महाराष्ट्र व हरियाणा सहित 51 विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनावों के नतीजे बताते हैं कि आम लोग राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, कश्मीर और मंदिर की राजनीति की हकीकत अब समझने लगे हैं. गर्त में जाती अर्थव्यवस्था और बढ़ती बेरोजगारी से त्रस्त वोटरों ने स्पष्टतौर पर भाजपा से असहमत होते दम तोड़ते विपक्ष को ताकत देना शुरू कर दिया है.

महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके के बीड़ जिले की परली विधानसभा से अपने चुनावप्रचार अभियान को शुरू करने वाले भाजपा अध्यक्ष और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पहले ही भाषण में अपनी मंशा जाहिर कर दी थी कि वे महाराष्ट्र और हरियाणा की सत्ता राष्ट्रवाद के मुद्दे पर कायम रखना चाहते थे. अपने भाषण को यथासंभव जोशीला और जज्बाती बनाने में कोई कसर उन्होंने नहीं छोड़ी थी.

अमित शाह ने पहले भाषण में कई बार परली के मतदाताओं से कहा था कि भाजपा सरकार देशभक्त और राष्ट्रवादी है जिस ने जम्मूकश्मीर से धारा 370 को बेअसर करने की हिम्मत दिखाई. लेकिन जब नतीजे आए तो इस सीट से देवेंद्र फडणवीस सरकार की दिग्गज मंत्री और कभी के दिग्गज भाजपाई व केंद्रीय मंत्री रहे गोपीनाथ मुंडे की बेटी पंकजा मुंडे अपने चचेरे भाई एनसीपी के धनंजय मुंडे के हाथों हार गईं.

परली का मुकाबला बड़ा प्रतिष्ठापूर्ण था, जिस में पंकजा मुंडे की जीत में किसी को शक नहीं था. अमित शाह के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी परली गए और कमोबेश वही बातें दोहराईं जो अमित शाह कह चुके थे. फर्क इतना भर रहा कि नरेंद्र मोदी ने अपनी आदत के मुताबिक और भी लुभावने वादे वोटर से किए.

परली भयंकर सूखे की चपेट में है और वहां के लोग भूखेप्यासे रहते जैसेतैसे जिंदगी बसर कर रहे हैं. इन लोगों ने मोदीशाह के राष्ट्रवाद को नकारते जो चौंकाने वाला नतीजा दिया उस से यह बात साबित होती है कि अब आप भूखे, प्यासे, बेरोजगार और रोजरोज अभाव के गर्त में जा रहे लोगों से देशभक्ति के नाम पर वोट नहीं  झटक सकते.

न केवल परली या महाराष्ट्र में, बल्कि हरियाणा सहित देशभर के 51 विधानसभा उपचुनावों में वोटरों ने बहुत सख्ती से कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के मुद्दे की हवा निकाल कर रख दी है. यह ठीक है कि भाजपा इन दोनों ही राज्यों में सब से बड़े दल के रूप में उभरी लेकिन उस की जमीन लोकसभा और पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले बड़े पैमाने पर दरकी है. जिस सेभगवा खेमे में चिंता का माहौल  झारखंड और दिल्ली के विधानसभा चुनावों को ले कर पसर गया है कि अगर वहां भी ऐसा ही हुआ तो हो ऐसा भी सकता है कि महाराष्ट्र और हरियाणा में जैसेतैसे लाज बच गई लेकिन इन दोनों राज्यों में भी बचेगी, इस की कोई गारंटी नहीं. अपने हर भाषण और रैली में मोदीशाह ने जगहजगह उत्साहपूर्वक परली की तरह ‘राग कश्मीर’ एक दुर्लभ उपलब्धि की तरह अलापा था.

महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों को लेकर हर कोई आश्वस्त था कि दोनों राज्यों में भाजपा पहले से ज्यादा सीटें और वोट ले जा कर कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के मुद्दे को शानदार तरीके से भुना लेगी, लेकिन हुआ उलटा. दोनों ही राज्यों में उस के वोट और सीटें दोनों घटे. किसी भी राज्य में वह अकेले दम पर सरकार बनाने की हालत में नहीं रही. महाराष्ट्र में सहयोगी दल शिवसेना आंखें दिखा रही थी.

