रामायण में वर्णित दशरथ राज अंधविश्वास, शकुनअपशकुन और विकृत भोगविलास के जिन आचरणों का पुलिंदा है, वही आचरण वर्तमान की राजनीतिक व सामाजिक दशाओं में अनुकरण की शक्ल में परिलक्षित होते दिख रहे हैं. उस दौर के पाखंडी राज को वर्तमान विसंगतियों की कसौटी पर बेबाकी से तौल रहे हैं

रामायण में वर्णित राज की सदियों से प्रशंसा करते हुए हम नहीं थकते, वस्तुत: उस के न्याय और प्रशासन की स्पष्ट और खुल कर अंदर तक चर्चा की जानी चाहिए कि आखिर कैसा था वह राज और कहीं आज का निरंकुश, भ्रष्ट, अविवेकी, भेदभावपूर्ण व निकम्मा राज उसी की प्रेरणा से तो नहीं चल रहा.
शुरुआत युवा राजा दशरथ से करते हैं. राजा शिकार खेलने जाता है. उस के तीर से वृद्ध, अंधे और असहाय मातापिता का अकेला पुत्र श्रवण कुमार मारा जाता है. वृद्ध बेचारे राजा को श्राप दे कर अपने प्राण त्याग देते हैं और राजा शांतिपूर्वक अपने महल में लौट आता है. राजा तीनों की हत्या का दोषी है पर उस को कोई मलाल नहीं, जैसे आज के शासकों को  हजारों की दंगों, दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों पर नहीं होता. वृद्ध बेचारे राजा को श्राप देने के अलावा कर ही क्या सकते थे? लेकिन राजा ने क्या इस का प्रायश्चित्त किया?

कहते हैं पुराने समय में अपने छोटे से छोटे अपराध का प्रायश्चित्त करने के लिए राजा अपनेआप को विभिन्न प्रकार से दंड देते थे. यहां तक कि वे अपने पुत्र या मंत्री को राजभार सौंप कर वन में चले जाते थे. आज भी कितने ही देशों में इस तरह की परंपरा है जब राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बड़ी गलती कर त्यागपत्र दे देते हैं.

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