सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संवैधानिक बैंच ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति एक पैनल करेगा. इस पैनल में प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता शामिल रहेंगे. इस बात का स्वागत होना चाहिए कि इसके बाद अब चुनाव आयोग की भूमिका पर सवाल उठने बंद हो जाएंगे. इस बात को पुख्ता रूप से नहीं कहा जा सकता. इसका कारण है कि सीबीआई के चीफ की नियुक्ति इसी तरह के पैनल द्वारा की जाती है. इसके बाद भी सीबीआई पर सवाल उठ रहे हैं. चुनाव आयुक्त के चयन को लेकर सुप्रीम कोर्ट की मंशा यह है कि मजबूत और निष्पक्ष चुनाव आयुक्त देश को मिल सके.

चुनाव आयुक्त के रूप में सबसे मजबूत नाम टीएन शेषन का लिया जाता है. टीएन शेषन की नियुक्ति उस समय के प्रधानमंत्री चंद्रशेखर द्वारा की गई थी. चंद्रशेखर की सरकार राजीव गांधी की अगुआई वाली कांग्रेस के समर्थन पर टिकी थी. टीएन शेषन राजीव गांधी सरकार में उनके करीबी अफसर के रूप में काम कर चुके थे. चंद्रशेखर की सरकार बनने के बाद टीएन शेषन को मजबूत पद से हटा कर गैरमहत्त्वपूर्ण पद पर रखा गया था. उनके रिटायरमैंट के दिन करीब थे. वे अब किसी पद पर काम नहीं करना चाहते थे. प्रधानमंत्री चंद्रशेखर उनको चुनाव आयुक्त बनाना चाहते थे. बड़ीमुश्किल से टीएन शेषन इसके लिए तैयार हुए. चुनाव आयुक्त बनने के बाद टीएन शेषन ने जो किया वह इतिहास बन गया.

उदाहरण बन गए टीएन शेषन

टीएन शेषन ने देश के मुख्य चुनाव आयुक्त बनने के बाद दिखा दिया कि चुनाव आयोग दंतविहीन नहीं है. इसके बाद लोगों को यह पता चला कि चुनाव आयोग कितना ताकतवर होता है. उसको कितने अधिकार प्राप्त हैं. मुख्य चुनाव आयुक्त देश में राजनीतिक दलों पर नकेल डालने और साफसुथरा चुनाव कराने की इच्छा रखते थे तो देश का कानून उनको इस बात की इजाजत देता था कि कोई भी बड़ा नेता और प्रभावशाली दल चुनाव आयोग को रोक नहीं सकता.

राजीव गांधी सहित कई बड़े नेताओं से टीएन शेषन के निजी और करीबी संबंध थे. इसके बाद भी कभी ऐसा नहीं हुआ कि टीएन शेषन ने संबंधों के कारण कोई समझौता किया हो. टीएन शेषन के करीबी लोगों में एक बड़ा चर्चित नाम रहा है सुब्रमण्यम स्वामी का. स्वामी और शेषन की दोस्ती कई दशकों पुरानी थी. दोनों जब युवा थे तो दोनों की मुलाकात हार्वर्ड विश्वविद्यालय में हुई थी जहां स्वामी पढ़ाने गए थे और शेषन एक साल के अध्ययन के लिए. जल्द ही गुरु-शिष्य के संबंध बेहद घनिष्ठ हो गए. शेषन अकसर मेजबान की भूमिका निभाते और मेहमान होते स्वामी. दोनों साथ में बैठकर दही, चावल और अचार खाते थे.

भारत लौटने पर स्वामी ने राजनीति का रुख किया और विभिन्न दलों से गुजरते हुए अपने दोस्त प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के मंत्रिमंडल में वाणिज्य मंत्री बने और शेषन भी विभिन्न पदों पर रहते हुए राजीव गांधी के प्रधानमंत्री के कार्यकाल के आखिरी दिनों में कैबिनेट सचिव के पद तक पहुंचे. उस समय के प्रधानमंत्री चंद्रशेखर टीएन शेषन को मुख्य चुनाव आयुक्त बनाना चाहते थे. इस बात का प्रस्ताव लेकर सुब्रमण्यम स्वामी टीएन शेषन के पास गए थे. सुब्रमण्यम स्वामी को लग रहा था कि यह प्रस्ताव सुनकर टीएन शेषन बहुत खुश होंगे. शेषन ने कहा कि यह प्रस्ताव कुछ दिनों पहले कैबिनेट सचिव विनोद पांडे भी लेकर उनके पास आए थे लेकिन उन्होंने पांडे को साफ मना कर दिया था. विनोद पांडे, शेषन के बाद कैबिनेट सचिव बने थे.