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हकीकत बयां करते आंकड़े

धारा 370 का पासा कैसे गिरती जीडीपी और अर्थव्यवस्था के चलते फुस्स हो कर रह गया, इसे आंकड़ों की जबानी समझें तो भाजपा हर जगह हर तरह से नुकसान में रही है. मुद्दत बाद लोगों ने अपनी बुद्धि, विवेक का इस्तेमाल करते वोट किया.

महाराष्ट्र में पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा की 17 सीटें घटीं और वोट प्रतिशत साढ़े 5 फीसदी कम हुआ. लोकसभा चुनाव में वह 140 विधानसभा सीटों पर बढ़त पर थी लेकिन इस बार 105 सीटों पर सिमट कर रह गई. 2014 के विधानसभा चुनाव में उसे 31.2 फीसदी और लोकसभा चुनाव में 27.8 फीसदी वोट मिले थे जो इस बार 25.7 फीसदी रह गए.

कुछ ऐसी ही दुर्गति उस के सहयोगी दल शिवेसना की भी हुई जिसे 2014 में 19.8 और लोकसभा चुनाव में 23.7 फीसदी वोट मिले थे. इस बार उसे महज 16.5 फीसदी ही वोट मिले. 56 सीटें ले गई शिवसेना को 2014 में 63 सीटें मिली थीं जबकि लोकसभा चुनाव में वह 110 विधानसभा सीटों पर बढ़त पर थी.

यानी, लोकसभा चुनाव में भाजपा व शिवसेना जहां 250 विधानसभा सीटों पर आगे थीं, इस चुनाव में वे 161 सीटों पर रह गईं जो 288 विधानसभा सीटों वाले इस राज्य में स्पष्ट बहुमत से केवल

16 ही ज्यादा है.महाराष्ट्र में भाजपा ने जम कर विपक्ष का मजाक उड़ाया था कि वह है ही कहां. लेकिन जब नतीजे आए तो कांग्रेस 2 सीटों के फायदे के साथ 44 पर और उस की सहयोगी एनसीपी 13 सीटें ज्यादा ले कर 54 सीटों पर काबिज हो गई. कांग्रेस को 2014 में 13.5 फीसदी और एनसीपी को 15.6 फीसदी वोट मिले थे जो बढ़ कर क्रमश: 15.8 और 16.7 फीसदी हो गए. यह स्थिति तब है जब कांग्रेस की तरफ से सोनिया और राहुल गांधी ने न के बराबर चुनावप्रचार किया.

तमाम अनुमान और सरकारपरस्त टीवी चैनलों के एक्जिट पोल औंधेमुंह लुढ़के तो इस की वजह राष्ट्रवाद और कश्मीर का हौवा था, जिस के नीचे यह हकीकत दब कर रह गई कि महाराष्ट्र में किसान बदहाल हैं और हरियाणा की तरह वहां के नौजवान भी रोजगार को तरस रहे हैं, जिन्हें इस बात से खासा सरोकार इस सवाल के साथ रहा कि धारा 370 हटने से उन्हें क्या मिला.

हरियाणा के आंकड़े तो एकदम उलट गए. 2014 में 47 सीटें ले जाने वाली भाजपा 40 पर आ कर अटक गई जिस से लोग हैरान रह गए कि लोकसभा की सभी 10 सीटें उस ने 59.7 प्रतिशत रिकौर्ड वोटों के साथ जीती थीं. 2014 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले जरूर भाजपा को 3.3 फीसदी वोटों का फायदा हुआ लेकिन वह, दरअसल, इस चुनाव में इंडियन नैशनल लोकदल के खाते का मामूली हिस्सा था जिसे 24 फीसदी के लगभग वोट मिले थे. तब इस पार्टी को 19 सीटें मिली थीं.

लोकसभा चुनाव की बढ़त के लिहाज से देखें तो 31 सीटें जीतने वाली कांग्रेस केवल 8 विधानसभा सीटों पर आगे रही थी और भाजपा 80 सीटों पर आगे थी जो इस बार आधी रह गईं. हरियाणा से अगर इनेलो का सफाया हुआ तो इस का फायदा नवगठित जननायक जनता पार्टी यानी जेजेपी को मिला. युवा दुष्यंत चौटाला की अगुआई वाली जेजेपी को 10 सीटें 15 फीसदी वोटों के साथ मिलीं और वे किंगमेकर के खिताब से नवाज दिए गए. राजनीति दुष्यंत को विरासत में मिली है. उन के दादा ओमप्रकाश चौटाला हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे हैं और परदादा देवीलाल देश के उपप्रधानमंत्री तक रहे हैं.

