गांव की कच्ची सड़क पर अकेली चलतीचलती सपना के पैर अचानक रुक गए. उस ने पीछे गांव की ओर जाती टेढ़ीमेढ़ी, ऊबड़खाबड़ सड़क की ओर पलट कर एक नजर भर देखा और मन में एक दृढ़ निश्चय के साथ आगे शहर को जोड़ने वाली उस पक्की सड़क की ओर अपने कदम बढ़ा दिए.

गांव की वह पगडंडीनुमा ऊबड़खाबड़ सड़क आगे जा कर शहर की ओर जाने वाली उस पक्की चौड़ी सड़क में विलीन हो जाती थी. गांव की उस कच्ची सड़क की सीमा पर शहर की ओर जाने वाली पक्की सड़क के ठीक किनारे ईंटसीमेंट से बनी एक छोटी सी पुलिया थी, जो कि  जर्जर अवस्था में थी और जिस का एकमात्र उपयोग बस के लिए प्रतीक्षारत यात्रियों के बैठने के रूप में होता था और जहां शहर की ओर जाने वाली तमाम बसें कुछ मिनट के लिए आ कर रुका करती थीं.

सपना जब उस पुल तक पहुंची, तो सूर्योदय हो चुका था. तकरीबन 1 घंटे से वह उस पुल पर बैठी बस की प्रतीक्षा कर रही थी. सुबह का हलकामीठा लालिमायुक्त प्रकाश अब आहिस्ताआहिस्ता तेज प्रखर रूप धारण कर चुका था. सामने सड़क के दूसरी ओर घने पेड़ों के झुरमुट के बीच से हो कर सूरज की झिलमिलाती तेज किरणें उस के चेहरे के साथ अठखेलियां कर रही थीं, किंतु वह किसी गहरे सोचविचार में डूबी हुई थी.  उस के कानों में रहरह कर उस के बाबू का वह स्वर गूंज उठता था, ’’मुझे तो अब इस लड़की का भी भरोसा नहीं.’’

"सपना... अरे ओ सपना, कहां मर गई छोरी... घंटेभर से आवाज लगा रही हूं तुझे. देख, तेरे बाबू के आने का टैम (टाइम) हो गया है. बित्तर (भीतर) बैठीबैठी ना जाने क्या कर रही है छोरी?‘’

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