ईवीएम मशीन में नोटा यानि इनमें से कोई नहीं वाला बटन एक बेमतलब की चीज है. मतदान प्रतिशत बढ़ाने इसका प्रावधान साल 2013 के चुनाव से चुनाव आयोग ने उन मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाने किया था जो किसी को वोट नहीं देना चाहते. तब लोगों ने उत्साहपूर्वक इस का उपयोग किया भी था. लेकिन बाद में उन्हें समझ आया कि इससे हासिल क्या हुआ उउन्होंने रामलाल और श्यामलाल दोनों उमीदवारों को वोट नहीं दिया फिर भी इनमे से कोई एक चुन लिया गया तो तटस्थता या विरोध के माने क्या रह गए जबकि कई सीटें ऐसी भी थीं जिन पर नोटा का प्रतिशत हार जीत के अंतर से ज्यादा था.

मिसाल मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव की लें तो साल 2013 में 230 में से 54 सीटें ऐसी थीं जिन पर नोटा को मिले वोट हार जीत के अंतर से ज्यादा थे और कई सीटों पर नोटा तीसरे नंबर पर था जिसका कोई घोषित प्रत्याशी नहीं था. फिर इन वोटों का औचित्य क्या रह गया यह बात समझ से परे है जिनकी गिनती न हार में होती न जीत में.

राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों की पसंद न पसंद के हिसाब से बात ठीक वैसी ही है जैसे किसी नास्तिक को यह कहते बहला फुसलाकर मंदिर तक ले जाया जाये कि कोई बात नहीं जो भगवान को नहीं मानते लेकिन मंदिर जाने में क्या हर्ज है. जबकि हर्ज यह है कि जब पूजा पाठ होते ही रहना है तो भीड़ बढ़ाने का मतलब क्या जाहिर है सिर्फ यह दिखाना कि बड़ी संख्या में लोग मौजूद थे. जबकि होना यह चाहिए कि किसी विधान सभा क्षेत्र में अगर मतदान 50 फीसदी से कम है तो यह मान लेना चाहिए कि बचे 50 फीसदी वोट नोटा को गए हैं यानि वहां के लोग किसी को नहीं चाहते लेकिन इसके लिए मतदाताओं को मतदान केंद्र तक लाने की वाध्यता क्यों क्या मूर्ति पूजा का विरोध करने मंदिर जाना जरूरी है.

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