ज्ञानविज्ञान और तर्कशक्ति के विकास तथा वैचारिक बहस के केंद्र विश्वविद्यालयों को प्रगतिशीलता की बजाय मेंढकों का कुआं बनाया जा रहा है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालयों में पिछले कुछ समय से पुरानी विचारधारा थोपने की कोशिशों के बीच अब दिल्ली विश्वविद्यालय में इस तरह के प्रयास किए जा रहे हैं.

दिल्ली विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर स्तर के राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम से दलित लेखक कांचा इलैया की 3 किताबों को हटाया जा रहा है. इलैया की 3 पुस्तकें बुद्धा चैलेंज टू ब्राह्मनिस्म, व्हाय आई एम नोट हिंदू और पोस्ट हिंदू इंडिया [रेफरेंस बुक] हैं. इन पुस्तकों को हटाने को ले कर शिक्षक संगठन एकेडेमिक फोर एक्शन एंड डेवलपमेंट विरोध कर रहा है.

एकेडेमिक काउंसिल एवं शैक्षिक मामलों की स्टैंडिंग कमेटी ने अपनी बैठक में इन किताबों को हटाने को ले कर आपत्ति जताई है. कहा गया है कि शैक्षिक मामलों की स्टैंडिंग कमेटी जैसे वैधानिक निकाय को राजनीतिक योग्यता और प्रासंगिकता के आधार पर ऐसे मामलों पर फैसला करना चाहिए. केवल विवादित शीर्षक या लेखक की पुस्तक होने से उसे हटाया नहीं जा सकता.

एकेडेमिक काउंसिल का कहना है कि स्टैंडिंग कमेटी के पास विशेषज्ञों के समूह द्वारा तैयार किए गए पाठ्यक्रम से पुस्तकों को हटाने का कोई अधिकार नहीं है. कांचा इलैया एक प्रतिष्ठित विद्वान और विचारक हैं. उन की दार्शनिक आलोचना को गलत नहीं ठहराया जा सकता.

पिछले समय से केंद्र सरकार विश्वविद्यालयों में संघी विचारधारा थोपने का प्रयास कर रही है. प्रगतिशील माने जाने वाले विश्वविद्यालयों में सरकार द्वारा अपने कुलपति, उपकुलपति नियुक्त कर दिए. यहां धर्म, योगा, आयुर्वेद, गीता, वेद जैसे प्राचीन और अंधविश्वासों को बढावा देने वाले विषय पढ़ाने पर जोर दिया गया. विज्ञान, तर्क संबंधित विषयों को हाशिए पर किया जाने लगा.

इस की वजह से विश्वविद्यालय लड़ाईझगड़े के अड्डे बने दिखने लगे. छात्र और शिक्षक प्रगतिशील और पुरानी विचारधारा में बंट गए.

कांचा इलैया दलित लेखक व विचारक हैं. वह उस्मानिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहे हैं. कुछ समय से उन के लेखन को ले कर कट्टर हिंदूवादियों ने उन पर हमले किए. वह भारतीय जातिव्यवस्था के खिलाफ रहे हैं.
कांचा इलैया की किताब ‘बुद्धा चैलेंज टू ब्राह्मनिस्म’ का सार यह है कि हिंदू धर्म में हमेशा हिंसा के रूप का इस्तेमाल किया गया. हिंदू धर्म में संघर्ष का समाधान केवल हत्या कर के होता है. बहस नहीं है. दुश्मन को खत्म करना है जबकि बुद्ध ने तर्क, बहस और भाषण में विश्वास किया है और इसे ही संघर्ष का हल बताया है.

‘व्हाई आईएम नोट हिंदू’ को भारत समेत कई विदेशी विश्वविद्यालयों में पढाया जा रहा है. कोलंबिया विश्वविद्यालय सहित कई देशों में हिंदू सेना इस पुस्तक का विरोध कर रही है जबकि एलिजा केंट, लुईस मैककेन, लिंडा हेस जैसे विद्वान विचारकों ने इस पुस्तक को हिंदू धर्म पर परिचय के स्तर पर पढ़ने की सिफारिश करते हैं.

ये किताबें दलितों और पिछड़े वर्गों की ज्ञानपद्धति के अनुभवों के बारे में हैं लेकिन इन का विरोध करने वाले लोग भेदभाव वाली पुरानी सामाजिक, सांस्कृतिक व्यवस्था की निरंतरता चाहते हैं.

कांचा इलैया की किताबें हटाए जाने के प्रस्ताव पर वह कहते हैं कि यह एंटी अकादमिक प्रयास है जो संघ- भाजपा के एजेंडे का हिस्सा है ताकि विश्वविद्यालयों में छात्रों को अलगअलग विचारों को न पढाया जाए.
उन के अनुसार किताबों को हटाने की मांग करने वाले शिक्षाविदों का कहना है कि हिंदू धर्म की उन की समझ गलत है और उन की समझ को स्थापित करने के लिए कोई अनुभव डेटा नहीं है. ऐसा कह कर उन्होंने अपनी किताबें पढ़ने की बुनियादी शैक्षणिक नैतिकता नहीं दिखाई है.

कांचा इलैया ने सवाल किया है कि सावरकर की किताब ‘हिंदुत्व, एक हिंदू कौन है?’ और गोलवरकर की पुस्तक ‘बंच औफ थौट्स’ को विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है. क्या इन पुस्तकों का संदर्भ है? क्या इन पुस्तकों में अनुभवजन्य डेटा है?

असल में विश्वविद्यालय ज्ञानविज्ञान, तर्क और विचारधाराओं पर बहस के प्रमुख केंद्र रहे हैं. अगर इन्हें खत्म कर दिया गया तो छात्रों में ज्ञानविज्ञान और तार्किक शक्ति का विकास रुक जाएगा. आज के छात्रों और प्राचीन गुरुकुल के छात्रों में कोई अंतर नहीं रह जाएगा.

विश्वविद्यालय विभिन्न विचारों, अवधारणाओं को पढ़ाने और बहस के लिए हैं. सैंकड़ों विचारों को वहां जानने समझने की शैक्षिक आजादी होनी चाहिए. विश्वविद्यालय धार्मिक संस्थान नहीं हैं जहां केवल धार्मिक विचार सिखाए जाते हैं. जो छात्र सीखना चाहते हैं उन के लिए पढनेसीखने का अधिकार उन की अकादमिक आजादी का हिस्सा है.

कोई भी समाज अलगअलग विचारों को जानने, समझने से ही आगे बढता है. विचारों को दबाने, कुचलने से नुकसान समाज को ही है. आप किसी विचार से सहमत नहीं है तो भले ना हों पर परस्पर विरोधी विचारों का सम्मान जरूरी है तभी समाज, देश आगे बढ सकता है.

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