सुब्रमण्यम स्वामी चंद्रशेखर सरकार में विधि मंत्री और प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के करीबी लोगों में शामिल थे. इसके साथ ही वे शेषन के भी करीबी दोस्त थे. उस समय शेषन योजना आयोग के सदस्य के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे थे जो एक तरह से शेषन जैसे अधिकारी के लिए कमतर कार्य था. उस समय शेषन के पास सेवानिवृत्त होने में एक माह से भी कम समय बचा था. शेषन दिल्ली छोड़कर अपने गृहप्रदेश लौटने का पूरा मन बना चुके थे. उनकी पत्नी ने मद्रास के सैंटमैरी रोड पर एक घर बना लिया था. किराए पर दिया गया यह मकान शेषन ने खाली करा लिया था और इस मकान में शेषन और उनकी पत्नी की रहने की तैयारी की जा रही थी.

राजीव गांधी की सरकार में कैबिनेट सचिव रहने के बाद उन्हें किसी और पद की लालसा नहीं थी. स्वामी को विदा कर शेषन अपने ड्राइंगरूम में बैठकर प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के भेजे प्रस्ताव पर विचार करने लगे. शेषन ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी से सलाह लेना उचित समझा. शेषन ने राजीव गांधी को बताया कि चंद्रशेखर सरकार उन्हें मुख्य चुनाव आयुक्त बनाना चाहती है. काफी सोचनेसमझने के बाद उन्होंने शेषन को मुख्य चुनाव आयुक्त का पद स्वीकार करने की सलाह दे दी. शेषन ने 2 दिन कुछ और लोगों से सलाह लेने के बाद स्वामी से नियुक्ति का आदेश भेजने के लिए कहा. इसके बाद 12 दिसंबर, 1990 को टीएन शेषन ने मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में अपना काम शुरू किया.

साल 1992 के शुरू से ही शेषन ने सरकारी अफसरों को उनकी गलतियों के लिए लताड़ना शुरू कर दिया था. उन में केंद्र के सचिव और राज्यों के मुख्य सचिव भी शामिल थे. शेषन ने तमाम अफसरों की यह गलतफहमी दूर कर दी कि चुनाव आयोग के अंतर्गत उनका काम एक तरह का स्वैच्छिक काम है जिसे वे चाहे करें या न करें. शेषन ने कहा कि चुनाव आयोग का काम ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. अगस्त1993 में टीएन शेषन ने एक 17 पेज का आदेश जारी किया कि जब तक सरकार चुनाव आयोग की शक्तियों को मान्यता नहीं देती, तब तक देश में कोई भी चुनाव नहीं कराया जाएगा.

शेषन ने अपने आदेश में लिखा, जब तक वर्तमान गतिरोध दूर नहीं होता, जो कि सिर्फ भारत सरकार द्वारा बनाया गया है, चुनाव आयोग अपनेआप को अपने संवैधानिक कर्तव्य निभा पाने में असमर्थ पाता है. उसने तय किया है कि उसके नियंत्रण में होने वाले हर चुनाव, जिनमें राज्यसभा के चुनाव और विधानसभा के उपचुनाव भी शामिल हैं, जिनके कराने की घोषणा की जा चुकी है, आगामी आदेश तक स्थगित रहेंगे. शेषन ने पश्चिम बंगाल की राज्यसभा सीट पर चुनाव नहीं होने दिया जिसकी वजह से केंद्रीय मंत्री प्रणब मुखर्जी को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा. पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु इतने नाराज हुए कि उन्होंने उन्हें ‘पागल कुत्ता’ कह डाला.

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा, हमने पहले कारखानों में ‘लौकआउट’ के बारे में सुना था, लेकिन शेषन ने तो प्रजातंत्र को ही ‘लौकआउट’ कर दिया है. शेषन ने अपना 6 साल का कार्यकाल पूरा किया. उनके बारे में कहा जाता था कि भारतीय राजनेता सिर्फ जिन 2 चीजों से डरते हैं उनमें एक नाम टीएन शेषन का है. शेषन ने अपने कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से लेकर हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल गुलशेर अहमद और बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव किसी को नहीं छोडा. बिहार में पहली बार 4 चरणों में चुनाव करवाया और चारों बार चुनाव की तारीखें बदली गईं. यह बिहार के इतिहास का सबसे लंबा चुनाव था.

