नास्तिकता की ओर बढ़ रही है दुनिया

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मैं नास्तिक क्यों हूं

वीर क्रान्तिकारी शहीद भगत सिंह ने अपनी मौत से पहले लाहौर सेंट्रल जेल में कैद के दौरान एक लेख लिखा था - ‘मैं नास्तिक क्यों हूं. इस लेख का प्रथम प्रकाशन लाहौर से छपने वाले अखबार ‘दि पीपल’ में 27 सितम्बर 1931 में हुआ था. यह लेख भगत सिंह के द्वारा लिखित साहित्य के सर्वाधिक चर्चित और प्रभावशाली हिस्सों में गिना जाता है और बाद में इसका कई बार प्रकाशन हुआ. इस लेख में भगत सिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और इस संसार के निर्माण, मनुष्य के जन्म, मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता, उसके शोषण, दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है.

उन्होंने मनुष्य द्वारा ईश्वर की परिकल्पना के सम्बन्ध में लिखा है- ‘विश्वास’ कष्टों को हलका कर देता है. यहां तक कि उन्हें सुखकर बना सकता है. ईश्वर में मनुष्य को अत्यधिक सान्त्वना देने वाला एक आधार मिल सकता है. उसके बिना मनुष्य को अपने ऊपर निर्भर करना पड़ता है. तूफान और झंझावात के बीच अपने पांवों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है.

प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं

उन्होंने लिखा - ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू पुनर्जन्म होने पर राजा होने की आशा कर सकता है. एक मुसलमान या ईसाई स्वर्ग में व्याप्त समृद्धि के आनन्द की तथा अपने कष्टों और बलिदान के लिए पुरस्कार की कल्पना कर सकता है. किन्तु मैं क्या आशा करूं? मैं जानता हूं कि जिस क्षण रस्सी का फन्दा मेरी गर्दन पर लगेगा और मेरे पैरों के नीचे से तख़्ता हटेगा, वह पूर्ण विराम होगा. वह अन्तिम क्षण होगा. मैं या मेरी आत्मा सब वहीं समाप्त हो जाएगी. आगे कुछ न रहेगा. एक छोटी सी जूझती हुई जिन्दगी, जिसकी कोई ऐसी गौरवशाली परिणति नहीं है, अपने में स्वयं एक पुरस्कार होगी. यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो. बिना किसी स्वार्थ के यहां या यहां के बाद पुरस्कार की इच्छा के बिना, मैंने अनासक्त भाव से अपने जीवन को स्वतन्त्रता के ध्येय पर समर्पित कर दिया है, क्योंकि मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था. जिस दिन हमें इस मनोवृत्ति के बहुत-से पुरुष और महिलाएं मिल जाएंगे, जो अपने जीवन को मनुष्य की सेवा और पीड़ित मानवता के उद्धार के अतिरिक्त कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, उसी दिन मुक्ति के युग का शुभारम्भ होगा.

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