भारत में युवाओं की आबादी सर्वाधिक होते हुए भी राजनीति में बुजुर्ग और प्रौढ नेताओं का वर्चस्व कायम है. हाल में हुए 5 राज्यों के चुनावों में युवाओं की अपेक्षा ज्यादातर अधिक उम्र के नेता चुन कर आए हैं. राज्यों में गिनेचुने युवा ही विधानसभाओं में पहुंचे हैं.

इन राज्यों में जब मुख्यमंत्री चुनने की बारी आई तो युवाओं की बजाय बुजुर्ग नेताओं को तरजीह दी गई. मध्यप्रदेश में 72 साल के कमलनाथ, राजस्थान में 68 वर्षीय अशोक गहलोत, तेलंगाना में 64 साल के के चंद्रशेखर राव, छत्तीसगढ में 58 वर्षीय भूपेश बघेल और मिजोरम में 74 सा के जोरामथंगा के हाथों बागडोर सौंपी गई.

मध्यप्रदेश के 230 विधानसभा सदस्यों में से 41 से 55 साल के 46 प्रतिशत, 56 से 70 के बीच 35 प्रतिशत उम्र के नेता आए हैं. युवा केवल 17 फीसदी हैं यानी ये 25 से 40 साल के बीच के हैं. इन के अलावा 71 से ऊपर 2 प्रतिशत हैं.

90 सदस्यों वाली छत्तीसगढ विधानसभा में 82 प्रतिशत विधायक प्रौढ और बूढे हैं. इन में 41 से 55 उम्र क नेता 42 प्रतिशत हैं तो 56 से 70 के बीच के 33 प्रतिशत हैं. युवा केवल 18 प्रतिशत ही आए हैं. 71 से अधिक उम्र के 7 प्रतिशत नेता हैं.

तेलंगाना में युवा केवल 4 प्रतिशत ही हैं. सब से ज्यादा 41 से 55 की उम्र के 56 प्रतिशत हैं. 38 प्रतिशत की उम्र 56 से 70 के बीच है. यहां कुल 119 सदस्य हैं. मिजोरम के कुल 40 विधायकों में से 8 युवा हैं जो 25 से 40 के बीच के हैं.

राजस्थान की 200 विधानसभा सीटों में दोनों पार्टियों की ओर से युवा दहाई का आंकड़ा भी पूरा नहीं कर पाए. कांग्रेस और भाजपा दोनों पार्टियों में बुजुर्ग और मध्यम आयु वर्ग के विधायकों का बाहुल्य है. कहने को प्रदेश कांग्रेस का नेतृत्व युवा सचिन पायलट के हाथों में था पर कांग्रेस में वह अधिक से अधिक युवाओं को टिकट ही नहीं दिला पाए.

कांग्रेस ने इस बार केवल 4 युवा छात्र नेताओं को टिकट दिए. एनएसयूआई के प्रदेश अध्यक्ष रहे मुकेश भाकर, लाडनूं से मनीष यादव, शाहपुरा और राजस्थान यूनिवर्सिटी छात्र संघ अध्यक्ष रहे रामनिवास परबतसर से जरूर जीते लेकिन अन्य कई दावेदारों की अनदेखी की गई. जयपुर की सांगानेर विधानसभा से राजस्थान विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष पुष्पेंद्र भारद्वाज को टिकट मिला पर वह हार गए.

भाजपा ने युवाओं को ज्यादा महत्व ही नहीं दिया. भाजपा ने इस बार युवा छात्र नेताओं को टिकट नहीं दिए. एमडीएस यूनविर्सिटी के पूर्व अध्यक्ष विकास चौधरी को किशनगढ से खड़ा किया गया. पार्टी से टिकट के प्रबल युवा दावेदार जीतेंद्र मीणा, अमित शर्मा, महेंद्र शेखावत, अखिलेश पारीक, शंकर गोरा, राजकुमार बिवाल, राजेश मीणा को टिकट ही नहीं दिया गया. ये सब छात्र राजनीति से हुए रहे हैं.