टीएन शेषन पर विस्तार से बात करने का कारण यह था कि चुनाव प्रक्रिया कोई हो, अगर चुना गया व्यक्ति ईमानदार और अपने अधिकारों का सही तरह से पालन करने वाला होगा तो वह बिना किसी दबाव के सही काम करेगा. अगर व्यक्ति सही नहीं है तो किसी भी प्रक्रिया से चुन कर आए, वह गड़बड़कर सकता है. टीएन शेषन को चंद्रशेखर सरकार की पंसद के आधार पर चुनाव आयुक्त बनाया गया था लेकिन आयुक्त बनने के बाद उन्होंने दबाव में काम नहीं किया. कांग्रेसी नेताओं को भी कभी नहीं छोड़ा जबकि वे राजीव गांधी के करीबी थे.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बदलेगी तसवीर

सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय संवैधानिक बैंच ने ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा कि मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति एक पैनल करेगा. इस पैनल में प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता शामिल रहेंगे. जस्टिस केएम जोसेफ, जस्टिस अजय रस्तोगी, जस्टिस अनिरुद्ध बोस, जस्टिस हृषिकेश रौय और जस्टिस सीटी रविकुमार की बैंच ने चुनाव आयुक्त अरुण गोयल की नियुक्ति पर अपना फैसला सुनाया.

कोर्ट ने इस बात पर विशेष महत्त्व देते कहा कि चुनाव आयुक्त पद पर उसी व्यक्ति की नियुक्ति को प्राथमिकता देंजो 6 साल तक इस पद पर रह सके. कोर्ट ने कहा कि जब तक संसद देश के चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर कानून नहीं बना लेती है, तब तक कोर्ट के फैसले के तहत ही नियुक्ति की जाएगी.

साल 2015 में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की गई थी. याचिका में कहा गया था कि चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का अधिकार अभी केंद्र के पास है, जो संविधान के अनुच्छेद14 व अनुच्छेद 324 (2) का उल्लंघन करता है. इसी मामले में एक अन्य याचिका भी दाखिल की गई थीजिसमें चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र पैनल बनाने की मांग की गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने 23 अक्टूबर, 2018 को इस संबंध में दाखिल सभी याचिकाओं को क्लब कर दिया था और संवैधानिक बैंच में मामला ट्रांसफर कर दिया था. नवंबर 2022 में इन याचिकाओं पर लगातार सुनवाई हुई थी, जिसके बाद कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था.

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि चुनाव आयोग को कार्यपालिका की अधीनता से अलग करना होगा. कोर्ट ने कहा कि लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता बनाए रखी जानी चाहिए वरना इसके अच्छे परिणाम नहीं होंगे. जस्टिस जोसेफ ने कहा कि वोट की ताकत सुप्रीम है और इससे मजबूत से मजबूत पार्टियां भी सत्ता हार सकती हैं. इसलिए वोट देने के माध्यम चुनाव आयोग को स्वतंत्र होना जरूरी है. कोर्ट ने आगे कहा कि चुनाव आयुक्तों को हटाने का आधार वही होना चाहिए जो मुख्य चुनाव आयुक्त का है.

फैसले का प्रभाव

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का प्रभाव यह होगा कि नियुक्ति में सरकार का हस्तक्षेप कम होगा. चुनाव आयोग में आगे से जो भी नियुक्ति की जाएगी, उसमें पैनल वाला नियम लागू होगा. प्रधानमंत्री के अलावा इसमें विपक्ष के नेता और चीफ जस्टिस शामिल होंगे. इस वजह से अब नई नियुक्तियों में सरकार का हस्तक्षेप कम होगा. अब नई नियुक्तियों में विपक्ष भी भागीदार होगा. आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाना मुश्किल हो जाएगा. चुनाव आयुक्त के प्रमुख से लेकर आयुक्तों की नियुक्ति में विपक्षी नेता और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस शामिल रहेंगे. ऐसे में चुनाव आयोग की भी विश्वसनीयता बढ़ेगी.

