सरकार मनमानी पर उतारू है और आम लोग उस के आगे बेबस हैं. मोटर व्हीकल एक्ट में जुर्माने की अनापशनाप राशि से हादसे रुकने की गारंटी नहीं. लेकिन, देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था की पोल जरूर खुल गई है. लोग दरअसल इसी को ले कर सहमे हुए हैं और नए नियमों का मजाक बना कर अपनी भड़ास भी निकाल रहे हैं.

तानाशाही का दौर गुजर जाने के अरसे बाद लोग क्यों उस की तारीफ करने लगते हैं या आंशिक रूप से उस से सहमत क्यों होने लगते हैं, इस मानसिकता पर शोध की गुंजाइशें मौजूद हैं. लेकिन, सच यह भी है कि जब तानाशाही चल रही होती है तब इस का तात्कालिक विरोध करने की हिम्मत जनता में नहीं होती, फिर चाहे जमाना राजशाही का रहा हो या लोकतंत्र का. विरोध की हिम्मत एक मुद्दत बाद ही आती है.

साल 1933 में जरमनी में हिटलर के नेत़त्व वाली नाजी सरकार ने एक अजीब सा फैसला लिया था कि नसबंदी के लिए एक मुहिम चलाई जाएगी. जरमनी तब कतई जनसंख्या के दबाव से कराह नहीं रहा था. यह तो हिटलर की सनक थी कि वह ऐसा इसलिए कर रहा था कि वंशानुगत बीमारियां अगली पीढ़ी में न फैलें. तब तकरीबन 4 लाख ऐसे जरमनियों की जबरिया नसबंदी कर दी गई थी जो किसी आनुवंशिक रोग की चपेट में थे.

यह वह दौर था जब आनुवंशिकी यानी जेनेटिक्स में रोज नएनए प्रयोग हो रहे थे और काफी वैज्ञानिक पादरी भी हुआ करते थे. हिटलर को यह गलत कहीं से नहीं लगा था कि अगर ऐसी बीमारियों पर काबू पा लिया जाए जो पीढ़ीदरपीढ़ी फैलती हैं तो जरमनी एक स्वस्थ देश होगा और नई नस्लें वंशानुगत रोगों से मुक्त होंगी. इस तरह जरमनी सब से बेहतर इंसानी नस्ल वाला देश बन जाएगा.

यह और बात है कि ऐसा कुछ हुआ नहीं. इसलिए नहीं कि हिटलर की तानाशाह कोशिशों में कोई कमी थी, बल्कि इसलिए कि जेनेटिक्स कोई प्रजा नहीं होती जो किसी तानाशाह के डर से अपना स्वभाव बदल ले. वंशानुगत बीमारियां अब भी बढ़ रही हैं. आज भी वैज्ञानिक नएनए शोध कर रहे हैं लेकिन वे जींस या डीएनए की प्रकृति और प्रवृत्ति को उस परिकल्पना में नहीं ढाल पा रहे जिस से रोगों और बीमारियों को जीता जा सके.

अब यह कहना कि हिटलर गलत क्या कर रहा था, हैरानी पैदा करने वाली बात है, यानी इस से सहमत लोग इस बात से भी इत्तफाक रखते हैं कि हिटलर अगर अपने मकसद में कामयाब हो जाता तो देश कई असाध्य बीमारियों, जिन में मानसिक ज्यादा हैं, से मुक्त होता.

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ऐसा ही दूसरा प्रसंग भारत का है. 25 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजैंसी लगाई थी तो इस की अपनी अलग व्यक्तिगत व राजनीतिक वजहें थीं. लेकिन उन के छोटे बेटे संजय गांधी के हुक्म पर देशभर में तकरीबन 62 लाख लोगों की जबरिया नसबंदी कर दी गई थी. हाल यह था कि सरकार के आदेश पर डाक्टरों ने घरों में घुसघुस कर नसबंदियां कीं. यहां तक कि बसअड्डों और रेलवे स्टेशनों पर भी नसबंदियां किया जाना आम बात थी. नाबालिगों से ले कर 70-75 साल के बूढ़ों तक की नसबंदी जबरिया की गई थी.

