एक इंग्लिश कहावत है– ‘विनिंग इज नौट औलवेज अ विक्ट्री एंड लूजिंग इज नौट औलवेज अ डिफीट’ अर्थात जीत हमेशा विजय नहीं होती और हारना हमेशा पराजय नहीं. 2024 लोकसभा चुनाव परिणाम इस कहावत का यथार्थ रूप है, जहां भाजपा गठबंधन की सरकार के सामने जनता ने एक मजबूत विपक्ष खड़ा कर दिया है. लोकतंत्र में जनता सिर्फ सरकार नहीं चुनती, वह विपक्ष भी चुनती है. इस बार उस ने जैसा मजबूत विपक्ष चुना है उतना मजबूत विपक्ष आजाद भारत के इतिहास में पहले कभी नहीं रहा है. इस मजबूत विपक्ष के चलते तानाशाही का सपना देखने वाले अब दशकों तक संविधान से छेड़छाड़ की जुर्रत और अपनी मनमानी नहीं कर पाएंगे.

सत्ता के सिंहासन पर आसीन व्यक्ति अपने मन की बात कितनी ही कर ले लेकिन जब मतदाता अपने मन की बात सुनाता है तो ‘राजा’ की सारी बातें धरी की धरी रह जाती हैं. इस बार के आम चुनाव में मतदाताओं ने न तो एनडीए की ‘400 पार’ की हुंकार सुनी और न ही इंडिया गठबंधन के बहुमत की पुकार पर कान धरा. उस ने तो भाजपा को बहुमत के आंकड़े से दूर रख कर सहयोगी दलों पर उस को ऐसा निर्भर किया कि सरकार तो बन गई मगर पहले की तरह उस में मनमानी करने का अवगुण नहीं रहा क्योंकि सामने इंडिया गठबंधन जैसा ताकतवर विपक्ष भी खड़ा कर दिया. लोकतंत्र के लिए विपक्ष की मजबूती जरूरी भी है क्योंकि जब एक पक्ष पहलवान हो जाए और दूसरा पक्ष कुपोषित रह जाए तो सामंजस्य नहीं बैठता और मजबूत पक्ष लगातार विपक्ष की आवाज दबाने व अपनी मनमानी पर उतारू रहता है.

देश में इस से पहले कई बार कमजोर सरकारें रही हैं, लेकिन इतना मजबूत विपक्ष कभी नहीं रहा. पहले कई बार विपक्ष में ज्यादा सांसद होते थे लेकिन वे चूंकि एकदूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ कर आते थे, लिहाजा वह साझा विपक्ष नहीं बन पाता था. पहली बार ऐसा हुआ है कि संसद में सत्तारूढ़ गठबंधन 293 सांसदों के साथ एकतरफ है तो दूसरी ओर 204 सांसदों का मजबूत विपक्ष एक मत से खड़ा है. अगर इस में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को भी जोड़ लें तो संख्या 233 हो जाती है. इस से पहले आखिरी बार 1989 में कांग्रेस ने 197 सीटें जीती थीं और लोकसभा में एक मजबूत विपक्ष की मौजूदगी दिखाई दी थी, लेकिन इस बार उस से भी मजबूत विपक्ष जनता ने सत्ताधारी पार्टी के सामने खड़ा कर दिया है. कुछ इस अंदाज में कि अब चलाओ अपनी मरजी, हम देखेंगे कैसे चलाते हो.

गौरतलब है कि पिछले 10 वर्षों में विपक्ष को पूरी तरह से दरकिनार कर के भारतीय जनता पार्टी ने संसद की कार्यवाही चलाई, क्योंकि वह बहुमत में थी. विपक्ष की गैरहाजिरी में अनेक विधेयक पास कराए गए. विपक्ष के सांसदों के निलंबन का इतिहास देश ने पिछले 10 वर्षों में बनते हुए देखा. आश्चर्जनकरूप से विपक्ष के डेढ़ सौ सांसद एक बार में निलंबित कर दिए गए. वे संसद परिसर में महात्मा गांधी की प्रतिमा के सामने रातदिन धरने पर बैठे रहे और सरकार ने उन की तरफ फूटी आंख भी न देखा. संसद के अंदर मनमानी की जो परंपरा स्थापित की जा रही थी उसे रोकने में जनता इस बार सफल हुई है. यह जनता की जीत है जो लोकतंत्र की सब से सुखद जीत के रूप में दर्ज होगी.