पिछली बार जमींदारा पार्टी की ओर से चुनी गईर्ं सब से कम उम्र की विधायक कामिनी जिंदल इस बार हार गईं.

राजस्थान में 2013 में कुल 14 युवा विधायक आए थे. 2013 के विधानसभा चुनावों में भाजपा की ओर से अनूपगढ से शिमला बावरी, पीलीबंगा से द्रोपदी मेघवाल, जालौर से अमृता मेघवाल विधायक बनी थीं पर इस बार तीनों को टिकट नहीं दिया गया. सागवाड़ा से अनीता कटारा को टिकट काट दिया गया.

दूसरे राज्यों में भी देखें तो आंध्रप्रदेश में चंद्रबाबू नायडु, अरुणाचल प्रदेश में पेमा खांडू, असम में सर्बानंद सोनोवाल, ओडिसा में नवीन पटनायक, उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह, कर्नाटक में सिद्घारमैया, केरल में पिनाराई विजयन, गुजरात में विजय रूपाणी, गोवा मनोहर पर्रीकर, झारखंड रघुवरदास, तमिलनाडु के पलानीस्वामी, पंजाब अमरिंदर सिंह, बिहार नीतीश कुमार, हरियाणा मनोहर लाल खट्टर, हिमाचल प्रदेश जयराम ठाकुर, पश्चिम बंगाल ममता बैनर्जी जैसे मुख्यमंत्री प्रौढ नहीं, बूढों की गिनती में हैं. इन में अधिकतर 60 साल से ऊपर के हैं.

कहने को त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव कुमार देब और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस युवा हैं लेकिन उन की सोच अभी पांच हजार साल पुराने विचारों पर टिकी हुई है. इन्हें आज भी विज्ञान की बजाय प्राचीन धार्मिक मिथकों पर ज्यादा भरोसा है. बातबात में ये नेता अपना धार्मिक ज्ञान जनता को देते रहते हैं. यह किसी से छुपा हुआ नहीं है इसलिए ये दोनों नेता युवा होते हुए भी वृद्घों के विचारों से अलग राय नहीं रखते.

केंद्र सरकार में प्रधानमंत्री और उन का मंत्रिमंडल भी बूढों से भरा हुआ हैं.

देश और राज्यों का नेतृत्व जब इन उम्र के नेताओं के हाथों में है तो नए विचार, नया विकास कहां से आएगा? यह वो पीढी है जो राम का नाम जपने, मंत्र पढने, हवनयज्ञ कराने, ब्राह्मणों को दानदक्षिणा देने, गौ सेवा करने, स्वर्गनरक में विश्वास जैसे धार्मिक पाखंडों के जरिए समस्याओं के समाधान पर भरोसा करती आई है.

देश और राज्यों की तरक्की के लिए यह नेतृत्व अपने राज्यों में तीर्थयात्राएं, हवनयज्ञ, मंदिर दर्शन, धर्मस्थलों का निर्माण, दानदक्षिणा जैसे धार्मिक कर्मकांडों में उलझा रहता हैं. कई राज्यों में तो धार्मिक मंत्री तक बनाए गए हैं.

भारत एक युवा समाज है. 1.25 अरब की आबादी में 60 प्रतिशत से अधिक युवा हैं. दूसरे देशों की अपेक्षा भारत में इन की जनसंख्या सब से अधिक है. इस लिहाज से युवा भारत होते हुए देश में एक भी युवा विधानसभा नहीं है.

राहुल गांधी, ज्योतिरादित्य, सचिन पायलट जैसे युवा कहलाने वाले नेता भी पैतृक विरासत से आए हुए हैं. जो युवा चुन कर आए हैं उन में भी ज्यादातर युवा नेता राजनीतिक परिवारों से जुड़े हुए हैं.