हालांकि, आपातकाल और नसबंदी का कोई सीधा संबंध नहीं था लेकिन अभी भी वह दौर नसबंदी के लिए ज्यादा याद किया जाता है. नागरिक अधिकारों के हनन और मीडिया पर अंकुश लगाने की बात प्रसंगवश होती है. महत्त्वाकांक्षी संजय गांधी क्यों नसबंदी की मुहिम चला बैठे थे जबकि यह न भी होती तो उन का कुछ बिगड़ने वाला नहीं था. इस पर राजनीतिक समीक्षक और विश्लेषक आज भी यह मानते हैं कि संजय गांधी खुद को राजनीति में एक विशेष शख्सियत के रूप में स्थापित करना चाहते थे ताकि उन्हें दुनियाभर में पहचान व अहमियत मिले.

लेकिन, अब जब भारत जनसंख्या विस्फोट के मुहाने पर खड़ा है, तब लोगों को संजय गांधी की नसबंदी मुहिम याद आती है कि अगर वे कामयाब हो जाते तो आज हालात काबू में होते. इस में कोई शक नहीं कि 70 के दशक में देश पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव था कि वह बढ़ती आबादी को नियंत्रित करे और संजय गांधी को यह बात समझ भी आ गई थी कि अगर लोग इसी दर से बच्चे पैदा करते रहे तो जल्द ही खानेपीने के लाले पड़ जाएंगे.

यही वह दौर था जब सरकार ने कई अभियान समाजहित के छेड़ रखे थे. परिवार नियोजन के अलावा दहेज उन्मूलन, शिक्षा, पर्यावरण और कृषि क्षेत्र में हरित और श्वेत जैसी क्रांतियां इन में प्रमुख थे. सरकार चाहती थी कि उत्पादन बढ़े और देश को अन्न के लिए अमीर देशों का मुहताज न रहना पड़े.

वह दौर भी गुजर गया लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गाहेबगाहे आपातकाल को कोसने का राग अलापते रहते हैं. एक तरह से वे याद दिलाते रहते हैं कि देश एक पार्टी के हाथों में चला गया था जो एक परिवार की बपौती थी. यह बात सिरे से समझ से परे है कि जब आपातकाल और उस में भी जबरिया नसबंदी अगर गलत थी तो क्यों

15 अगस्त को लालकिले से अपने भाषण में उन्हें जनसंख्या नियंत्रण की बात कहनी पड़ी थी. ठीक वैसे ही जैसे आम और बुद्धिजीवी लोग कहते रहते हैं कि संजय गांधी कुछ खास गलत नहीं कर रहे थे. हां, उन का तरीका और उन की तानाशाही गलत थी.

मौजूदा सरकार की नजर में 2 से ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले राष्ट्रद्रोही हो गए हैं यानी सरकार कभी भी जनसंख्या नियंत्रण कानून ला सकती है और यही क्यों, मौजूदा सरकार कभी भी कोई भी कानून बना सकती है क्योंकि उस के पास रिकौर्ड बहुमत है और लोग आंख बंद कर सरकार के हर फैसले से सहमत हो रहे हैं मानो फैसले सरकार नहीं, बल्कि ऊपर वाला ले रहा हो. जनता का एक वर्ग अपने जातीय अहम के लिए सरकार की हर बात को पूरा समर्थन देने को तैयार है.

हिटलर और संजय गांधी को समझ आ गया था कि लोग समझाने से बात नहीं मानते हैं, उन पर न तो सरकार की अपीलों का कोई असर होता और न ही इश्तिहारों का, इसलिए जबरदस्ती करना उन का आखिरी विकल्प था जो उन्होंने की.

जबरदस्ती के बदले मायने

हिटलर, संजय गांधी और नरेंद्र मोदी की तुलना की जाए तो सामने यह आएगा कि मौजूदा भाजपा सरकार किस किस्म की जबरदस्ती कर रही है. ऊपरी तौर पर नोटबंदी, जीएसटी, तीन तलाक और 370 जैसे चर्चित फैसलों के बाद मोटर व्हीकल एक्ट 1988 में संशोधन तानाशाही के दायरे में नहीं आते हैं और न ही सरकार किसी से कोई जबरदस्ती कर रही है.