लोकतंत्र को केवल विपक्ष की उपस्थिति में ही मापा जा सकता है. म्यांमार में लोकतंत्र की महान योद्धा आंग सान सू की कहती हैं कि विपक्ष को बुरा कहना लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा को न समझ पाना है और विपक्ष को दबाना तो लोकतंत्र की जड़ों को खोदने जैसा है.

लोकतंत्र को मजबूत रखना है तो विपक्ष का कद्दावर होना जरूरी है. इस में कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के 10 वर्षों का कार्यकाल कई उपलब्धियों और धारा 370 हटाने जैसे साहसिक फैसलों से भरा पड़ा है. उन के कार्यकाल में दुनिया के दूरदराज हिस्से तक भारत की हुंकार सुनाई दी है लेकिन उन का कार्यकाल नोटबंदी जैसे कई बेवकूफी भरे फैसलों से भी भरा रहा है. यह कार्यकाल जनता का पैसा अपने उद्योगपति दोस्तों के तिजोरियों में भरने और किसानों, मजदूरों व विरोधियों के दमन की दास्तां भी बयान करता है. मतदाताओं को कहीं न कहीं यह महसूस हो रहा था कि देश में विपक्ष निरंतर कमजोर होता जा रहा है और सत्ता इस का फायदा उठा रही है. सत्ताधारी दल से जुड़े नेताओं ने आरक्षण ख़त्म करने, संविधान बदलने और ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के सपने को साकार करने की कोशिश की तो मतदाताओं के कान खड़े हो गए. लोकतंत्र में किसी पार्टी के समूल नाश के बारे में कोई सोच भी कैसे सकता है? फिर कांग्रेस जैसी पार्टी को समाप्त करने की बात करना जो आजादी के समय से एक वट वृक्ष की तरह खड़ी है, जिस के पत्ते कुछ समय के लिए मुरझा भले जाएं मगर जिस की जड़ें बहुत गहरी हैं. अपना एकछत्र राज कायम करने के लिए भाजपा ने सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, अन्य दलों, जैसे आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और तृणमूल कांग्रेस को नेस्तनाबूद करने के लिए राष्ट्रीय जांच एजेंसियों को जिस तरह हथियार बना रखा था, उस पर जनता की बहुत गहरी नज़र थी.

इस लोकसभा में चूंकि भाजपा बहुमत से दूर होने के कारण गठबंधन के अन्य दलों के सहयोग से सत्ता पर आसीन हुई है इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने चुनौतियां अपने गठबंधन की तरफ से भी कम नहीं हैं. सब से बड़ा सवाल तो यह पैदा हो गया है कि ‘मोदी की गारंटी’ का हुंकार भरने वाले व्यक्ति के लिए क्या अब दूसरे दलों की राय के आगे झुक कर चलना आसान होगा?

हालांकि चंद्रबाबू नायडू, नीतीश कुमार, एकनाथ शिंदे और चिराग पासवान ने पूरे 5 साल भाजपा के साथ बने रहने का वादा किया है लेकिन नायडू और नीतीश राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं. वे मुफ्त में समर्थन नहीं देंगे. अब उन का वक्त आया है तो वसूली भी जरूर करेंगे. इन तेजतर्रार और मौकापरस्त नेताओं की मांगों को मोदी दरकिनार भी नहीं कर पाएंगे क्योंकि पल में पाला बदलने वाले कब सरकार गिरा दें, कह नहीं सकते. और भारतीय मतदाता तोड़फोड़ की इस प्रवृत्ति को पसंद नहीं करता. भविष्य के चुनावों में वह भाजपा को पूरी तरह खारिज भी कर सकता है. भूलना नहीं चाहिए कि महाराष्ट्र में भाजपा की पराजय का बड़ा कारण यह तोड़फोड़ ही रही है. गौरतलब है कि महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में इस साल विधानसभा के चुनाव होने हैं. अगर साझा विपक्ष इन राज्यों में भी लोकसभा चुनाव के नतीजे को दोहराता है तो देशभर के लोगों के बीच विपक्ष की स्थायी एकजुटता का मैसेज जाएगा, जिस से आगे की राजनीति की दिशा तय होगी.

