लेखक-भारत भूषण श्रीवास्तव और शैलेंद्र सिंह

शक नहीं कि देश की अधिकांश आबादी आयुर्वेद के भरोसे है क्योंकि यह धर्म का ही एक हिस्सा है ठीक वैसे ही जैसे यज्ञ और हवन जैसे कर्मकांड हैं जो सिर्फ इसलिए किए जाते हैं क्योंकि सदियों से किए जाते रहे हैं. फायदा होता है तो श्रेय भगवान और उस के दलालों को दे दिया जाता है और न हो तो समय को कोसने का सनातनी रिवाज सभी को रटा पड़ा है. यही बाबा का कारोबारी फंडा है जिस ने डर पर दुकान चलाई. जाहिर है, आयुर्वेद एक परंपरा है, विज्ञान नहीं, जिस के अपने पैमाने होते हैं और जिसे दुनिया स्वीकारती है. ऐसा कोई सनातनी धर्मग्रंथ नहीं है जिस में किसी न किसी तरह आयुर्वेद की महिमा न गाई गई हो.

चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और वाग्भट्ट का अष्टांग हृदयम् संग्रह आज भी आयुर्वेद के मानक ग्रंथ माने जाते हैं. अब इन प्राचीन ग्रंथों में है क्या, यह शायद कम लोगों को ही मालूम हो पाएगा क्योंकि ये ग्रंथ श्रुति और स्मृति पर आधारित हैं. जो बात सम?ा नहीं आती वह बड़ी मुनाफेदार कारोबारी धर्म का हवाला दे कर बना लेते हैं. श्रीमद्भगवतगीता और रामायण इस के बेहतर उदाहरण हैं जिन से खरबों का व्यापार होता है.

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प्राकृतिक जड़ीबूटियों के गुणों का शरीर पर प्रभाव पड़ता है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता पर इस विषय को आज के युग में सिरआंखों पर रखेंगे तो वह ऐसा ही होगा कि घोड़े के रथ पर बैठ कर चोट पहुंचाना.

दवाइयां वनस्पतियों के गुणधर्म के आधार पर बनाई जाती हैं, मसलन तुलसी का अर्क जो बड़ा चमत्कारी कहते प्रचारित किया जाता है कि इस से इम्यूनिटी बढ़ती है, सैकड़ों तरह के साध्य और असाध्य रोग भागते हैं इसलिए इस का प्रतिदिन सेवन करना चाहिए. इस पर भी ज्यादा लोग ?ांसे में नहीं आते तो तुलसी की धार्मिक महत्ता का राग आलापा जाने लगता है कि वे तो विष्णु की पत्नी हैं. एलोपैथिक दवाओं में जो भी मिलाया जाता है वह प्रकृति में मिलने वाले पदार्थों से ही आता है और प्राचीन अनुभव हर नई दवा को विकसित करने में इस्तेमाल किया जाता है.

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