पिछले 2–3 महीनों से जब से लोकसभा चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हुई है तब से दलित अत्याचार या प्रताड़ना की कोई खबर ऐसी नहीं आई है जो सुर्खी बनी हो. आदर्श आचार संहिता लगने के बाद देश के किसी भी कोने में किसी सवर्ण ने दलित दूल्हे को घोड़ी चढ़ने से नहीं रोका है, नाई के यहां हजामत करवाने पर किसी दलित की धुलाई पिटाई नहीं हुई है, जींस पहनने पर किसी दलित युवा को सबक नहीं सिखाया गया है और तो और हैरतअंगेज तरीके से मोब लिंचिंग की कोई वारदात नहीं हुई है. गौ रक्षक भी खामोश हैं शायद उनकी लाठिया घर के किसी कोने में सरसों का तेल पी रहीं हैं.

बात सिर्फ इतनी सी है कि चुनाव सर पर हैं इसलिए इन सब शुभ और प्रिय कार्यों पर अघोषित रोक लग गई है क्योंकि सभी को दलितों के वोट चाहिए जिससे उनकी सहमति से दलित प्रताड़ना का सनातनी काम पुनः 23 मई के बाद प्रारम्भ किया जाकर हिन्दू धर्म और संस्कृति की रक्षा की जा सके. दूसरे शब्दों में कहें तो सनातनी परंपरा का निर्वाह किया जा सके सवाल या चुनौती 2022 या 2024 तक देश के विश्व गुरु बनने की जो है.

आजादी के 70 सालों बाद देश जागरूक तो हुआ है. 70 – 80 के दशक की तरह दलित वोट अब डरा धमका कर नहीं बल्कि पुचकार कर लिए जाने लगे हैं. कल तक भाजपा जैसी हिंदूवादी पार्टियां जो दलित बस्तियों में जाकर वोट मांगना अपनी तौहीन समझती थीं उनके आका और कर्ता धर्ता इन निकृष्ट शूद्रों के घर जाकर भोजन करने लगे थे और अब तो समारोह पूर्वक उनके पैर धोने लगे हैं. बात या दलील एकदम सटीक और सही है कि और कितने अच्छे दिन चाहिए.

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