इस बार संसद में ऐसे अनेक विपक्षी नेता हैं जो वाक कौशल में प्रवीण हैं. पहले विपक्ष के नाम पर सिर्फ राहुल गांधी ही नजर आते थे, जो पूरी ताकत से सदन में जनता की बात रखने की कोशिश करते थे, मगर सत्ता के अहंकार में डूबे नेताओं की चीखचिल्लाहटों और छींटाकशी के बीच उन की बात पर स्पीकर भी ज्यादा ध्यान नहीं देता था या देना नहीं चाहता था. नतीजा, विपक्ष को बारबार वौकआउट करना पड़ता था. मगर अब सदन के अंदर विपक्षी नेताओं की बात न सिर्फ ध्यान से सुनने के लिए सत्तादल और स्पीकर बाध्य होंगे, बल्कि यह भी हो सकता है कि वौकआउट करने की बारी अब सत्ता दल के नेताओं की हो.

उत्तर प्रदेश के विधानसभा में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से टक्कर लेने का माद्दा सिर्फ समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव में था. उन्होंने वहां कई बार योगी की बातों पर कटाक्ष किया, विरोध किया और उन को सुना गया. अब अखिलेश यादव देश की संसद में पहुंच गए हैं, वह भी अकेले नहीं बल्कि अपने 37 नेताओं की मजबूत सेना के साथ, जिस में उन की पत्नी और भाई भी शामिल हैं. अब सदन में पत्नी डिम्पल का साथ होगा तो जनता की बात और जोरशोर से उठाएंगे वे.

तृणमूल कांग्रेस के भी 29 नेता इस बार संसद में मौजूद होंगे, जिस में अनेक मजबूत नेता हैं. उन में महुआ मोइत्रा, अभिषेक बनर्जी, आजाद कीर्ति झा, शर्मिला सरकार, अरूप चक्रवर्ती, शत्रुघ्न सिन्हा के सवालों का सामना एनडीए को करना होगा. इन में से कई ऐसे नेता हैं जिन को परेशान करने में भाजपा ने कोई कोरकसर नहीं छोड़ी.

कांग्रेस से राहुल गांधी अब अपने 99 नेताओं के साथ पूरे दमखम से सदन में ताल ठोकेंगे. उज्जवल रमण सिंह और इमरान मसूद जैसे कांग्रेसी नेताओं का साथ उन्हें ताकत देगा. आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद इस बार विपक्ष की एक दमदार आवाज होंगे वहीं औल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलिमीन के राष्ट्रीय अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी के तर्कों की काट ढूंढना एनडीए के लिए आसान नहीं होगा.

विपक्षी पार्टियों और विपक्षी राजनीति दोनों के लिए लोकतंत्र को मजबूत करने का यह बड़ा मौका है. यह बताने की जरूरत नहीं है कि किस बात के लिए मतदाताओं ने विपक्ष को इतनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है. विपक्ष का पूरा प्रचार इस बात पर केंद्रित था कि संविधान की रक्षा करनी है, लोकतंत्र की रक्षा करनी है और आरक्षण बचाना है. आरक्षण को तो खैर अभी कोई खतरा नहीं दिख रहा है लेकिन संविधान और लोकतंत्र के सामने जो प्रत्यक्ष चुनौती है और जिसे पिछले 10 वर्षों में संसद की कार्यवाही के दौरान सब ने देखा है उस से निबटने की जिम्मेदारी मतदाताओं ने विपक्ष को दी है.

पिछले 10 वर्षों में देश ने देखा कि कैसे तमाम संसदीय परंपराओं को ताक पर रख दिया गया और भाजपा ने सिर्फ अपनी मनमरजी चलाई. 17वीं लोकसभा का तो पूरा कार्यकाल बीत गया मगर उपाध्यक्ष की ही नियुक्ति नहीं हुई. संसद की स्थाई समितियों की बैठकें भी न्यूनतम हो गईं. भारत के नियंत्रक व महालेखा परीक्षक यानी सीएजी की ओर से सरकार के कामकाज को ले कर लोक लेखा समिति को जो रिपोर्ट भेजी जाती थी उसे भी न्यूनतम कर दिया गया था, जो रिपोर्ट आती भी थी उस पर या तो चर्चा नहीं होती थी और चर्चा होती थी तो उस में बहुमत के दम पर विपक्ष की आवाज को दबा दिया जाता था.

