हक न मांगें बेटियां!

पिता की संपत्ति में बेटियों का हक

क्या कहता है कानून

साल 2005 में संशोधन होने के पहले हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के तहत प्रौपर्टी में बेटे और बेटियों के अधिकार अलग-अलग हुआ करते थे. इसमें बेटों को पिता की संपत्ति पर पूरा हक दिया जाता था, जबकि बेटियों का सिर्फ शादी होने तक ही इस पर अधिकार रहता था. विवाह के बाद बेटी को पति के परिवार का हिस्सा माना जाता था.

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 में शादीशुदा बेटियों का अब उनके पिता की संपत्ति पर अधिकार हैं.
9 सितंबर 2005 को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005, जो हिंदुओं के बीच संपत्ति का बंटवारा करता है, में संशोधन कर दिया गया. हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005 के मुताबिक लड़की चाहे कुंवारी हो या शादीशुदा, वह पिता की संपत्ति में हिस्सेदार मानी जाएगी. इतना ही नहीं उसे पिता की संपत्ति का प्रबंधक भी बनाया जा सकता है. इस संशोधन के तहत बेटियों को वही अधिकार दिए गए, जो पहले बेटों तक सीमित थे. हालांकि बेटियों को इस संशोधन का लाभ तभी मिलेगा, जब उनके पिता का निधन 9 सितंबर 2005 के बाद हुआ हो. इसके अलावा बेटी सहभागीदार तभी बन सकती है, जब पिता और बेटी दोनों 9 सितंबर 2005 को जीवित हों.

मेरी कोई जाति भी नहीं

संशोधन से पहले पैतृक संपत्ति का सांकेतिक बंटवारा पहले पिता और पुत्रों के बीच  होता था और पिता के हिस्से आई संपत्ति का फिर से बराबर बंटवारा पुत्र-पुत्रियों (भाई-बहनों) के बीच होता था.

मान लें कि पिता के तीन पुत्र और दो पुत्रियां हैं और पिता के हिस्से आई पैतृक संपत्ति 100 रुपये की है, तो यह यह माना जाता था कि अगर बंटवारा होता तो पिता और तीन पुत्रों को 25-25 रुपये मिलते. फिर पिता के हिस्से में आये 25 रुपयों का बंटवारा तीनों पुत्रों और दोनों पुत्रियों के बीच पांच-पांच रुपये बराबर बांट दिया जाता. मतलब तीन बेटों को 25+5=30×3=90 रुपये और बेटियों को 5×2=10 रुपये मिलते. संशोधन के बाद पांचों भाई-बहनों को 100÷5=20 रुपये मिलेंगे या मिलने चाहिए. अधिकांश ‘उदार बहनें’ स्वेच्छा से अपना हिस्सा अभी भी नहीं लेतीं.

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