राजनीति में आज ऐसे युवा नेता नहीं जो युवाओं में क्रांति का संचार कर सके इसलिए मतदाताओं को पुराने बूढे और युवा नेताओं में कोई फर्क नजर नहीं आता.

कहने को हर राजनीतिक दल में अपनेअपने युवा विंग हैं. भारतीय युवा कांग्रेस, अखिल भारतीय विद्यार्र्थी परिषद, स्टूडेंट फैडरेशन औफ इंडिया जैसी राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर युवा राजनीतिक शाखाएं काम कर रही हैं.

सवाल यह है कि क्या राजनीतिक नजरिए से हमारे युवा नेताओ के विचार मौजूदा नेताओं से अलग है? जवाब है नहीं. हमारे युवा नेताओं के विचार किसी भी तरह से नए, क्रांतिकारी और बदलाव के वाहक नहीं हैं. युवाओं को परिवर्तन, क्रांति की राजनीति की उम्मीद है पर वह उस पर उतरते दिखाईर् नहीं देते.

युवा राजनीति से इसलिए उदासीन हैं और राजनीति की बजाय वह दूसरे क्षेत्रों में अपना भविष्य अधिक चमकीला समझते हैं.

युवा नेता राजनीति में किसी भी लिहाज से अलग नहीं हैं. वे पुरानी पीढी के नेताओं से अलग विचार नहीं रखते. वे न तो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते सुनाईर् पड़ते, न नशाखोरी और न ही सामाजिक बुराइयों के खिलाफ. ऐसे युवा नेता नहीं आ रहे जो खुल कर धर्म, जातिवादी राजनीति का विरोध पर सड़कों पर उतरते हों. जो युवा राजनीति में आ रहे हैं यह मौजूद हैं, वे ज्यादातर पारिवारिक राजनीतिक विरासत को जारी रखने और शासन व सत्ता का सुख भोगने के लिए हैं.

यही वजह है कि देश के युवा राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में युवा पुराने विचारों से हांके जा रहे हैं. मंदिर निर्माण, रथयात्राओं के पीछे, गौ रक्षा की गुहार लगाते हुए हिंसा पर उतारू दिखाईर् दे रहे हैं. हिंदुत्व संस्कृति के पहरेदार बने हुए हैं.

दरअसल भारतीय राजनीति लकीर की फकीर बने रहना चाहती है. यह यों ही नहीं है. भाजपा में संघ नहीं चाहता कि ऐसे नए युवा आगे आए जो जाति, धर्म की प्राचीन व्यवस्था को नकारे और पुराणों के मिथकों की जगह विज्ञान की सचाई को वरीयता दे. संघ हिंदुत्व की राह पर चलने वाले युवाओं को ही परख कर राजनीति में आगे बढाती है. पौराणिक कथाओं को विज्ञान के आविष्कारों से जोड़ बताने वाले त्रिपुरा के मुख्यमंत्री बिप्लव कुमार और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस युवा राजनीति की संघीभाजपाई मिसाल हैं.

उधर कांग्रेस भी इस मामले में भाजपा की ही बहन है. वह भी पार्टी में संस्कारी ब्राह्मणवादी युवाओं को ही आगे लाती है. दोनों ही पार्टियों में युवा चाहे किसी भी जाति को हो, तिलक लगाए, बातबात में धर्म, ईश्वर, अवतारों के किस्से जुबान पर रखे. हिंदू संस्कृति, संस्कारों का जप करता हो.

राजनीति में प्रगतिशील, परिवर्तनकारी विचारों के अगुआ कन्हैया कुमार, हार्दिक पटेल, जिग्नेश, चंद्रशेखर रावण जैसे युवा नेताओं को पीछे धकेलने में कांग्रेस और भाजपा पूरी ताकत से मिल कर जुटी नजर आती हैं.

यह इसलिए है क्योंकि युवाओं को शिक्षा, दीक्षा धर्म के बुजुर्ग नेता ही दे रहे हैं. यही वजह है कि राजनीति में पुराने नेताओं का वर्चस्व कायम है.

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