भारत कृषि प्रधान देश है. लिहाजा, यहां बहुतायत में खाद्यान्न उत्पन्न होता है. लेकिन सरकार की पुरानी व अप्रासंगिक नीतियों के चलते न सिर्फ हमारे देश का अनाज गोदामों में सड़ता है बल्कि अन्य देशों से आयात करने का अतिरिक्त भार भी देश को वहन करना पड़ता है. वर्षों पुरानी दोषपूर्ण नीतियों व खाद्यान्न खरीद के औचित्य पर सवाल उठा रहे हैं कपिल अग्रवाल.
सरकार की नीतियां एक बार बन गईं सो बन गईं. फिर चाहे उन की जरूरत हो या न हो, बदस्तूर चलती रहती हैं, बेशुमार पैसा पीती रहती हैं. हर साल बजट में उन नीतियों पर मय इन्क्रीमैंट अरबोंखरबों रुपए लुटाए जाते हैं और नतीजा सिफर ही रहता है. ऐसी ही बरसों पुरानी एक नीति है-खाद्यान्नों की खुली खरीद.
न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर आधारित यह नीति आजादी प्राप्त होने के बाद वर्ष 1950 में तब लागू की गई थी जब हमारे देश में भुखमरी थी और हम पूरी तरह आयात पर निर्भर थे. खासकर अनाज के मामले में भारत आत्मनिर्भर नहीं था और तब समयानुसार सरकार ने किसानों को गेहूं, चावल आदि का उत्पादन करने के लिए तमाम प्रोत्साहन दिए. एक निश्चित मूल्य, जिसे न्यूनतम समर्थन मूल्य कहा गया, पर सरकार ने स्वयं खरीदारी कर के अपनी स्वयं की यानी राशन की दुकानों के माध्यम से रियायती दरों पर जनता को गेहूं, चावल, चीनी आदि उपलब्ध कराया.
उस समय के लिहाज से यह नीति बिलकुल ठीक थी पर अब जबकि स्वयं सरकार की संसदीय समिति व कई आयोग इस नीति को समाप्त करने या बदलने की सिफारिश कर चुके हैं, नीति न केवल जारी है बल्कि हर साल लगभग 80 हजार करोड़ रुपए की भारीभरकम राशि बरबाद की जाती है. अनाज खासकर गेहूं की खरीद, भंडारण, रखरखाव आदि के अलावा भारतीय खाद्य निगम यानी एफसीआई व उस के स्टाफ के वेतन, भत्ते आदि के समस्त खर्चे इस में शामिल हैं.
आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें
डिजिटल

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं
- सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
- देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
- 7000 से ज्यादा कहानियां
- समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
- 24 प्रिंट मैगजीन