लेखक-रोहित

देश में करोड़ों लोग इस समय बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं. कइयों की घर में भूखे मरने की नौबत आ गई है और कई गहरे अवसाद में जी रहे हैं. बढ़ती बेरोजगारी भारत के लिए बड़ी चिंता का विषय है, यदि इस समय इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो अर्थव्यवस्था का वापस जल्दी पटरी पर आना बेहद मुश्किल होने वाला है. बढ़ती बेरोजगारी भारत में कोई मुद्दा हो, यह बात गुजरीबिसरी सी लगती है. सत्तापक्ष ने कभी इसे मुद्दा माना ही नहीं और विपक्ष ने निष्क्रियता के चलते इसे मुद्दा बनाया भी नहीं. बाकी जनता पर धर्मांधता और अंधराष्ट्रवाद का नशा इतना हावी कर दिया गया कि इस तरह के सवालों से रूबरू होना अपनी देशभक्ति पर संदेह करने जैसा हो गया.

लेकिन बेरोजगारी का दंश कितना भयानक हो सकता है, इसे उत्तर प्रदेश के बरेली जिले से आई दिल दहला देने वाली घटना से सम झा जा सकता है. वहां 3 दिनों तक मासूम बच्चे भूख से तड़पते रहे और उन बच्चों का पिता मनोज फांसी के फंदे पर लटका रहा. जब बच्चों को भूख बरदाश्त न हुई तब उन्होंने पड़ोसियों से मदद में खाना मांगा. पता चला कि मनोज पिछले डेढ़ साल से बेरोजगार था. घर में भारी तंगी थी, नौकरी मिल नहीं रही थी और खाने के लाले थे. यह कोई अकेले मनोज का मामला नहीं. विश्व बैंक के आंकड़ों के आधार पर प्यू रिसर्च सैंटर ने अनुमान लगाया है कि भारत में गरीबों की संख्या महामारी के कारण केवल एक वर्ष में 13.40 करोड़ हो गई है.

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इस का मतलब है कि भारत 45 वर्षों बाद आज फिर ‘सामूहिक गरीबी का देश’ कहलाने की स्थिति में वापस आ गया है. इस का एक बड़ा कारण बड़ी संख्या में नौकरियों का जाना है. 36 वर्षीय नरेंद्र कौशल मूलरूप से आगरा के रहने वाले हैं. नरेंद्र ने तब से दिहाड़ी मजदूरी करनी शुरू कर दी थी जब उन की उम्र महज 14 साल थी और वे 7वीं क्लास में पढ़ रहे थे. उस दौरान उन के पिताजी राजपाल कौशल एक मकान में मजदूरी कर रहे थे. लेकिन वक्त इतना बेरहम हो चला था कि मजदूरी करते हुए उन के पांव में भारीभरकम सिल्ली जा गिरी. सिल्ली के गिरने से एक पैर बुरी तरह जख्मी हो गया, जिस के बाद एक फुट की रौड पैर में डाली गई और फिर वे कभी भारीभरकम काम करने लायक न रहे.

घर में पिताजी एकमात्र कमाऊ व्यक्ति थे. घर का चूल्हा चलना उन दिनों मुश्किल हो गया था. हालत यह कि नरेंद्र को नाबालिग उम्र में अपनी पढ़ाई छोड़ दिहाड़ी मजदूरी करनी पड़ गई. यह बीते दिनों की बात है लेकिन नरेंद्र के जीवन को इसी घटना ने बदल कर रख दिया. आज इतने सालों बाद फिर वक्त ने ऐसा सितम ढाया कि थोड़ीबहुत संभली जिंदगी फिर से बेपटरी हो गई. नरेंद्र दिल्ली के आनंद पर्वत इलाके की 10 नंबर गली में लोहेलंगड़ का काम कर रहे थे. पिछले साल के लौकडाउन के कोड़े के निशान नरेंद्र के शरीर से मिटे नहीं थे कि इस साल दोबारा लौकडाउन लगने से खाल छिल गई सी लगती है. पिछले वर्ष आधे समय फैक्ट्री पर ताला लटका पड़ा था लेकिन नौकरी बची थी. लेकिन इस साल की शुरुआत में उन्हें काम से निकाल दिया गया. इन महीनों में घर की आर्थिक स्थिति बुरी तरह प्रभावित हो गई.

