किसी को आभिजात्य तरीके से बेज्जत करने के लिए अपरिपक्व से बेहतर कोई दूसरा शब्द डिक्शनरी में हो भी नहीं सकता. नादान, नासमझ अनुभवहीन, बच्चा या कम बुद्धि वाला राहुल गांधी को कहतीं तो यह बात दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के व्यक्तित्व से न तो मेल खाती और न ही उस पर इतना ध्यान दिया जाता जितना कि दिया जा रहा है. एक वक्त में नेहरू-गांधी परिवार के सामने सर झुकाये हाथ बांधे अर्दलियों की तरह खड़ी रहने बाली शीला दीक्षित में एकाएक ही इतनी हिम्मत कहां से आ गई कि वे राहुल गांधी को घुमा फिराकर ही सही पप्पू कह बैठीं, यह कोई शोध का विषय नहीं है. यह बड़ी कड़वी हकीकत है कि राहुल-सोनिया गांधी की अनदेखी उनसे बर्दाश्त नहीं हो रही थी जिसके चलते महज ध्यान बटाने के लिए शीला दीक्षित ने एक गैर जरूरी बात कह डाली जिसका न मौसम था, न मौका था और न ही कांग्रेस में दस्तूर है.
बात अब बाजार में आ ही गई है तो तय है बहुत दूर तक जाएगी. मुमकिन है दो-चार और बूढ़े कांग्रेसी अपनी विदाई या सन्यास की स्क्रिप्ट इस तरह लिखना पसंद करें. ये शीला की तरह ही वे लोग होंगे जो हिम्मत हार बैठे हैं और उन्हें समझ आ गया है कि अब कांग्रेस में रहते सत्ता की मलाई पहले की तरह चांदी की कटोरी में रखी नहीं मिलने वाली बल्कि अब खुद मेहनत कर अपनी जमीन और जनाधार बनाना होगा जो इस पकी उम्र और परिपक्वता की स्थिति में इनसे तो होने से रहा.
ये वही शीला दीक्षित हैं जिन्हें जब कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट किया था तब उन्हें इस फैसले में यह अपरिपक्वता नजर नहीं आई थी. जिस नेत्री की हैसियत अपनी खुद की सीट जीतने की न हो वह क्या खाकर यूपी की सत्ता कांग्रेस को दिला पाएगी. वह ब्राह्मण वोट भी उन पर भरोसा नहीं करता जिसके दम पर कांग्रेस और राहुल गांधी यूपी में वापसी नहीं तो बेहतर मुकाम का ख्वाब देखने लगे थे. जल्द ही राहुल ने भूल सुधारी और अखिलेश यादव से हाथ मिला लिया नतीजतन शीला दीक्षित हाशिये पर आ गईं और उन्हें प्रचार की जिम्मेदारी देने काबिल भी नहीं समझा गया.
बात बुरी लगने वाली तो थी क्योंकि हड़बड़ाए मीडिया ने भी शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पेश किए जाने पर अच्छा रेस्पांस दिया था लेकिन चार दिन बाद ही सभी को समझ आ गया था कि कांग्रेस अब कुछ भी कर ले उसका हर दांव उल्टा पड़ेगा. भाजपा, सपा और बसपा के मुकाबले न तो उसके पास जमीनी नेता हैं और न ही मतदाता की दिलचस्पी उसमें रह गई है. सबसे बड़े सूबे में खुद को बनाए और बचाए रखने के लिए उसने एक बेहतर रास्ता, सपा से गठबंधन का चुना जिसका नतीजा भी सामने है कि अब पसीने बसपा और भाजपा दोनों को छूट रहे हैं. सबसे अहम बात मुद्दत से कोई और तो क्या क्या सोशल मीडिया भी राहुल गांधी को पप्पू नहीं कह रहा था. ऐसे में राहुल गांधी अपरिपक्व हैं अभी उन्हें और समय दिया जाना चाहिए जैसी बात ठीक वैसी ही है कि कुनबे का कोई बुजुर्ग बच्चे की तरह पैर पटक कर रोये.
बात अकेले शीला दीक्षित की ही नहीं है. यूपी में एक रणनीति के तहत कांग्रेस ने सभी दिग्गजों को प्रचार से दूर ही रखा है जिसका मकसद राहुल की छवि चमकाना ही है. यह कदम कितना कारगर साबित होगा यह तो 11 मार्च को पता चलेगा लेकिन सवर्ण कांग्रेसी नेताओं को अपना भविष्य खतरे में लग रहा है. इसके साथ ही कांग्रेस को भी समझ आ रहा है कि उसने अपना परंपरागत दलित पिछड़ा वोट बैंक इन्हीं सामंतवादी नेताओं पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करने की वजह से खोया था जो बेपेंदी के लोटे की तरह हमेशा कुर्सी की तरफ लुढ़के थे. राहुल गांधी कोई चमत्कारी नेता नहीं हैं, लेकिन कांग्रेस को वापस लड़ाई में लाने के लिए कुछ अपरिपक्वताएं दिखा रहे हैं तो पप्पू तो कहे ही जाएंगे. वैसे भी पुराने पापियों से छुटकारा पाना एकदम आसान काम है भी नहीं. पूरे देश में कांग्रेस दलित आदिवासियों और पिछड़ों से दूर रहने की सजा किस तरह भुगत रही है यह बात किसी सबूत की मोहताज नहीं.