आंकड़ों को अगर शब्द दें तो सम झ आता है कि स्थानीय मुद्दों ने उतना फर्क नहीं डाला जितना कि भाजपा के बड़बोलेपन और इस गलतफहमी ने डाला कि 370 का ट्रंपकार्ड हरियाणा में भी चलेगा और इतना चलेगा कि वह बबीता फोगट और योगेश्वर दत्त जैसे खिलाडि़यों को भी सिर्फ इस आधार पर जिता ले जाएगी कि कमल के फूल पर मुहर लगाना वोटर की मजबूरी है.

कश्मीर पर भारी बेरोजगारी

5 साल बाद ही सही, लोगों को भाजपा का असली चेहरा सम झ आ रहा है कि वह सिर्फ बड़ीबड़ी बातें करती है और कुछ इस तरह करती है कि लोग अपनी समस्याएं भूल कर उस की समस्याओं को अपना सम झ उसे वोट दे आते हैं. 21 अक्तूबर के पहले तक देश की अर्थव्यवस्था में कितनी गिरावट दर्ज हो चुकी थी, यह आप लोगों से छिपा नहीं रह गया था.

इन चुनावों में भाजपा ने धारा 370 के मुद्दे और राष्ट्रवाद पर लोगों को बरगलाने की कोशिश की लेकिन यह चाल कामयाब नहीं हुई क्योंकि महाराष्ट्र और हरियाणा के वोटरों ने अपनी परेशानियों पर वोट किया. यह बात ठीक है कि जोड़तोड़ कर भाजपा ने हरियाणा में सरकार बना ली किंतु महाराष्ट्र में अपने ही सहयोगी दल शिवसेना से निबटने में उसे पसीने आ गए. लोगों का मूड भी उसे सम झ आ गया कि अब हिंदुत्व, कश्मीर व राममंदिर निर्माण का तिलिस्म टूट रहा है और किसान व आम लोग अपनी बदहाली व युवा बेरोजगारी को प्राथमिकता में रख रहे हैं.

दोनों राज्यों में भाजपा सब से बड़े दल के रूप में सामने आई तो इस की वजह विपक्ष, खासतौर से कांग्रेस, का दौड़ में होना नहीं था. इस के बाद भी उसे बढ़त मिली तो बात आईने की तरह साफ है कि वह जनता ही है जो किसी भी पार्टी को मजबूत या कमजोर बनाती है. चुनावी रस्म निभा रही कांग्रेस को उस ने फिर से ताकत देना शुरू कर दिया है.

महाराष्ट्र में बुजुर्ग शरद पवार ने जो कमाल कर दिखाया उस की मिसाल हर कोई दे रहा है और लोग यह भी कह रहे हैं कि अगर कांग्रेस पूरे दमखम से लड़ी होती तो इन राज्यों का हाल भी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ सरीखा होता जहां लोगों ने भाजपा को सत्ता से बेदखल कर दिया था. हरियाणा में अगर वह भूपेंद्र सिंह हुड्डा को थोड़ा और पहले कमान सौंप देती तो उस की कुछ और सीटें बढ़ सकती थीं.

साबित यह भी हुआ है कि अब भाजपा बातों के बताशे फोड़ कर कहीं सत्ता हासिल नहीं कर सकती. इन नतीजों ने उस का प्रभाव दरकाया है तो इस की मुकम्मल वजहें भी हैं कि हर बार वह एक ही मुद्दे का लोगों पर भावनात्मक दबाव बना कर वोट नहीं हथिया सकती.

लोकतंत्र की खूबी होती है कि जनता, देर से ही सही, खुद से जुड़े मुद्दों पर वापस आती है और जो उस के पैमानों पर खरा नहीं उतरता उसे खारिज करने में देर नहीं लगाती. अब दिल्ली और  झारखंड के चुनाव में वह क्या करेगी, यह बेहद दिलचस्प बात हो चली है, खासतौर से दिल्ली में, जहां उस का मुकाबला आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल से है जो अपने जनहित के कामों और बेदाग छवि के चलते लोकप्रिय बने हुए हैं.