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घर में एकएक निवाला गिना जाने लगा. 3 वक्त की जगह 2 वक्त से गुजारा चलाना पड़ा. सामूहिक गरीबी का देश 2019 में यूनाइटेड नैशन की ग्लोबल मल्टीडायमैंशनल पौवर्टी इंडैक्स (एमपीआई) ने बताया था कि भारत ने 2006 से 2016 के बीच लगभग 27 करोड़ नागरिकों को गरीबी से बाहर निकाला था. लेकिन अगर आज 2020 की स्थिति के साथ इस की तुलना करें तो भारत में सब से अधिक वैश्विक गरीबी वृद्धि हुई है. भारत ने 2011 के बाद से अपने गरीबों की गिनती नहीं की, लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने 2019 में देश में गरीबों की संख्या 36.4 करोड़ या आबादी का 28 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया था. महामारी के कारण सभी अनुमानित नए गरीब अभी इस आंकड़े के अतिरिक्त हैं. साथ ही, जैसा कि अनुमान बताते हैं, शहरी क्षेत्रों में लाखों लोग भी गरीबीरेखा से नीचे खिसक गए हैं.

प्यू सैंटर के अपने अनुमान के मुताबिक, मध्यवर्ग भी एकतिहाई ही सिकुड़ कर रह गया है. कुल मिला कर, लाखों भारतीय या तो गरीब हो गए हैं या गरीब होने की कगार पर हैं. रिपोर्ट की मान कर चलें तो देश में लोगों का कंज्यूमिंग पावर खत्म हो गया है. उन्होंने अपनी बचत पहले ही इलाज में समाप्त कर ली है या वे इसे आपातकाल के लिए बचाए रखना चाहते हैं, जिस से खर्च करने की उन की क्षमता बेहद कम हो गई है. ऐसे में महामंदी का संकट गहराता जा रहा है. नरेंद्र कौशल दिल्ली के नेपाली बस्ती इलाके में ढाई हजार के किराए के कमरे में रह रहे हैं. छोटा सा कमरा है जिस की चारों दीवारें नंगी ईंटों की हैं. ईंटों के बीच सीमेंट में कीलें विश्वगुरु भारत और अच्छे दिन के ताबूत में ठोकी गई सी लग रही थीं. नरेंद्र की 4 बेटियां हैं, जिन्हें पढ़ाने की इच्छा तो वे रखते हैं लेकिन उन का मानना है कि यही हाल रहा तो कैसे पढ़ाईलिखाई पर खर्चा कर पाएंगे. नरेंद्र हाल ही में ऐसे समय से भी गुजरे हैं जब आय नहीं थी और पिता राजपाल कौशिक कोरोना से बुरी तरह ग्रसित हो गए.

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उन की सांसें चढ़ने लगीं, शरीर का तापमान भी बढ़ता रहा. टैस्ट कराया तो कोरोना पौजिटिव पाए गए. वे बताते हैं कि उस समय बेहतर इलाज तो खाक, कहीं सरकारी अस्पताल में जगह तक न मिली. और तो और, जेब में इतना पैसा भी नहीं था कि प्राइवेट अस्पताल में इलाज कराया जाए. ऐसे समय में नरेंद्र ने पिता का इलाज घर में ही कराने की सोची. वे कहते हैं, ‘‘उस समय मेरे पास कोई औप्शन नहीं था. पिताजी की सांस चढ़ रही थी. डाक्टर ने उन्हें कोरोना बताया तो हम घबरा गए. वे सांस नहीं ले पा रहे थे तो जल्दबाजी में नेहरू नगर से सिलैंडर का जुगाड़ किया. सिलैंडर वाले ने 15 हजार रुपए सिक्योरिटी अमाउंट लिया, कई बार हजारहजार रुपए की गैस भरवाई और मैडिकल की दुकान से 3,500 रुपए का औक्सीजन मास्क लिया. उस दौरान हमारा बचाखुचा सारा पैसा चला गया.

और उधारी में भी फंस गए.’’ इस दोहरी मार से नरेंद्र बुरी तरह टूट चुके हैं. एक, बाजार में बिलकुल काम नहीं है, दूसरा, जब काम नहीं है तो हर समय अतिरिक्त खर्चे का बो झ मुंहबाए खड़ा है. नरेंद्र दिहाड़ी में कमाए 400 रुपए दिखाते हुए कहते हैं, ‘‘3 महीने पहले मु झे काम से निकाला गया था. आज इतने दिनों बाद मेरी दूसरी दिहाड़ी लगी है. अब बताओ, इस महंगाई में जहां तेल 170 रुपए लिटर है, दाल 100 रुपए प्रतिकिलो से ऊपर है, दूधचीनीचायपत्ती सब महंगे हैं तो इस से कुछ हो पाएगा?’’ बेरोजगारी की मार सीएमआईई का हालिया डाटा बताता है कि नरेंद्र कौशल की तरह लगभग 2.5 करोड़ लोगों की नौकरी इस साल की शुरुआत जनवरी से मई के महीने में जा चुकी है. डाटा बताता है कि पिछले साल जून महीने में हुई बेरोजगारी की तरह इस वर्ष भी भारत की बेरोजगारी दर डबल डिजिट यानी 11.90 प्रतिशत पहुंच गई है.

