Arvind Kejriwal : देश में इस वक़्त दो ही बड़ी पार्टियां हैं – कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी. इन दोनों ही पार्टियों की अपनीअपनी विचारधारा है, जिस पर यह चलती हैं. सालों सत्ता से दूर होने के बावजूद अपनी विचारधारा के दम पर ही ये वापस सत्ता में लौट आती हैं. लेकिन कुकुरमुत्तों की तरह अचानक उग आई पार्टियों के पास अपनी कोई सशक्त विचारधारा नहीं होती है. नतीजा पांचदस साल सत्ता में रह कर वे ऐसी गायब होती हैं कि उन का नामलेवा भी कोई नहीं बचता.
27 साल बाद भाजपा का सूखा कटा और येनकेनप्रकारेण दिल्ली की सल्तनत उस के हाथ लगी. दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में से 48 उस के खाते में आ गईं जबकि 10 साल से शासन कर रही आम आदमी पार्टी 22 पर ही सिमट गई और 1998 के बाद 15 साल तक दिल्ली पर राज कर चुकी कांग्रेस ने तीसरी बार जीरो का हैट्रिक रचा.
आम आदमी पार्टी को 10 प्रतिशत का नुकसान
दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की 71 प्रतिशत स्ट्राइक रेट के साथ 40 सीटें बढ़ीं जबकि आम आदमी पार्टी को 40 सीटों का नुकसान हुआ. भारतीय जनता पार्टी ने 2020 के मुकाबले 9 प्रतिशत वोट शेयर में भी इजाफा पाया जबकि आम आदमी पार्टी को 10 प्रतिशत का नुकसान हुआ. कांग्रेस को भले एक भी सीट नहीं मिली मगर अब की चुनाव में उस का वोट शेयर भी 2 प्रतिशत बढ़ा है.
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में कई बार क्षेत्रीय पार्टियां बड़े जोरशोर से बढ़ती नजर आती हैं. जनता के बीच से अचानक उठ कर एक व्यक्ति पार्टी बना कर उस को बढ़त देता है. जनता को लगता है कि यह अपने बीच से निकला अपनी ही तरह का ऐसा आदमी है जो उस के तमाम दुखों और जरूरतों को समझता है, फिर कुछ साल बाद अचानक वही जनता उस व्यक्ति और उस की पार्टी को इतनी जोर से पटखनी देती है कि वह अपनी अंतिम सांसे लेता प्रतीत होता है. और जनता फिर राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों में आना भविष्य ढूंढने लगती है. कुछ ऐसा ही सा दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद होता दिखा. ऐसा ही उत्तर प्रदेश में हुआ यहां कई क्षेत्रीय पार्टियां अब अपनी अंतिम सांसे ले रही हैं.
देश में इस वक्त दो ही बड़ी पार्टियां हैं – कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी. इन दोनों ही पार्टियों की अपनी अपनी विचारधारा है, जिसपर यह चलती हैं. सालों सत्ता से दूर होने के बावजूद अपनी विचारधारा के दम पर ही ये वापस सत्ता में लौट आती हैं. लेकिन कुकुरमुत्तों की तरह अचानक उग आई पार्टियों के पास अपनी कोई सशक्त विचारधारा नहीं होती है. नतीजा पांचदस साल सत्ता में रह कर वे ऐसी गायब होती हैं कि उन का नामलेवा भी कोई नहीं बचता.
10 साल बाद जनता ने अपने दिल से निकाल दिया
आम आदमी पार्टी को शुरू करने से ले कर उसे अर्श तक पहुंचाने का श्रेय अरविंद केजरीवाल को जाता है तो अब पार्टी को अर्श से फर्श तक लाने का ठीकरा भी उन्हीं के सिर फूटा है. दिल्ली विधानसभा चुनाव में न केवल आम आदमी पार्टी को बड़ी हार मिली बल्कि खुद पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल भी अपनी नई दिल्ली विधानसभा सीट नहीं बचा पाए.
कट्टर ईमानदार के नैरेटिव से जनता के दिल में जगह बनाने वाले केजरीवाल को 10 साल बाद जनता ने अपने दिल से निकाल दिया. वे ईमानदारी का सर्टिफिकेट लेने जनता की अदालत में गए पर जनता ने उन्हें और उन के सभी सिपहसालारों को आइना दिखा दिया. दरअसल जन-कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर ‘फ्री’ ‘फ्री’ ‘फ्री’ सुनतेसुनते दिल्ली के लोगों के कान पक चुके थे. लोग जमीन पर भी काम चाहते थे, जो 10 वर्षों में जितना गाया गया उतना हुआ नहीं. उलटे विपक्ष द्वारा घोटालों की बातों को इतना जोरशोर से उछाला गया कि जनता को लगने लगा कि हो न हो कुछ न कुछ तो हुआ है.