दावा किया जा सकता है कि यह सरकार भी लोगों और देश का भला चाहती है लेकिन मोटर व्हीकल एक्ट के संशोधित प्रावधानों पर लोग उस के द्वारा पहले लिए गए फैसलों सरीखे सहमत नहीं दिख रहे हैं. लेकिन इतने असहमत भी नहीं हुए हैं कि सड़कों पर आ कर संगठित विरोध या विद्रोह करें. फिर दिक्कत क्या है, इसे बहुत बारीकी से समझा और देखा जाना जरूरी है ताकि यह स्पष्ट हो कि कहीं यह भी जबरदस्ती ही तो नहीं और इस की खूबियां और खामियां क्या हैं.

1 सितंबर, 2019 से लागू प्रावधानों की इकलौती खास बात यह है कि अब हरेक अपराध या गलती पर जुर्माने की राशि बेतहाशा बढ़ा दी गई है (देखें बौक्स).

इस नए कानून के लागू होते ही लोगों ने तरहतरह की व्यंग्यात्मक और मनोरंजक प्रतिक्रियाएं सोशल मीडिया पर देते अपनी भावनाएं और विचार व्यक्त किए. इन में से अधिकांश सरकार और कानून का मखौल उड़ाते हुए थे (देखें बौक्स). इस का एक बड़ा मतलब यह भी निकलता है कि आम लोगों में सरकार के प्रति पहले सा लिहाज नहीं रह गया है और जो उन्हें गलत या ज्यादती लग रही है वे उस का विरोध करने लगे हैं.

लोकतंत्र की बहुत सी खूबियों में से ज्यादा अहम यह है कि इस में शासक तय नहीं करता है कि जनता कैसी होनी चाहिए, बल्कि जनता तय करती है कि शासक कैसा होना चाहिए. हालिया नए कानून के मद्देनजर यह समझना भी बेहद अहम है कि कहीं लोग इस की आड़ ले कर सरकार की छीछालेदर तो नहीं कर रहे. ये वही लोग हैं जो जम्मूकश्मीर से धारा 370 हटाए जाने पर कुछ दिनों पहले सरकार की तरफ से ही तरहतरह की दलीलें दे रहे थे और ताल ठोंक कर यह भी कह रहे थे कि भाजपा को 303 सीटें कबड्डी खेलने को नहीं दी हैं.

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सड़क, सड़क दुर्घटनाओं और नए प्रावधानों से परे लोग, दरअसल, सरकार से असहमति ही जता रहे हैं, क्योंकि सीधा डाका उन की जेब पर पड़ रहा है. विरोध, हालांकि, नोटबंदी के बाद भी हुआ था और इस से ज्यादा हुआ था जिस से भाजपा और नरेंद्र मोदी घबरा उठे थे कि कहीं गुस्साए लोग सड़कों पर न आ जाएं. उस संभावित विद्रोह को रोकने नरेंद्र मोदी को एक सार्वजनिक सभा में लगभग आंसू बहाते कहना पड़ा था कि मुझे 50 दिन का वक्त और दीजिए सब ठीक हो जाएगा.

मंशा यह है

ऐसा लगता नहीं कि लोगों की असल मंशा महज बढ़े हुए जुर्माने के प्रति ही है, बल्कि लगता ऐसा है कि लोग यह मानने लगे हैं कि सरकार अब निरंकुश हो चली है जिस की मनमानी पर यदि अभी प्रतीकात्मक तौर पर भी लगाम नहीं कसी गई तो आने वाले वक्त में सांस लेने पर भी टैक्स लग सकता है. फिर भले ही वह एक पैसा प्रति सांस ही हो.

बिलाशक नए प्रावधान जबरदस्ती थोपे गए हैं और चूंकि वे सीधेसीधे आम लोगों की रोजमर्राई जिंदगी को प्रभावित कर रहे हैं, इसलिए लोगों का गुस्सा सोशल मीडिया पर व्यंग्य की शैली में निकला जो साहित्य की भाषा और परिभाषा में पीड़ा व व्यथा से उपजा माना जाता है.

सड़क लोगों की बुनियादी जरूरत है, जिस से वे बिजली और पानी की तरह कोई समझौता करने की गलती या चूक नहीं कर सकते. अब सरकार के बताए मुताबिक सड़कों पर चलना पड़े और बात न मानने पर बातबात पर जुर्माना भरना पड़े, तो लोगों की तकलीफ स्वाभाविक है. लेकिन यह तकलीफ तकनीकी तौर पर लोगों को यह जताते दी गई है कि तुम लोग अनुशासनहीन, गंवार और असभ्य हो, जो अभी तक सड़कों पर सलीके से वाहन चलाना भी नहीं सीखे हो और सिखाने का इकलौता तरीका जुर्माना है.

