इलाहाबाद में संपन्न हुए महाकुंभ 2013 को प्रबंधन की दृष्टि से भले ही सफल आयोजन कहा जाए पर दोटूक सवाल यही है कि करोड़ों रुपए दांव पर लगा कर आखिर किस को मिला क्या? सच तो यह है कि कुंभ धर्म के धंधेबाजों और मुफ्तखोरों का ठिकाना है, जहां ठगी का खेल खेला जाता है. पढि़़ए बुशरा का लेख.

इलाहाबाद में 14 जनवरी को कड़कड़ाती ठंड के साथ शुरू हुआ महाकुंभ 2013 गरमी की आहट के साथ 10 मार्च को संपन्न हो गया. 55 दिनों तक चला यह कुंभ मेला 2001 में आयोजित महाकुंभ की तुलना में 10 दिन अधिक लंबा चला. इस दौरान इलाहाबाद की जमीन पर करोड़ों लोगों के कदम पड़े, शहर ने सभी का गर्मजोशी के साथ स्वागत किया.

दुनियाभर की नजरें कुंभ में जुटे करोड़ों लोगों के साथसाथ इस आयोजन के लिए की गई व्यवस्था पर भी टिकी रहीं. कुंभ मेला आस्था के केंद्र के साथसाथ बेहतरीन प्रबंधन व आर्थिक गतिविधियों के लिए भी लोगों के आकर्षण का केंद्र बना रहा. कड़ाके की सर्दी के बीच करोड़ों लोगों के रहने, भोजन और सुरक्षा के इतने बड़े पैमाने पर पुख्ता इंतजाम किए गए, जो दुनिया की किसी भी इवैंट कंपनी और प्रबंधन गुरु के लिए अजूबा और शोध का विषय हो सकता है. प्रबंधन गुरुओं और शोध छात्रों ने इस मेले के कई पहलुओं जैसे वित्त, मार्केटिंग, सूचना, संवाद, सामाजिक व आर्थिक स्तर और मानव संसाधन पर शोध किया. छात्रों के लिए यह जमीनी अनुभव था. यही नहीं, हार्वर्ड बिजनैस स्कूल औफ पब्लिक हैल्थ, फैकल्टी औफ आर्ट्स ऐंड साइंसेज, स्कूल औफ डिजाइन, हार्वर्ड बिजनैस स्कूल, मैडिकल स्कूल फैकल्टी के छात्र कुंभ पर शोध करने के लिए विशेष रूप से इलाहाबाद और वाराणसी पहुंचे जिन्होंने कुंभ आयोजन के हर पहलू पर शोध किया. शोध में मुख्य रूप से कुंभ में व्यापार व एक विशाल अस्थायी कुंभनगरी बसाने की प्लानिंग शामिल रही.

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