Youth Lifestyle: दुनिया डिजिटल क्रांति के दौर से गुजर रही है. इंटरनैट, स्मार्टफोन और सोशल मीडिया का यूज चरम पर है. युवाओं ने मोबाइल और इंटरनैट को अपना सबकुछ मान लिया है. समस्या सबकुछ मान लेने की नहीं बल्कि सहीगलत में फर्क न ढूंढ़ पाने की है. जैसे, एक चर्चित सोशल मीडिया फौर्मेट है ‘रील्स’ जो छोटीछोटी वीडियो क्लिप होती हैं, कोई 15 सैकंड की तो कोई 60 सैकंड से ले कर 2 मिनट तक की. इंस्टाग्राम, टिकटौक, फेसबुक, स्नैपचैट जैसे प्लेटफौर्म्स पर ये वीडियो युवाओं के बीच इतने भीतर तक घुसे हुए हैं कि प्रतिदिन करोड़ों घंटे इन्हीं पर खर्च हो रहे हैं.

बेशक, रील्स का कंटैंट एंटरटेनिंग होता है, जो तुरंत मजा देता है लेकिन इस के बढ़ते कन्ज्यूम से यूथ के मैंटल हैल्थ, कंसनट्रेशन और लर्निंग प्रोसैस पर गंभीर संदेह उठ खड़ा हुआ है. सोशल मीडिया विशेषज्ञों, न्यूरोसाइंटिस्टों और मनोवैज्ञानिकों द्वारा रील्स से यूथ पर पड़ने वाले असर पर अध्ययन किए गए हैं खासकर रील्स से पड़ने वाले कंसनट्रेशन पावर पर.

कंसनट्रेशन का मतलब मैंटल रिसोर्स को किसी एक्टिविटी या चीज पर केंद्रित करना, जबकि गैरजरूरी या चीजों को नजरअंदाज करना. इंगलैंड के मनोवैज्ञानिक जेम्स मार्टिन डमविल के अनुसार, कंसनट्रेशन को ‘फोकल पौइंट औफ कांशियसनैस’ बताया गया है, जबकि रोज के अनुसार, यह किसी वस्तु या विचार को स्पष्टता और निरंतरता के साथ सम झने की क्षमता है. आज के समय में डिजिटल मीडिया की हर किसी के जीवन में घुसपैठ के चलते हरेक के लिए कंसनट्रेशन बनाए रखना एक चुनौती बन गया है.

कंसनट्रेशन कम होने का मतलब है जरूरी कामों में डैडिकेशन, स्ट्रौंग मैमोरी व लर्निंग कल्चर का कमजोर पड़ना. जब पढ़ने वाले युवा अपनी पढ़ाई या किसी भी काम में असफल होते हैं तो अकसर इस का कारण न्यूरोसाइंटिफिक रूप से कंसनट्रेशन का कमजोर पड़ना होता है और इसी कंसनट्रेशन को कमजोर आज के समय में ये रील्स कर रही हैं जो न तो कैरियर के डिसीजन लेने दे रही हैं न फैमिली के डिसीजन.

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