एक समय था जब केजरीवाल की पार्टी ने अपनी जीत से सभी राजनीतिक दलों को चौंका दिया था, लेकिन उसी पार्टी को ऐसी बुरी हार का सामना करना पड़ा कि भविष्य में वह फिर सत्ता में आएगी इस उम्मीद पर गहरा कुहासा छा गया है. अभी तो 8 विधायक आम आदमी पार्टी से भाजपा में गए. आने वाले दिनों में पार्टी में एकजुटता की जगह और ज्यादा फूट नजर दिखाई देगी. सत्ता की लोलुपता के चलते कई आप नेताओं को भाजपा और कांग्रेस से जुड़ते दिखाई देंगे.
पार्टी ने वो कौन सी गलतियां कीं
सवाल उठता है कि केजरीवाल और उन की पार्टी ने वो कौन सी गलतियां कीं, जिन के कारण उन्हें ये हार झेलनी पड़ी? जबकि आम आदमी पार्टी ने बीते 10 सालों में कई क्षेत्रों में ऐसे काम किए जिन से दिल्ली की जनता को बहुत राहत मिली. केजरीवाल ने मोहल्ला क्लिनिक, विश्वस्तरीय स्कूल, मुफ़्त बिजली और मुफ़्त पानी जैसी योजनाओं के माध्यम से एक मज़बूत वोट बैंक तैयार किया.
इस फ्री सेवा से निचले तबके को और निम्न माध्यम वर्ग को तो काफी राहत मिली. लेकिन जैसेजैसे इस वर्ग से ऊपर जाते हैं, सवाल उठने लगते हैं कि दिल्ली की स्थिति कैसी है. दिल्ली की हालत अच्छी नहीं थी और आम आदमी पार्टी के पास यह दिखाने के लिए कुछ नहीं था कि उन्होंने इस दौरान दिल्ली में कोई सुधार किया है, चाहे वह ट्रैफिक जाम हो, अत्यधिक प्रदूषित हवा हो या पानी की समस्या हो.
जनता के लिए काम करने की इच्छा से वे राजनीति में आए हैं, इस बात को बारबार कह कर केजरीवाल ने अपनी पार्टी को कट्टर ईमानदार पार्टी की पहचान दी, मगर शराब घोटाले का जो दाग उन के दामन पर लगा, भले उस में अभी तक कोई दोषी न पाया गया और न कोई पुख्ता सबूत जांच एजेंसियों के पास हैं, बावजूद इस के भाजपा ने आप की ईमानदार छवि के खिलाफ माहौल बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी और वह जनता के दिमाग में यह बात बिठाने में सफल रही कि दाल में कुछ काला है. ईमानदार छवि के पीछे कुछ ना कुछ घोटाला है.
उपराज्यपाल ने पार्टी को ठीक से काम नहीं करने दिया
केजरीवाल और उन की पार्टी की दूसरी गलती यह थी कि वह पूरे वक़्त टकरावपूर्ण और पीड़ित की राजनीति करते रहे. 2013 में विक्टिम कार्ड खेलने के बाद 2015 में जनता ने उन्हें बड़ी जीत दिलाई, लेकिन उस के बाद से वह लगातार यह संदेश देते रहे कि केंद्र सरकार और एलजी उन्हें काम नहीं करने दे रहे हैं. अगर आप बारबार यह कहते हैं कि आप एक सेट सिस्टम के साथ काम नहीं कर पा रहे हैं, तो लोग भी सोचने लगे कि फिर आप घर पर बैठें, क्योंकि इसी सिस्टम के साथ शीला दीक्षित ने भी काम किया था और वह एक सफल मुख्यमंत्री रहीं.
हालांकि यह बात सच है कि दिल्ली के उपराज्यपाल ने आम आदमी पार्टी को कभी ठीक से काम नहीं करने दिया. अनेक योजनाओं की फाइलें जिन में जनता के हित के कई काम निर्धारित किए गए थे, एलजी लम्बेलम्बे समय तक अपने नीचे दबाये बैठे रहे. हर काम के लिए आप पार्टी को बारबार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा. नगर निगम भी लम्बे समय तक भाजपा के चंगुल में रहा, जिस के चलते शहरी व्यवस्थाएं ठीक करने में आम आदमी पार्टी को खासी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. मगर ये बातें बारबार जनता के सामने रोने से अंततः जनता भी उकता गई. उस ने भी सोचा कि जब सत्ता में बैठी पार्टी के हाथ पैरों में इतनी बेड़ियां पड़ी हैं तो क्यों न सत्ता में वह पार्टी आ जाए जो स्वतंत्र रूप से काम करने में सक्षम है.
