड द्वीप तक पहुंच गए. उन की यह खोज काफी महत्त्वपूर्ण थी लेकिन अंटार्कटिका का अस्तित्व अंधेरे में ही था. अंगरेजों ने दक्षिणी समुद्र के रहस्यों की खोज के लिए स्मिथ को एक बार फिर खोज अभियान पर भेजा. इस बार इस का नेतृत्व रौयल नेवी के एडवर्ड ब्रेंसीफील्ड को सौंपा गया. चुनौतीभरा अभियान स्मिथ के दूसरे अभियान ने अंटार्कटिका महाद्वीप के एक भाग को देखने में सफलता प्राप्त कर ली. यह पहला अवसर था जब मनुष्य के कदम यहां तक पहुंचे थे.

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इन तमाम सफलताओं के बावजूद अंटार्कटिका का अस्तित्व अभी भी संदिग्ध था. 2 दशकों बाद जनवरी 1840 में अमेरिकी खोज अभियान दल के नेता चार्ल्स विल्किंस ने अंटार्कटिका के समुद्रतट में मोटी बर्फ की तह भी देखी. उन की खोज ने इस अवधारणा पर पक्की मुहर लगा दी कि अंटार्कटिका बर्फों वाला एक महाद्वीप है. फिर क्या था, 19वीं सदी में फ्रांस, इटली व जरमनी ने अंटार्कटिका की खोज के अनेक अभियान चलाए. आज यह विश्वास नहीं होता कि छोटीछोटी नौकाओं व पोतों में सवार हो कर 18वीं-19वीं शताब्दियों के नाविकों ने अंटार्कटिका के भयानक समुद्र में यात्राएं कैसे की होंगी, वह भी बिना किसी आधुनिक संचार व्यवस्था के, जबकि आज भी विज्ञान के अनेक संसाधनों के मुहैया होने के बावजूद अंटार्कटिका तक पहुंचना आसान नहीं है. इस चुनौतीभरे अभियान में भारत भी पीछे नहीं रहा.

अंटार्कटिका पर पहुंचने वाले प्रथम भारतीय नागरिक गिरिराज सिरोही थे. सिरोही एक प्लांट फिजियोलौजिस्ट थे जो एक अमेरिकी अभियान दल के सदस्य के रूप में वर्ष 1960 में अंटार्कटिका पहुंचे. सिरोही ने दक्षिणी ध्रुव पर कौकरोच जैसे जीवों पर ‘बायलौजिकल कपास’ का अध्ययन किया. सिरोही के सम्मान में ही अंटार्कटिका के ब्रेडमोर ग्लेशियर का नाम ‘सिरोही पौइंट’ रखा गया. अनछुआ नहीं अब अंटार्कटिका अनछुआ इलाका नहीं रहा. वहां के ‘डिसैप्शन आईलैंड’ के तेल टैंकर में आज भी बिखरी हुई हड्डियां दिखती हैं जो 70 के दशक में ह्वेल मछलियों के अंधाधुंध शिकार की गवाह हैं. तब ह्वेल की चरबी से तेल निकाल कर उस से बिजली बनाई जाती थी. डिसैप्शन आईलैंड में एक वक्त 4 लाख से ज्यादा ह्वेल मछलियां थीं. फिर बिजली बनाने के चक्कर में उन्हें इस तरह मारा गया कि उन की संख्या घट कर 250 पर सिमट गई.

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आज यह स्थान पर्यटकों के लिए विकसित हो रहा है. नजरिया ही बदल जाएगा जब आप अंटार्कटिका की यात्रा पर जाएंगे तो जिंदगी का नजरिया ही बदल जाएगा. दुनिया की वह जगह जहां पेड़ नहीं हैं, कोई इंसान नहीं. वहां आप की सूंघने की शक्ति खत्म हो जाती है. ऐसी जगह जहां 500 मीटर दूर से भी कोई आवाज सुनी जा सकती है. वहां की कुछ और दिलचस्प बातें आप भी जानें. द्य पहली दिलचस्प बात यह है कि लाखों साल पहले इंडिया और अंटार्कटिका आपस में जुड़े थे. जब दोनों टूटे तो अंटार्कटिका नीचे की ओर चला गया और ठंडा हो कर जम गया. इंडिया ऊपर की ओर गया और प्लेटों से टकरा कर हिमालय का निर्माण हो गया. द्य अंटार्कटिका में प्रदूषण नहीं है. वहां सबकुछ इतना साफ दिखाई देता है कि दिल्ली से गुड़गांव तक की हर इमारत नजर आ जाए. हवा इतनी ठंडी है कि शरीर से या वाशरूम जाने के बाद बदबू नहीं आती.

असल में वहां सूंघने की शक्ति ही खत्म सी हो जाती है. द्य अंटार्कटिका में कोई रनवे नहीं है, फिर भी वहां प्लेन लैंड हो जाते हैं. ब्लू आइस वहां की इतनी सख्त है कि उस पर प्लेन भी उतर सकते हैं.