इस में 14.73 फीसदी शहरी इलाके और 10.63 फीसदी ग्रामीण इलाके में बेरोजगारी दर आंकी गई है. पूरे 11 महीने बाद फिर से कोरोनाकाल में बेरोजगारी दर इतनी ऊंची उठी है और इसे पिछले साल लगे लौकडाउन के बाद खराब माना जा रहा है. इसी के साथ ही जून के पहले हफ्ते में भी यह इसी तरह जारी रही. 6 जून तक कुल पिछले 30 के औसत के साथ यह 13 प्रतिशत जा पहुंची और लौकडाउन में मिलने वाली छूट के चलते अभी 18 जून तक यह 11.13 प्रतिशत पर है. इस के साथ लेबर पार्टिसिपैंट्स दर, जो पहले ही 40 प्रतिशत तक गिर गई थी, और गिर कर 39.7 प्रतिशत जा पहुंची.

सीएमआईई का डाटा बताता है कि इन में अधिकतर का नुकसान सीधेतौर से लौकडाउन के चलते था. फरवरी में इस में 25 लाख, मार्च में 1 लाख, अप्रैल में 74 लाख और फिर मई में 1 करोड़ 53 लाख की गिरावट आई. अकेले मई 2021 में लगभग 1 करोड़ 70 लाख दैनिक वेतनभोगी मजदूरों और फेरीवालों जैसे छोटे व्यापारियों ने सीधा अपना रोजगार खो दिया था. सीएमआईई के सीईओ महेश व्यास ने अपने लेख में कहा, ‘‘हम स्थानीय लौकडाउन के कारण असंगठित क्षेत्रों में खोई गई अनौपचारिक नौकरियों की त्वरित वसूली की उम्मीद कर सकते हैं, लेकिन लौकडाउन से अलग रोजगार में भी लगातार गिरावट आ रही है. जनवरी 2021 के बाद से कुल गैरकृषि नौकरियों का नुकसान 3 करोड़ 68 लाख है.

इस में से दिहाड़ी मजदूरों की संख्या 2 करोड़ 31 लाख है. वेतनभोगी कर्मचारियों की संख्या 85 लाख है और बाकी उद्यमी हैं. शेष नौकरियों को वापस हासिल करने या 2019-20 के रोजगार के स्तर पर वापस जाने के लिए भारत की अर्थव्यवस्था में एक मजबूत सुधार की आवश्यकता होगी.’’ दुख खत्म नहीं होता 49 वर्षीय शांति वर्ष 2003 से विजय इलास्टिक कंपनी में काम कर रही थी. उस फैक्ट्री में अंडरगारमैंट, स्पोर्ट्स वियर, हैंडबैंड इत्यादि की इलास्टिक तैयार होती थी. विजय इलास्टिक फैक्ट्री का माल बड़ीबड़ी कंपनियों में जाता है. फैक्ट्री में कुल 30 लोग काम कर रहे थे.

जिस में से शांति के अलावा 2 अन्य महिलाएं थीं. शांति को वहां 8 हजार रुपए तनख्वाह मिला करती थी. इस लौकडाउन के चलते देश पर पड़ने वाली मंदी में शांति की नौकरी भी चली गई. 17 साल काम करने के बाद उसे मालिक ने 35 हजार रुपए फाइनल सैटलमैंट राशि दे कर निकाल दिया, जिस से शांति संतुष्ट नहीं. शांति का घर बलजीत नगर की टाली बस्ती में है. यह पूरा मजदूर इलाका है. 2011-12 के बाद इस इलाके के झुग्गीवासियों ने डीडीए के खिलाफ ‘घर बचाओ मोरचा’ के बैनर तले संघर्ष किया जिस में जीत हासिल की थी. हजारों की संख्या में यहां पास के औद्योगिक इलाके, जैसे रामा रोड, इंद्रलोक, आनंद पर्वत, करोल बाग में काम करने वाले मजदूरों ने झुग्गियां बना ली हैं.