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झाबुआ का  झटका

भाजपा को करारा  झटका मध्य प्रदेश की  झाबुआ के प्रतिष्ठापूर्ण मुकाबले से लगा क्योंकि कांग्रेस यहां 230 में से 115 सीटों पर ही टिकी थी. आदिवासी बाहुल्य यह सीट उस के दिग्गज नेता कांतिलाल भूरिया ने रिकौर्ड 27 हजार वोटों से जीत कर सीटों की संख्या 116 कर दी तो मुख्यमंत्री कमलनाथ को यह कहने का मौका मिल गया कि जनता ने उन के कामकाज पर भरोसा जताया है.  झाबुआ में भाजपा की तरफ से पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान डेरा डाले रहे थे, लेकिन उन की मेहनत बेकार गई क्योंकि वे जैसे भी हो सिर्फ जीत के लिए लड़ रहे थे, इसलिए वोटर ने उन्हें भाव नहीं दिया.

अगर कांग्रेस यह सीट हारती तो उस की दुश्वारियां बढ़तीं क्योंकि चुनावप्रचार के दौरान भाजपा यह तक कहने लगी थी कि अगर  झाबुआ जीते तो कांग्रेस को चलता कर देंगे और शिवराज सिंह चौहान दोबारा मुख्यमंत्री बनेंगे.

उपचुनाव में रहे ये हावी

न केवल महाराष्ट्र और हरियाणा में, बल्कि 17 राज्यों की 50 विधानसभा सीटों के उपचुनावों में भी भाजपा ने खुद को पूरी तरह  झोंक दिया था. माना जा रहा था कि भाजपा सब से बड़ी पार्टी है, केंद्र और अधिकतर राज्यों में वह सत्ता में है. उस के पास साधन हैं, पैसा है. इसलिए वह अधिकांश सीटों पर जीतेगी. भाजपा 17 सीटें ही जीत पाई जबकि कांग्रेस ने 12 सीटें हथिया कर जानकारों को चौंका दिया. 21 सीटों को क्षेत्रीय दलों ने ले जा कर जता दिया कि गैरभाजपाई प्रभाव वाले क्षेत्रों में न धर्म की राजनीति चलेगी और न ही जाति के नाम पर फूट बरदाश्त की जाएगी.

भाजपा को उम्मीद के मुताबिक कामयाबी सिर्फ उत्तर प्रदेश में मिली, जहां 11 में से 7 सीटें उस ने जीतीं. यहां उसे सत्ता में होने का फायदा भी मिला और सपा, बसपा, कांग्रेस में वोट बंटने का भी. लेकिन गुजरात में वह 6 में से 3 सीटें जीत पाई जो अमित शाह और नरेंद्र मोदी का गृहराज्य है. यहां से कांग्रेस का 3 सीटें ले जाना चौंका देने वाली बात रही, क्योंकि जीडीपी और अर्थव्यवस्था यहां भी कश्मीर कार्ड पर भारी पड़े.

पंजाब की 4 में से 3 सीटें कांग्रेस ले गई जिस से साफ हुआ कि वहां कांग्रेस और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की पकड़ बरकरार है. लेकिन असम में 4 में से 3 सीटें जीत कर भाजपा ने अपने इस नए किले में कांग्रेस को सेंधमारी नहीं करने दी. सब से दिलचस्प नतीजे बिहार से आए जहां 5 में से भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली. उस के सहयोगी सत्तारूढ़ दल जेडीयू को भी महज एक सीट से तसल्ली करनी पड़ी. जेल की सजा काट रहे लालू यादव की राजद 2 सीटें ले गई तो असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम को खाता खोलने का मौका मिल गया. यकीन नहीं होता कि यह वही राज्य है जहां लोकसभा चुनाव में भाजपा और जदयू ने मिल कर कांग्रेस और राजद को वोटों और सीटों के लिए तरसा दिया था.