सोशल मीडिया, दरअसल, एक डिजिटल सड़क है जिस की प्रतिक्रियाओं को सरकार ज्यादा दिनों तक नजरअंदाज करने की गलती नहीं कर सकती. इसलिए नए प्रावधानों के लागू होने के बाद ही केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी को यह सफाई देने को मजबूर होना पड़ा कि देश में 5 लाख सड़क हादसे हर साल होते हैं जिन में डेढ़ लाख मौतें होती हैं, और इन में 60 फीसदी युवा होते हैं. क्या इन की जान नहीं बचानी चाहिए? लोगों में कानून के प्रति सम्मान और डर नहीं हो, ऐसी स्थिति अच्छी नहीं है. बाद में वे यह भी कहते नजर आए कि जुर्माना वही भरेगा जो नियमकानून तोड़ेगा.

जड़ में पैसा और भ्रष्टाचार

नए संशोधित प्रावधानों ने हैरतअंगेज तरीके से तुरंत अपना असर दिखाया और पुलिस ने कुछ चालान ऐसे भी काटे जो देशभर में चर्चा का विषय बने. गुरुग्राम में एक स्कूटी सवार से 23 हजार रुपए वसूले गए जबकि उस की स्कूटी की कीमत 15 हजार रुपए की भी नहीं थी. इसी तरह भुवनेश्वर में एक औटोरिकशा चालक से जुर्माने के 47,500 रुपए वसूले गए. इन दोनों के पास वांछित कागजात नहीं थे.

निश्चित रूप से ये और इस तरह के लोग गलत हैं लेकिन आम लोगों की इस दलील को नजरअंदाज या खारिज भी नहीं किया जा सकता कि कोई स्कूटी चालक क्यों 23 हजार रुपए का जुर्माना भरेगा, इस से तो बेहतर वह अपनी 15 हजार की स्कूटी पुलिस वालों को देना फायदे का सौदा समझेगा.

एक अंदाजे के मुताबिक, देशभर के 17 करोड़ दोपहिया वाहनों में से 12 करोड़ की हालत ऐसी ही है.जाहिर है लोग चाहते हैं कि गलती पर जुर्माना हो, लेकिन वह इतना अव्यावहारिक नहीं होना चाहिए कि उन पर भार पड़ जाए. सरकार जानबूझ कर उन पर ऐसा ही जुर्माना थोप रही है. दरअसल, इस भारीभरकम जुर्माने में सरकार ने इस बात का ध्यान नहीं दिया है कि देश में प्रतिव्यक्ति औसत आय 10,534 रुपए महीना है. इस को आधार मानें तो एक गलती पर एक झटके में महीनेभर की कमाई सरकार झटक ले जा रही है.

दरअसल, 1 सितंबर को ही 2 और अहम खबरें सामने आई थीं कि सरकार को जीएसटी से होने वाली आमदनी में एक लाख करोड़ रुपए से भी ज्यादा का नुकसान हुआ है और जीडीपी में भारीभरकम गिरावट आ रही है. ऐसे में लोगों की यह आशंका गलत नहीं कही जा सकती कि सरकार की मंशा और मकसद तरहतरह से आम लोगों की जेब से पैसा निकाल कर सरकार चलाना है. बढ़ा हुआ जुर्माना इन में से एक है. इस से पहले भी सरकार कई कदम ऐसे उठा चुकी है जिन में डाका सीधा आम लोगों की जेब पर ही पड़ा था.

रसोई गैस, पैट्रोल, डीजल के बढ़ते दाम, रेलवे टिकट पर और एक टैक्स के अलावा बैंकिंग प्रक्रिया में तो लोगों को तरहतरह से बेवजह का पैसा देना पड़ रहा है. दो टूक कहें तो सरकार आर्थिक मोरचे पर असफल साबित हो चुकी है और अपनी नाकामी ढकने के लिए वह तरहतरह से लोगों की जेब, उन के भले के नाम पर, काट रही है. इस के लिए वह जरूरी दहशत भी लोगों में फैला रही है.