लेकिन आवास का हक छीनने वाले ये मजदूर अब नौकरी पाने को मुहताज हैं. शांति के 2 बेटे हैं. बड़ा बेटा फील्ड का काम करता है और महज 9 हजार रुपए वेतन पर काम करता है. वह बीवीबच्चों का भरणपोषण ही कर पाता है. दूसरा बेटा 22 वर्षीय मनीष है जो फिलहाल ग्रेजुएशन के फाइनल में है. शांति के पति होराम (52 वर्षीय) शारीरिक बीमारी से जू झ रहे हैं. 3 साल पहले उन के शरीर को लकवा मार गया था जिस कारण शरीर का एक हिस्सा निष्क्रिय हो गया है. शांति बताती है कि अकेले होराम की दवाइयों का महीना खर्चा 4 हजार रुपए है लेकिन जब से उस की नौकरी गई है तब से इलाज के लिए वह दवा नहीं खरीद पा रही. 6 बाई 5 फुट के कमरेनुमा मकान में 5 लोगों का परिवार रहता है जिस में पिता होराम का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता.

उसी कमरे में शांति ने छोटी सी दुकान खोली है जिस पर अधिकतर समय शांति बैठी रहती है. दुकान से भी घर का खर्चा निकालने लायक कमाई नहीं हो पाती. शांति जिस कमरे में रह रही है उस का किराया 3 हजार रुपए है जिस का पिछले 4 महीनों से भुगतान नहीं किया है. महंगाई ने लोगों की कमर तोड़ दी है. हालत यह है कि शांति बीचबीच में बेलदारी का काम करती है ताकि काम चल सके. शांति कहती है, ‘‘इस समय एक पैसे का काम नहीं और दो पैसे का खर्चा है. राशनपानी सब महंगा है. आदमी अपना पेट भी काटे तो कैसे. भूखे मर जाएगा.’’ ऐसे में शांति उस बड़ी जमात में शामिल हो गई है जिस की नौकरी महामंदी के इस बुरे दौर में गई है. ईएमआई भी अटकी पड़ी है ऐसे ही 36 वर्षीय मुवीन सैफी, ग्रेटर नोएडा, दादरी में रहते हैं.

दिल्ली से होते उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर, अलीगढ़, बरेली, उन्नाव वाला रूट इसी जगह से लग कर चलता है. मुवीन ग्रेटर नोएडा स्थित फ्लिपकार्ट के औफिस में औडिट का काम करते थे. उन का वर्क एरिया अल्फा, बीटा, गामा, परीचौक, चार मूर्ति में था. वे कहते हैं, ‘‘कंपनी के साथ मेरा कौन्ट्रैक्ट 30 जुलाई को खत्म होता था. हर साल वह एग्रीमैंट बढ़ भी जाता था लेकिन इस बार कौन्ट्रैक्ट खत्म होने से पहले ही ‘नैगेटिव फीडबैक’ का बहाना दे कर कंपनी से निकाल दिया गया. 6 लोग तो मेरी टीम से निकाले गए. बाकी दिल्ली से कुल 85 लोग निकाले गए.’’ मुवीन कहते हैं, ‘‘नौकरी जाने की वजह से बड़ी समस्याएं आने लगी हैं. ईएमआई रुकी पड़ी हैं. 2018 में मैं ने कार ली थी,

उस की महीनावार किस्त जाती है. इस के अलावा कई और छोटीमोटी ईएमआई हैं. मेरी मिसेज ने बुरे वक्त के लिए 2 कमेटियां डाली थीं, उन्हें भरने में दिक्कत आ रही है.’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘जो गाड़ी ईएमआई पर खरीदी थी वह कोने में पड़ी है. एक तो उस की ईएमआई नहीं भरी जा रही, ऊपर से पैट्रोल के दाम ऐसे हैं कि उस पर कुछ खर्च करना बन नहीं पा रहा. अब 15-20 दिनों में ही कभी जरूरत पर गाड़ी निकालते हैं.’’ मुवीन मूलरूप से जिला बुलंदशहर के सैदपुर गांव से हैं. वे बताते हैं कि उन का गांव आर्मी में शहादत देने के चलते पूरे देश में चर्चित है. कारगिल में इस गांव से शहीद होने वाले कई जवान थे. जाट रैजिमैंट बटालियन इसी गांव से बनी हुई है. वे बताते हैं कि लगभग हर घर से यहां आर्मी में कोई न कोई भरती है जो फख्र की बात है. ऐसे गांव से संबंध रखने वाले मुवीन इस समय घबराए हुए हैं,