चुनाव आयुक्तों और मुख्य चुनाव आयुक्त को संसद में विशेषाधिकार प्रस्ताव के जरिए ही हटाया जा सकता है. यह असंभव नहीं है, लेकिन आसान भी नहीं है. कोर्ट के इस फैसले से चुनाव आयुक्त का पद और मजबूत हो जाएगा. सीबीआई चीफ की नियुक्ति भी पीएम, विपक्षी दल के नेता और सीजेआई का पैनल करता है. इसके बावजूद सीबीआई की निष्पक्षता पर सवाल उठता है. ऐसे में आयोग पर सवाल नहीं उठेंगे, यह कहा नहीं जा सकता. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद तसवीर में बड़ा बदलाव संभव नहीं है. नामों के पैनल की सिफारिश केंद्र सरकार के विधि मंत्रालय द्वारा की जाती है, जिसमें अधिकांशतया नौकरशाहों के नाम ही होते हैं.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार बनाई जा रही समिति को उसी पैनल से ही नाम का चयन करना होगा. नेता विपक्ष के विरोध करने की स्थिति में चुनाव आयुक्त के चयन में सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की भूमिका निर्णायक हो जाएगी. चुनाव आयुक्त निष्पक्ष, योग्य और ईमानदार हो, इसके साथ ही चुनावी सुधार के कानून पारित करने और आयोग को संस्थागत तौर पर मजबूत करने की जरूरत है. तभी संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को कराने की भूमिका सही अर्थों में निभा सकता है. देश को टीएन शेषन जैसा चुनाव आयुक्त मिलेगा, इस बात की उम्मीद लगाई जा सकती है.

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पहले कैसे होती थी नियुक्ति

1989 तक देश में एक चुनाव आयोग में एक ही आयुक्त होता था.लेकिन राजीव गांधी की सरकार ने एक मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ 2चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का प्रावधान कर दिया. 1990 में वीपी सिंह की सरकार आई तो फिर से एक आयुक्त की नियुक्ति की प्रक्रिया बहाल कर दी गई. इसके बाद चुनाव आयुक्त बने टीएन शेषन. शेषन के खौफ से सभी पार्टियां त्रस्त रहने लगीं. 1993 में फिर से एक संशोधन कर केंद्र सरकार ने मुख्य चुनाव आयुक्त के साथ 2 आयुक्तों की नियुक्ति का प्रावधान कर दिया. इसके पीछे वजह मुख्य चुनाव आयुक्त के फैसले पर वीटो लगाना था.

2019 में प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ एक शिकायत दर्ज की गई थी. उस वक्त एक चुनाव आयुक्त अशोक लवासा ने मामले में पीएम को दोषी माना, लेकिन तत्कालीन सीईसी सुनील अरोड़ा और एक अन्य चुनाव आयुक्त ने पीएम को क्लीन चिट दे दिया. अब तक प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में कैबिनेट अप्वाइंटमैंट कमेटी आयुक्तों की नियुक्ति की सिफारिश राष्ट्रपति के पास भेजती थी, जिसे राष्ट्रपति मंजूर करते थे. अब प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता का पैनल इस नाम का चुनाव करेगा.

क्या है निर्वाचन आयोग

भारत निर्वाचन आयोग एक स्वायत्त संस्थान है जिसका गठन भारत में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से चुनाव कराने के लिए किया गया था. भारतीय चुनाव आयोग की स्थापना 25 जनवरी, 1950 को की गई थी. आयोग में वर्तमान में एक मुख्य चुनाव आयुक्त और 2 चुनाव आयुक्त होते हैं. जब यह पहलेपहल 1950 में गठित हुआ तब से और 15 अक्टूबर, 1989 तक केवल मुख्य निर्वाचन आयुक्त सहित यह एक एक-सदस्यीय निकाय था.

16 अक्टूबर, 1989 से 1 जनवरी, 1990 तक यह मुख्य निर्वाचन आयुक्त आर वी एस शास्त्री और निर्वाचन आयुक्त के रूप में एसएस धनोवा और वीएस सहगल सहित तीन-सदस्यीय निकाय बन गया. 2 जनवरी, 1990 से 30 सितंबर, 1993 तक यह एक एक-सदस्यीय निकाय बन गया और फिर 1 अक्टूबर, 1993 से यह तीन-सदस्यीय निकाय बन गया.

मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति भारत का राष्ट्रपति करता है. मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्यकाल 6 वर्ष या आयु 65 साल, जो पहले हो, का होता है जबकि अन्य चुनाव आयुक्तों का कार्यकाल 6 वर्ष या आयु 62 साल, जो पहले हो, का होता है. चुनाव आयुक्त का सम्मान और वेतन भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के सामान होता है. मुख्य चुनाव आयुक्त को संसद द्वारा महाभियोग के जरिए ही हटाया जा सकता है. भारत निर्वाचन आयोग के पास विधानसभा, लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्रपति आदि चुनाव से संबंधित सत्ता होती है जबकि ग्रामपंचायत, नगरपालिका, महानगर परिषद और तहसील एवं जिला परिषद के चुनाव की सत्ता संबंधित राज्य निर्वाचन आयोग के पास होती है.

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