पैसे के बाद फसाद की बड़ी जड़ पुलिस विभाग में पसरा भ्रष्टाचार और खुलेआम घूसखोरी भी है. खासतौर से सड़कों को ले कर तो हालात बेहद बुरे हैं. पुलिस वाले, जिन पर जुर्माना वसूलने की जिम्मेदारी है, हर कहीं कभी भी बैरियर, बैरिकेट्स और चैकिंग पौइंट लगा कर आम लोगों का निकलना मुश्किल कर देते हैं. ये पुलिस वाले जुर्माना कम वसूलते हैं, घूस ज्यादा खाते हैं.

ऐसे में लोगों का यह डर जायज है कि उन के जुर्माने का पैसा सरकारी खजाने तक पहुंचेगा ही नहीं. और सरकार इस बात की गारंटी भी नहीं ले रही. इसीलिए एक पोस्ट यह भी खूब वायरल हुई कि सरकार ने टै्रफिक चालान के बहाने पुलिस विभाग के लिए आठवें वेतनमान की व्यवस्था कर दी है. सरकार आम लोगों को तो अनुशासन में रहने और नियमों का पालन करने को जुर्माने के जरिए बाध्य कर रही है लेकिन गलेगले तक भ्रष्टाचार और घूसखोरी में डूबे पुलिस विभाग पर चुप्पी साधे हुए है.

यह हर किसी का रोजमर्राई तजरबा है कि पुलिस वाले लाइसैंस, रजिस्ट्रेशन और परमिट, बीमा वगैरह न होने पर लोगों से 100-200 रुपए ले कर उन्हें जाने देते हैं, ठीक वैसे ही जैसे ट्रेन में टीटीई हजारपांच सौ रुपए में बर्थ बेच देता है. इतना ही नहीं, पुलिस वाले तो सरेआम लोगों से बदतमीजी, मारपीट और गालीगलौज भी करते हैं. ऐसा वे इसलिए नहीं करते कि उन्हें लोगों की जानमाल की चिंता और उन से कानून का पालन कराने की ड्यूटी पूरी करनी होती है, बल्कि इसलिए करते हैं कि ज्यादा से ज्यादा घूस वसूल कर अपना घर भरा जा सके. ऐसी कई पोस्टें भी सोशल मीडिया पर आएदिन वायरल होती रहती हैं.

यानी सरकार की नजर में लोगों का स्वाभिमान और आत्मसम्मान कोई माने नहीं रखता. फिर क्या खा कर वह लोगों की जान की हिफाजत का वास्ता दे रही है. उस की बात किसी के गले नहीं उतर रही. और लोग यह बात भी हजम नहीं कर पा रहे कि ज्यादा जुर्माना भर देने से सड़क हादसों में कमी आएगी.

इन दलीलों में भी है दम

1 सितंबर को जैसे ही लोगों को नए प्रावधान के ये नुकसान समझ आए तो उन्होंने सीधेसीधे सड़कों की बदहाली पर सवाल उठाए, खराब पड़े ट्रैफिक सिग्नल्स का रोना रोया, ट्रैफिक जाम का हवाला दिया. गड्ढों के बारे में बताया, अतिक्रमण को भी बयां किया. लेकिन सरकार है कि यह मानने को तैयार ही नहीं कि सड़क दुर्घटनाएं इन वजहों से भी होती हैं. उस ने तो सीधेसीधे लोगों को जिम्मेदार ठहरा कर पल्ला झाड़ लिया.

पिछले 5 दशकों से खराब और बदहाल सड़कें हमेशा ही चुनावी मुद्दा रही हैं. राजनीतिक पार्टियां सड़कें सुधारने का वादा कर के सत्ता में आती हैं और फिर भूल जाती हैं. कभी बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव ने सड़कों को हेमामालिनी के गालों की तरह चमका देने का वादा कर सत्ता हथियाई थी, तो साल 2003 के चुनाव में मध्य प्रदेश में भाजपा ने कांग्रेसी राज में सड़कों की दुर्दशा को मुद्दा बनाया था. लेकिन इन दोनों सहित तमाम राज्यों में सड़कों की बदहाली आज भी ज्यों की त्यों है.

