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‘बाय मां’, ‘बाय आंटी’ के स्वर के साथ रश्मि का स्वर भी उभरा, ‘‘बायबाय बच्चो, मजे करो.’’

लिफ्ट के सरकते ही सीढि़यों में सन्नाटा सा छा गया. फ्लैट का दरवाजा बंद करते ही ऊपर से आती आवाजों का आभास भी बंद हो गया.

‘छत कौन सी बहुत दूर है, दिन में कई बार तो चक्कर लगेंगे,’ सोचती हुई रश्मि गृहस्थी सहेजनेसमेटने में जुट गई. सुबह से ही मुन्नू के कार्यक्रम की वजह से घर तो यों फैला पड़ा था जैसे कोई आंधीअंधड़ गुजरा हो.

घर समेट कर रश्मि सुपर बाजार का चक्कर भी लगा आई. दाल, चावल, मिर्च, मसाले, कुछ फलसब्जियां सब खरीद ली. डेढ़ बजे तक सबकुछ साफ संजो कर जमा भी दिया. इस बीच किसी भी बच्चे ने एक बार भी मुंह न दिखाया तो रश्मि को कुछ खटका सा लगा. दबेपांव वह ऊपर जा पहुंची और चुपके से अंदर झांका.

पिकनिक पार्टी जोरों पर थी. सीडी प्लेयर पर ‘दिल तो पागल...’ पूरे जोरशोर से बज रहा था. कुछ बच्चे गाने की धुन पर खूब जोश में झूम रहे थे. अनुराग कैमरा संभाले फोटोग्राफर बना हुआ था. ज्यादातर बच्चे मुन्नू और विधा को घेर कर बैठे थे. कोई कुछ कह रहा था, कोई कुछ सुन रहा था. कुल मिला कर समां सुहाना था. अपनी उपस्थिति जता कर बच्चों की मौजमस्ती में विघ्न डालना रश्मि को उचित न लगा, वह प्रसन्न, निश्ंिचतमन के साथ वापस उतर आई और टैलीविजन पर ‘आंधी’ फिल्म देखने बैठ गई.

लगभग साढ़े 4 बजे के करीब फोन की घंटी ने फिल्म का तिलिस्म तोड़ा, ‘‘हैलो,’’ दूसरी तरफ दूसरी मंजिल की शेफाली थी. वह अपनी नन्ही सी बेटी विधा के लिए बहुत चिंतित थी.

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