राजनीतिक दल कितना भी कहे कि वो जाति धर्म की राजनीति नहीं करते, पर वोट के लिये जाति धर्म का मोह छोड़ना मुश्किल काम है. उत्तर प्रदेश में पिछले 27 साल से राजनीति दलित और पिछड़ों के आसपास घूम रही है. मंडल कमीशन लागू होने के बाद से राजनीति और सत्ता में सवर्ण यानि ठाकुर, ब्राह्मण और बनिया हाशिये पर चले गये. सवर्णो की राजनीति करने वाली भारतीय जनता पार्टी ने जब 2014 के लोकसभा चुनावों में पिछड़ों की राजनीति शुरू की, तो सवर्ण वहां बेचैनी अनुभव करने लगा. ऐसे में अपनी साख खो चुकी कांग्रेस को लगा कि सवर्ण राजनीति से ही सत्ता में उसकी वापसी हो सकती है. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के पहले कांग्रेस ने जब गांव गांव जाकर यह देखने की कोशिश की तो पता चला कि सवर्ण आज के दौर में सबसे अधिक असमंजस में है. कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की राजनीतिक प्रयोगशाला में सवर्ण वोटों के लिये नया प्रयोग शुरू किया है.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस चौथे नम्बर की पार्टी है. उसे यह उम्मीद तो नहीं है कि वह बहुमत से सरकार बना लेगी. इसके बाद भी सवर्ण राजनीति की तरफ कदम बढ़ाकर नया संदेश देने की कोशिश की है. कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में शीला दीक्षित को अपना मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया है. प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष राज बब्बर के साथ प्रदेश प्रभारी गुलाम नबीं आजाद भी इस श्रेणी में आते है.
कांग्रेस संजय सिंह और कुंवर आरपीएन सिंह को भी चुनावी जिम्मेदारी देने जा रही है. कांग्रेस अपनी राजनीति से भाजपा को ज्यादा से ज्यादा नुकसान पहुंचाने की कोशिश में है. उत्तर प्रदेश में 18 से 20 फीसदी सवर्ण वोटर है. यह एकजुट नहीं है. ठाकुर, ब्राह्मण और बनिया के रूप में यह वोटर बंटा हुआ है. भाजपा की केन्द्र सरकार के फैसलों से सवर्ण परेशान है. ऐसे में कांग्रेस अपने लिये नये अवसर देख रही है.
बात केवल भाजपा-कांग्रेस की नहीं है. सपा और बसपा भी अपने बेस वोट दलित और पिछड़ों को छोड़कर सवर्ण वोट बैंक की तरफ फोकस करने लगी है. अखिलेश सरकार ने सवर्ण वोटरों को रिझाने के लिये समाजवादी श्रवण यात्रा शुरू की. ब्राहमण वोट के लिये बसपा ने पहले ही सोशल इंजीनियरिंग की शुरुआत कर रखी है. जैसे जैसे बसपा से दलित नेताओं का पलायन हो रहा है बसपा ब्राहमण वोट बैंक को मजबूती से पकड़ने लगी है. वह खुद को ब्राहमणों की सबसे बडी हितैषी साबित करने में जुटी है. कभी ‘ठाकुर, ब्राहमण बनिया चोर’ का नारा देने वाले सवर्णो को मनुवादी कहते थे. आज वह भी सवर्ण वोटों के लिये नये नये प्रयोग कर रहे हैं.
राजनीति समीक्षक योगेश श्रीवास्तव कहते है ‘सवर्ण वोटर अभी एक जुट नहीं है. ऐसे में कांग्रेस की चुनौती उसे एकजुट कर अपने बैनर के नीचे लाने की है. यह सही है कि सवर्ण वोटर पिछले 30 सालों से अपने को हाशिये पर मान बैठा था. उत्तर प्रदेश के चुनाव से पहले बिहार में सवर्ण गठजोड़ देखने को मिला था. सवर्ण वोटर के एकजुट होने से ही वोट प्रतिशत बढ़ता है. सवर्णो में भी तमाम तरह की परेशानियां है. 30 सालों में किसी दल ने चुनाव के पहले इतने बड़े पैमाने पर सवर्ण वोटर को अपनाने की कोशिश की है. कांग्रेस ने अपनी चाल चल दी है. अब भाजपा पर दबाव बढ़ गया है. उसे न केवल अपने चुनावी चेहरे को सामने लाना है, बल्कि उसके सामने अपने सवर्ण वोट के बनाये रखने की चुनौती भी है. कांग्रेस की कोशिश इस बहाने भाजपा को घेरने की है.’