तमिलनाडु में दोनों सीटें एआईएडीएमके जीत ले गई और केरल में भी 5 में से 2-2 सीटें कांग्रेस व सीपीआई ने बांट लीं और एक सीट इंडियन मुसलिम लीग के खाते में गई. पुदुचेरी की एक सीट पर चुनाव हुआ था जहां कांग्रेस बाजी मार ले गई. ओडिशा और तेलंगाना की एकएक सीट क्रमश: बीजद और टीडीएस के खाते में गईं, लेकिन सिक्किम में असम की तरह भाजपा बढ़त पर रही जहां 3 में से 2 पर वह जीती. अरुणाचल प्रदेश की एक सीट निर्दलीय के खाते में गई.

भाजपा को सब से ज्यादा निराशा कांग्रेस शासित राज्यों मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हुई जहां एकएक सीट पर चुनाव था. ये दोनों सीटें कांग्रेस ने जीतीं. राजस्थान की 2 में से एक सीट कांग्रेस के और एक सीट आरएलपी के खाते में गई.

 दो युवाओं का उदय, एक अस्त

हरियाणा में जेजेपी के दुष्यंत चौटाला ने 10 सीटें ले जा कर भाजपा का खेल ज्यादा बिगाड़ा या फिर कांग्रेस का, यह कह पानमुश्किल है. लेकिन एक दिलचस्प बात यह वहां से उजागर हुई कि अब दलित और जाट वोटर साथ आने से परहेज नहीं कर रहे. हरियाणा में भी अगर कश्मीर, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद वगैरह नहीं चले तो यह वहां आर्य समाज के प्रभाव का नवीनीकरण ही कहा जाएगा जिस के हिंदुत्व के अपने अलग माने हैं जो भाजपा के हिंदुत्व सरीखे ब्राह्मण, पंडित, पूजापाठ और कर्मकांड आधारित नहीं है. हरियाणा में भी महाराष्ट्र की तरह मुसलमानों ने भाजपा की तरफ  झांका भी नहीं क्योंकि गौरक्षा की आड़ में मौबलिंचिंग की सब से ज्यादा वारदातें उसी राज्य में हुईं.

सरकार बनाने के लिए दुष्यंत चौटाला ने भाजपा का पल्लू थामा. लेकिन यह गठबंधन ज्यादा चल पाएगा, यह कहना मुश्किल है क्योंकि जाट कभी भाजपा से खुश नहीं रहे और दोबारा मुख्यमंत्री बनाए गए मनोहर लाल खट्टर का जाट न होना, दुष्यंत चौटाला को भारी भी पड़ सकता है. वे युवा होने के नाते हरियाणा की राजनीति में चमके हैं. इस चमक को बरकरार रखने के लिए उन्होंने अगर भाजपा के हिंदुत्व से इत्तफाक रखा, तो बात कभी भी बिगड़ सकती है.

शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे ने भी राजनीति में धमकाकेदार एंट्री की है जिन्होंने मुंबई की वर्ली सीट रिकौर्ड 67,427 वोटों से जीत कर शिवसेना को मुंबई में जश्न मनाने का मौका दे दिया, वरना मुंबई में शिवसेना की हालत खस्ता ही रही. उद्धव ठाकरे और भाजपा के संबंधों की असहजता किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही. नतीजे आते ही शिवसेना इस बात पर अड़ गई थी कि 50-50 के फार्मूले के तहत आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाया जाए तो यह कमजोरी से उपजी आक्रामकता की कलह ही सम झ आती है.

लोकसभा चुनाव में जहां कई गुमनाम नेता मोदी लहर पर सवार हो कर लोकसभा पहुंच गए थे वहीं गुजरात के युवा, पिछड़े वर्ग के लोकप्रिय नेता अल्पेश ठाकोर, जो खुद को गुजरात का उपमुख्यमंत्री तक कहने लगे थे, की हार बताती है कि वहां के लोगों को भी बातों के बताशे रास नहीं आए. ये वही अल्पेश ठाकोर हैं जो हार्दिक पटेल के साथसाथ पिछड़े वर्ग के हाहाकारी नेता के रूप में उभरे थे और कांग्रेस में शामिल हो कर विधानसभा चुनाव जीते भी थे. इस बार वे अपनी राधनपुर सीट से ही कांग्रेसी उम्मीदवार रघु देसाई से हार गए.