अंटार्कटिका में 2 ऐसी जगहें हैं जहां बिना बर्फ के भी तापमान जीरो डिग्री से कम रहता है. पहली, एलिफैंट्स हैड और दूसरी, अंटार्कटिका ड्राई वैली.

अंटार्कटिका की एक और खूबी है कि वहां रात अंधेरीकाली नहीं होती. बर्फ पर पड़ने वाली तारों की रोशनी उसे चमकीला बना देती है. इसलिए वहां घड़ी देख कर पता लगाना पड़ता है कि रात कितनी बाकी है.

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अंटार्कटिका में 6 महीने दिन और 6 महीने रात होती है. वहां सूरज के साथ चांद भी दिखता है. आप सोचते होंगे कि अंटार्कटिका में आखिर इतनी बर्फ आई कहां से. दरअसल यह हिमयुग की देन है. हिमयुग के इंसान हिमयुग में भी इंसान थे, इस का बहुत बड़ा खुलासा हुआ है. कनाडा के वैज्ञानिकों ने एक पहाड़ की खुदाई में कुछ मानव पदचिह्न देखे हैं. ऐसा अनुमान है कि वे पदचिह्न मानव के ही हैं. पदचिह्नों के आकार से ऐसा प्रतीत होता है कि वे इंसान छोटेमोटे नहीं थे बल्कि विशालकाय थे. कुछ लोग कहते हैं कि वे अभी भी हैं लेकिन हमारे सामने नहीं आते.

कई बार उन के अस्तित्व को ले कर सवाल उठाए गए हैं लेकिन जवाब आज तक नहीं मिला. हिमयुग आया कैसे उथलपुथल से बना यह ब्रह्मांड हमेशा हमें परेशान करता रहा है. करीब 2040 अरब वर्ष पहले जब औक्सीजन बनने की शुरुआत हुई तब हमारी धरती औक्सीजन की आदी नहीं थी. उस समय हमारी पृथ्वी काफी गरम थी. धीरेधीरे औक्सीजन की मात्रा बढ़ती गई, तो धरती का वातावरण औक्सीजन से भर गया. इस के बाद धरती पर कार्बन डाइऔक्साइड की मात्रा नाममात्र की रह गई, जिस से ग्रीन हाउस इफैक्ट कम होने लगा.

बढ़ती औक्सीजन की वजह से धरती का तापमान लगातार गिरने लगा. गिरते तापमान से नदियां और समुद्र का पानी जमने लगा. सूरज की रोशनी भी परावर्तित हो कर वापस जाने लगी. इस तरह पृथ्वी ठंडी होती चली गई. फिर हमारा यह नीला ग्रह बर्फ की सफेद चादर से ढक गया. चारों तरफ बर्फ ही बर्फ दिखाई देने लगी और फिर हिमयुग का दौर शुरू हो गया. जीवन की शुरुआत अरबों सालों तक धरती जमी रही. इस के बावजूद मुट्ठीभर जीव धरती पर जिंदा थे.

इस का कारण था, धरती पर ज्वालामुखी समयसमय पर फट पड़ते थे. बेशक उस वक्त धरती जमी हुई थी लेकिन ठंड के उस दौर में भी जीवन बचा रहा. अरबों सालों के दौर में ज्वालामुखी फटते रहे और कार्बन डाइऔक्साइड बढ़ती रही. धीरेधीरे ग्रीन हाउस इफैक्ट बढ़ने लगा और वायुमंडल गरम होने लगा. इस कारण बर्फ पिघलने लगी व नदियां बहने लगीं. अरबों सालों से चल रहा ठंड का दौर बदलने लगा.

जिंदा बचे जीवों ने अब एक नई दुनिया में कदम रखा. जीवन के नए अवसर पैदा होने लगे. अब वे इस नए वातावरण में खुली सांस लेने लगे और नया जीवन जीने लगे. सोलर मिनिमम युग हम चाहे तरक्की कितनी भी कर लें लेकिन हमारा वजूद प्रकृति के सामने शून्य मात्र है. आज हम एक ऐसे वायरस से लड़ रहे हैं जिस का कोई अंत नजर नहीं आता.

वहीं हमारा सूरज ठंडा होता जा रहा है, यानी सोलर मिनिमम का दौर चल रहा है. सोलर मिनिमम की वजह से पूरी दुनिया एक ऐसे हिमयुग की तरफ जाती लग रही है कि जब धरती पर भीषण ठंड व सूखा पड़ने के साथ खतरनाक भूकंप आ सकते हैं. बस, आप यह समझ लें कि नया हिमयुग दस्तक दे चुका है. सो, हमें इस से निबटने की तैयारी कर लेनी चाहिए.

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