राजनीतिक दलों में विरोध एक स्वाभाविक बात होती है. नेता एक दूसरे की आलोचना भी करते हैं. यह विरोध वैचारिक मतभेद तक स्वाभाविक होते हैं. जब मसला व्यक्तिगत विरोध पर आ जाये तो उसकी वजहें अलग होती हैं. कांग्रेस के साथ जनसंघ से लेकर भाजपा बनने तक यह विरोध वैचारिक मतभेद के साथ था. बहुत सारे मुद्दों पर अलग होने के बाद भी कांग्रेस-भाजपा में तल्खियों की हद के पार यह विरोध नहीं गया. जवाहरलाल नेहरू से लेकर सोनिया गांधी तक यह विरोध शालीनता की सीमा में थी. 1998 में सोनिया गांधी के विदेशी होने का मुद्दा भाजपा ने उठाया था. छोटे नेताओं ने भले ही ‘गोरी चमडी’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया हो पर भाजपा के बड़े नेताओं ने शालीनता की हद को पार करके कभी कोई बात नहीं की थी. ‘अटल आडवाणी’ युग तक यह शालीनता बनी रही. 2014 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा ने कांग्रेस के भ्रष्टाचार पर हमला किया पर शालीनता के पार कोई टिप्पणी नहीं की.
2014 के लोकसभा चुनाव में बहुमत से मिली जीत ने पार्टी में एक अभिमान भर दिया. जो घमंड की सीमा के पार चला गया. इसके बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी के लिये ‘पप्पू’ और ‘मंदबुद्धी‘ जैसे ना जाने कितने शब्दों का प्रयोग शुरू किया. हैरत की बात यह थी कि बड़े नेताओं ने ऐसे शब्दो का चयन किया. छोटे नेता तो मर्यादा की सीमाओं का लांघ ही गये. सोनिया गांधी के लिये ‘विधवा’ जैसे शब्दों का चयन हुआ तो प्रियंका गांधी के चुनाव प्रचार में उनकी कदकाठी को ही निशाने पर लिया गया. यह विरोध राजनीतिक बोली से अलग दिखता है. भाजपा का कांग्रेस विरोध तो समझ आता है पर राहुल गांधी के व्यक्तिगत विरोध की वजहें समझ से परे हैं.