हर कोई जानता है कि हाइवे पर सड़क हादसे ज्यादा होते हैं और शराब इस की बड़ी वजह है, लेकिन, इन्हीं राजमार्गों पर जगहजगह शराब के ठेके, ढाबे और लाइसैंसशुदा बार शान से चल रहे हैं. इन राजमार्गों पर दूरदूर तक कोई अस्पताल, डिस्पैंसरी या डाक्टर तो दूर की बात है, मरहमपट्टी कराने को कोई कंपाउंडर भी नहीं मिलता. शराबखोरी को बढ़ावा दे कर शराबी ड्राइवरों पर जुर्माना लगाना कौन सी तुक की बात है, इस का कोई जवाब किसी सरकार के पास नहीं. सरकारों को तो बस राजस्व से मतलब है, फिर चाहे वह मरने की शर्त पर हो या जिंदा रहने की मजबूरी में.

ऐसी कई ठोस दलीलें हैं जो सरकार और उस की मंशा को कठघरे में खड़ी करती हैं जिन का मकसद और मंशा यह है कि हमारा गिरेहबान पकड़ कर जेब से तो पैसा निकाल लिया जाएगा, लेकिन अपनी जिम्मेदारियां सरकार कब पूरी करेगी. हम ने भाजपा को 303 सीटें लूटखसोट करने को नहीं दीं थीं.

इस में कोई शक नहीं कि लगभग 60 फीसदी सड़क हादसे चालकों की गलतियों और लापरवाहियों से होते हैं, लेकिन अहम सवाल जो तेजी से पूछा जा रहा है वह यह है कि ज्यादा जुर्माने से क्या इन पर काबू पाया जा सकेगा?

लोगों को जुर्माने के डंडे से अनुशासित करने का टोटका नहीं चल पाया तो सरकार क्या करेगी? जुर्माना कम करेगी या और बढ़ाएगी? संभावना दूसरी बात की ज्यादा है क्योंकि सरकार की मंशा सिर्फ और सिर्फ जानमाल की ओट ले कर पैसा झटकने की है, जिस में वह कामयाब भी होती दिख रही है क्योंकि लोगों का विरोध सोशल मीडिया तक ही सिमट कर रह गया है.

अब लोग लाइसैंस, परमिट और रजिस्ट्रेशन वगैरह के लिए दफ्तरों में लाइन लगाए खड़े हैं. इस से भी सरकार को भारी आमदनी हो रही है.

लेकिन असली बात यह है कि नए कानून के बहाने जनता ने सरकार पर जम कर निशाना साधा जो एक तरह की चेतावनी है कि भविष्य में ऐसी कोई दूसरी ज्यादती की, तो लोग उसे बख्शेंगे नहीं. फिर भले ही सालों बाद उसे यह कहना पड़े कि फैसला गलत कहां से था. गलत तो हैसियत से ज्यादा लगाया गया जुर्माना था. सड़क हादसों में मारे जाने वाले लोग अपनी मौत के जिम्मेदार खुद होते हैं, सरकार का इस में कोई देष नहीं ठीक वैसे ही जैसे हिटलर और संजय गांधी का नसबंदी के मामले में नहीं था.

सरकार की मानसिकता

सरकार की हालत और मानसिकता ब्रिटिश हुकूमत जैसी साफ दिख रही है जो अपने खर्चों के लिए बातबात पर लगान लगा देती थी और लोग घरबार, जमीनजायदाद व गहने तक बेच कर देते थे क्योंकि उन्हें देश में रहना जो होता था. आज भी यही हो रहा है. लोग सड़कों के इस्तेमाल की जरूरत से ज्यादा कीमत चुकाने को मजबूर हैं, तो यह किस्तों में लगते अघोषित आपातकाल को स्वीकार लेने की मजबूरी है. वहीं, भाजपा सरकार किसी भी शर्त पर देश को हिंदू राष्ट्र बनाए, उस की मंजूरी भी है.

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यहां यह बात उल्लेखनीय है कि आपातकाल के दौरान नसबंदी अभियान चलाने का एक मकसद यह भी था कि लोगों का ध्यान इंदिरा गांधी पर चल रहे अदालती मामलों से हट जाए, फिर चाहे देश में दहशत फैले तो फैलती रहे. आज के मोटर व्हीकल एक्ट के संशोधनों का सच क्या है, इस के लिए कुछ साल इंतजार करना पड़ेगा.

फिलहाल तो ड्राइविंग संबंधी दस्तावेज बनवाने, संभालने और उन का नवीनीकरण कराने में व्यस्त लोगों का ध्यान जीएसटी से कम होती कमाई और गिरती जीडीपी से हट गया है.

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