भाजपा में जा कर अल्पेश दुर्गति का शिकार क्यों हुए, इस पर गुजरात कांग्रेस अध्यक्ष अमित चावड़ा की यह प्रतिक्रिया उल्लेखनीय है कि लोग मुद्रास्फीति और बेरोजगारी जैसे मुद्दों से परेशान हैं और ये नतीजे उसी गुस्से की देन हैं. अल्पेश ठाकोर के सहयोगी धवल सिंह  झाला भी अल्पेश के साथ भाजपा में गए थे और भाजपा ने उन्हें बायड सीट से टिकट दिया भी था लेकिन दलबदल के साथसाथ पिछड़ा वर्ग आरक्षण आंदोलनकारी इन युवा नेताओं का भगवा खेमे में जाना उन्हीं के क्षेत्रोंं और जाति के लोगों को पसंद नहीं आया.

महाराष्ट्र की सतारा लोकसभा सीट के उपचुनाव से और ज्यादा स्पष्ट तरीके से साबित हुआ जहां भाजपा उम्मीदवार और शिवाजी के वंशज उदयनराजे भोंसले एनसीपी के उम्मीदवार श्रीनिवास पाटिल के हाथों 87 हजारों वोटों से हारे.

उदयनराजे के पक्ष में नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने बड़ी चुनावी रैलियां भी की थीं और वहां  जम कर राष्ट्रवाद की गजल गाई थी जो वोटरों ने नहीं सुनी, तो इशारा साफ है कि अब न तो चाटुकार चलेंगे और न ही पद के लालच में भाजपा में शामिल हो रहे नेताओं को वोटर सिरआंखों पर बैठाएगा.

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 दलित वोट और मायावती की झल्लाहट

महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजों के अलावा उपचुनावों से यह बात और स्पष्ट हुई है कि दलित वोटर फिर से कांग्रेस की तरफ लौट रहा है जिसे ले कर बसपा प्रमुख मायावती अपनी  झल्लाहट छिपा नहीं पाईं. इन दोनों ही राज्यों में बसपा का खाता नहीं खुला. हरियाणा में 2014 तक बसपा खासे वोट और सीटें ले जा कर समीकरण गड़बड़ा देती थी और महाराष्ट्र के विदर्भ में भी वह दलित वोट ले जा कर भाजपा को फायदा जबकि कांग्रेस व एनसीपी को नुकसान पहुंचाती थी.

बौद्ध बाहुल्य इलाके विदर्भ के नागपुर में इस बार मायावती खूब गरजी और बरसी थीं. उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लेने तक की बात कही थी, लेकिन यहां का दलित वोटर इस बार कांग्रेस और एनसीपी के साथ गया जिस से बसपा के साथसाथ नुकसान भाजपा का भी हुआ. विदर्भ इलाके, जहां बौद्ध, दलित वोटों की खासी तादाद है, में कांग्रेसएनसीपी को रिकौर्ड 10 सीटों का फायदा हुआ. भाजपा की सब से बुरी गत इसी इलाके में हुई जहां उसे 2014 के मुकाबले 15 सीटें कम मिलीं.

मायावती दलित वोटों को यूपीए के नजदीक जाते देख हैरानपरेशान हैं. दलित मतदाता अब उन पर भरोसा नहीं कर रहा है. हरियाणा में दलित बाहुल्य सीटों पर कांग्रेस को 5 सीटों का फायदा हुआ है जबकि भाजपा ने 3 पर नुकसान उठाया है. हरियाणा की 90 में से 32 सीटों पर दलित आदिवासी वोटरों की तादाद 15 फीसदी से ज्यादा है. इन में से भाजपा महज 11 सीटें ही जीत पाई. इसी तरह महाराष्ट्र में 100 सीटों पर दलित आदिवासी वोटरों की तादाद 15 फीसदी से ज्यादा है जिन में से भाजपा को केवल 36 मिलीं, बाकी 64 कांग्रेसएनसीपी और दूसरे दल ले गए.

साफ दिख रहा है कि दलित आदिवासी वोटों के लिहाज से ये नतीजे भाजपा के लिए चिंताजनक हैं और मायावती के लिए भी क्योंकि इस वर्ग ने भाजपा के धारा 370, मंदिरनिर्माण और राष्ट्रवाद के साथ मायावती के दलितप्रेम को भी बेरहमी से ठुकरा दिया.

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