कहते हैं, ‘‘घबराहट हो रही है कि अगर जौब नहीं लगी तो परिवार को कैसे पालूंगा. वैसे ही देश का भट्ठा बैठा हुआ है. कहीं भी नौकरी लगना मुश्किल है. जिस काम को मैं 20 हजार रुपए में कर रहा था, कोई नया लड़का आ कर उसे 15 हजार रुपए में करने को तैयार है, इसलिए मुश्किल है अब बहुत.’’ वे आगे कहते हैं, ‘‘सरकार अपनी नाकामी का सारा ठीकरा कोरोना के सिर फोड़ रही है. सच तो यह है कि शुरू से ही सरकार ने अपने वादे पूरे नहीं किए. कहां हैं रोजगार? कहां हैं 2 करोड़ नौकरियां? कहां हैं अच्छे दिन? महंगाई खत्म हो गई क्या?’’ इस साल आई कोरोना की दूसरी लहर की शुरुआत में मुवीन के बड़े भाई अनीस सैफी बुरी तरह बीमार पड़ गए थे. वे बताते हैं कि उस दौरान अस्पताल में जगह नहीं थी और उन्हें ले कर भी नहीं गए क्योंकि लग रहा था जो आदमी अस्पताल जा रहा है वह वापस नहीं आ रहा.

उस समय घर पर ही ट्रीटमैंट कराया. वे कहते हैं, ‘‘मैं उस दौरान घर से 100 किलोमीटर दूर काम पर था, जब पता चला कि भाई की सांसें उखड़ रही हैं, मैं ने काफी लोगों को मदद के लिए फोन किया. लेकिन सबकुछ मुश्किल हो रहा था. काफी कोशिश करने के बाद एक कौन्टैक्ट मिल पाया. उस ने 5 हजार रुपए सिलैंडर की कीमत बताई, जान बचाने के लिए लेना ही था. उस के बाद रात में 3-3 बार सिलैंडर भराने पड़े थे. कई बार ऐसा हुआ कि दादरी से 110 किलोमीटर अपडाउन कर दिल्ली से लाना पड़ा. कई बार 350 किलोमीटर दूर अपडाउन कर के सोनीपत में गैस भरवाई. ऐसे में पैसा तो लग गया लेकिन अच्छी बात यह रही कि भाई की जान बच गई.’’ सब चंगा सी यह सम झना मुश्किल नहीं कि इस समय देश में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा. पढ़ेलिखे वाइट कौलर लोगों के साथसाथ ब्लू कौलर मजदूरों की नौकरियों का भट्ठा बैठा हुआ है. रेहड़ी, पटरी, छोटीमोटी दुकानें चलाने वाले माल उठाने का रिस्क लेने को तैयार नहीं. सरकार की अर्थव्यवस्था को ले कर कोई भी नीति स्पष्ट नहीं दिखाई देती.

वहीं जिस तरह से मौजूदा सरकार की आर्थिक नीतियां रही हैं उस से कोई उम्मीद भी नहीं दिखाई दे रही. जीडीपी ऐतिहासिक रूप से गिरावट में है, लोगों में कोरोना और बेरोजगारी की असुरक्षा को ले कर अवसाद भरा हुआ है. ऐसे समय में जब देश को महामंदी से उबारने के लिए लोगों के हाथों में क्रयशक्ति होना जरूरी है, उस समय नौकरी जाना बुरा संकेत दर्शाता है. वहीं सरकार का इस स्थिति को अस्वीकार करना उस के चरित्र पर सवालिया निशान खड़ा करता है. अर्थव्यवस्था दुरुस्त करने व रोजगार को बढ़ावा देने की जगह लोगों को एक खास तरह की अफीम चटाई जा रही है, जिस में जुमलों, आपसी नफरत, झूठ के अलावा और कुछ नहीं है. खासकर, इस की गिरफ्त में युवाओं का एक खास तबका है जिस ने उंगली तो आधुनिकता की पकड़ी है लेकिन सिर पर पौराणिकता का बो झा लिए घूम रहा है.

यह अफीम इतनी भयानक है कि कोड़ों की मार भी बेअसर हो चली है. जीवन में सबकुछ बरबाद हो चुका है लेकिन मोदी मंत्र ‘सब चंगा सी’ की पौजिटिविटी की पीपरी बजाए हुए है. इस पर ऐतिहासिक 45 साल की सब से अधिक बेरोजगारी कुछ असर नहीं कर पाई है, न ही गिरती जीडीपी इस युवा मन को ठेस पहुंचा पाई है. इस का नशा तो नोटबंदी में घंटों लाइन में लग कर मरते बूढ़े मांबाप की तड़प का एहसास भी नहीं करा पाई, न ही अस्पतालों में औक्सीजन के लिए भटकते परिजनों की चीखपुकारें सुन पाई. यही कारण भी है कि ऐसे समय में जब देश के लोगों को बेहतर सरकार के साथ की जरूरत थी तब लोगों से आत्मनिर्भर होने का मंत्र पढ़वाया जा रहा है.

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