पहले आमतौर पर सरकार की ओर से लाए गए विधेयक संसदीय समिति में चर्चा के लिए भेजे जाते थे लेकिन बीते 10 वर्षों में गिनेचुने विधेयक ही संसदीय समितियों में भेजे गए. जहां सत्ता पक्ष ने अपने विशाल बहुमत के दम पर विपक्ष की असहमतियों को वहीं दबा दिया और अगर किसी तरह से विपक्ष की असहमति सदन में पहुंच गई तो वहां बहुमत के दम पर उसे खारिज कर दिया गया. अब विपक्ष का दायित्व होगा कि वह सत्ता पर दबाव बना कर पुरानी संसदीय परंपरा को बहाल करे. इस काम में उसे उन पार्टियों की भी मदद मिल सकती है जो सरकार के साथ हैं. तेलुगूदेशम पार्टी और जनता दल यू जैसी पार्टियों को मुद्दों के आधार पर सरकार की मनमानी का विरोध करने में दिक्कत भी नहीं होगी, बशर्ते विपक्ष उन के साथ अच्छा तालमेल बना ले.

पिछले 10 साल इस बात के गवाह रहे हैं कि भाजपा अपने बहुमत के दम पर विपक्ष को खत्म करने या कमजोर करने का काम करती रही है. अब तो लोग इस बात की गिनती भी भूल गए हैं कि भाजपा ने पिछले 10 वर्षों में कितने राज्यों में चुनी हुई सरकारों को गिरा दिया. मतदाता अपनी पसंद की सरकार चुनता और भाजपा ‘औपरेशन लोटस’ चला कर चुनी हुई सरकार को गिरा देती. मगर अब विपक्ष को सुनिश्चित करना होगा कि लोकतंत्र पर इस तरह का हमला न हो.

इसी तरह मोदी सरकार ने केंद्रीय एजेंसियों की मदद से जिस तरह से विपक्षी नेताओं को निशाना बनाया, उस की भी मिसाल नहीं मिलती. पहले भी सरकारें अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग करती थीं लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि चुनौती दे कर विपक्ष को पूरी तरह से खत्म कर देने के लिए इन एजेंसियों का इस्तेमाल किया गया हो.

पिछले 10 वर्षों में जब लोकतंत्र पर इस तरह के हमले हो रहे थे तब विपक्ष इतना कमजोर था कि न तो संसद के अंदर उस की आवाज सुनी जाती थी और न सड़क पर वह आंदोलन कर पाता था. इस बार उस के पास संसद के अंदर और बाहर दोनों जगह भरपूर ताकत है.

भाजपा के 10 वर्षों के शासनकाल में कानून बनाने, कई बिलों को पास करने में कोई लंबीचौड़ी चर्चा नहीं हुई. विपक्ष को सदन से बाहर कर कई कानून बने और कई विधेयक पास हुए. कई बार एकतरफा फैसले लिए गए. लेकिन अब उस से हट कर संसद में एक स्वस्थ वादविवाद और चर्चा होगी. बीते 10 वर्षों में तमाम जांच एजेंसियां अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता खो चुकी हैं. यहां तक कि वे सत्ता पक्ष के सदस्य के रूप में कम करने लगी हैं.

मोदी सरकार ने अपनी पसंद के अधिकारियों को सालोंसाल तक सेवा विस्तार दे कर एक ही पद पर बैठाए रखा, जिस की वजह से उन की प्रतिबद्धता संविधान और संस्था से ज्यादा सरकार के साथ हो गई है. इस गड़बड़ी को दुरुस्त करना भी विपक्ष की जिम्मेदारी होगी. उसे बहुत बारीकी से सरकार के कामकाज पर नजर रखनी होगी, संसद में रोकना होगा और कमियों को जनता के सामने लाना होगा. किसी भी लोकतंत्र के बेहतर तरीके से काम करने के लिए जरूरी है कि उस में असहमति और नाराजगी की गुंजाइश हो और सत्तारूढ़ पार्टी पर निगाह हो. 2024 का लोकसभा चुनाव दुनिया का सब से बड़ा चुनाव रहा, जिस में करीब 64 करोड़ लोगों ने वोट डाला और एक अच्छा जनादेश दिया, जो सभी पार्टियों के लिए एक सबक है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...