ऐसे में जब भारतीय जनता पार्टी ने यह ऐलान किया कि केजरीवाल की पार्टी ने जनता के हित में जो बिजलीपानी, स्वास्थ्य और परिवहन सेवा की जो फ्री योजनाएं चला रखी हैं, वह बंद नहीं की जाएंगी और उन के अलावा और भी कई योजनाएं लाने की गारंटी दी तो जनता ने भी एक रोंदू पार्टी को छोड़ भाजपा के खाते में ही अपना अमूल्य वोट डाल दिया. भाजपा ने आठवें वेतन आयोग की घोषणा और कर में छूट का ऐलान कर नौकरीपेशा वर्ग को साधा. जहां झुग्गी वहां मकान और सीलिंग में राहत देने का ऐलान तो खुद नरेंद्र मोदी ने किया. लोगों ने इसे मोदी की गारंटी माना. पेयजल की समस्या और टूटी सड़कों ने दिल्ली की छवि पर जो दाग लगा रखा था, उसे भी भाजपा ने बहुत जोरशोर से उठाया. और सब से ऊपर उस ने केजरीवाल समेत आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेताओं को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल भेज कर बीच के समय में विकास के तमाम कार्यों को रुकवा दिया. इस दौरान को नई योजना आप पार्टी दिल्ली के लोगों के लिए लागू नहीं कर सकी. उसके बाद जब केजरीवाल पर अपने लिए शीशमहल बनवाने का आरोप भाजपा ने लगाया तो उनकी आम आदमी वाली छवि भी दरक गई.
आप और कांग्रेस मिल कर चुनाव लड़ते तो सीटें 37 हो जातीं
केजरीवाल से तीसरी और सब से बड़ी गलती यह हुई कि इस चुनाव में अपनी काबिलियत को उन्होंने ओवर एस्टीमेट किया. उन्होंने पहले ही यह रुख़ अपनाया कि हमें किसी की जरूरत नहीं है, कोई गठबंधन नहीं चाहिए, हम अकेले ही यह चुनाव लड़ेंगे. जबकि कांग्रेस इस विचारधारा के साथ तैयार थी कि गठबंधन कर लिया जाए, जैसा कि लोकसभा चुनाव में किया गया था.
कांग्रेस दिल्ली में जीरो थी, वह अब की चुनाव में भी जीरो ही रही. लेकिन आम आदमी पार्टी को उस ने जरूर हवा दिया. 14 सीटों पर आम आदमी पार्टी की हार का अंतर, कांग्रेस को मिले वोटों से कम है. यानी अगर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस मिल कर चुनाव लड़ते तो दिल्ली में गठबंधन की सीटें 37 हो जातीं और भाजपा 34 सीटों पर ही सिमट जाती. गौरतलब है कि यहां बहुमत के लिए मात्र 36 सीटों की दरकार थी.
केजरीवाल को दूरदर्शिता से काम लेना चाहिए था
केजरीवाल का अहम आड़े न आता तो राहुल गांधी से बातचीत कर यह आप की जीत सुनिश्चित की जा सकती थी. कांग्रेस वैसे भी दिल्ली में अभी वह ताकत हासिल नहीं कर पाई है तो शीला दीक्षित के वक़्त में थी. उस ताकत और एकजुटता को वापस पाने में अभी कई दशक लग सकते हैं. केजरीवाल को दूरदर्शिता से काम लेना चाहिए था, जिस में वे नाकाम रहे.
इस चुनाव में आम आदमी पार्टी के कई बड़े नेता चुनाव हार गए हैं. खुद अरविंद केजरीवाल नई दिल्ली से भारतीय जनता पार्टी के प्रवेश वर्मा से 4000 से अधिक वोट से हारे हैं. जंगपुरा सीट से आप उम्मीदवार मनीष सिसोदिया और पटपड़गंज सीट से आप उम्मीदवार अवध ओझा भी हार गए हैं. ऐसे में अब आम आदमी पार्टी के भविष्य को ले कर सवाल उठ रहा है कि दिल्ली हारने के बाद अरविंद केजरीवाल अब अपनी पार्टी को कैसे आगे बढ़ाएंगे.
पावर एक ग्लू की तरह होता है जो लोगों को जोड़ता है, एकजुट रखता है. कांग्रेस में भी यही दिक्कत है, वह जब तक पावर में थी सभी नेता साथ थे, लेकिन जैसे ही पार्टी पावर से बाहर आई, उस के कई दिग्गज भाजपा में शामिल हो गए. भाजपा की राजनीति अब यही कोशिश करेगी कि कैसे आम आदमी पार्टी को इतना कमजोर कर दिया जाए कि वह फिर कभी सिर न उठा सके. आने वाले दिनों में जांच एजेंसियों द्वारा आप नेताओं को पुनः परेशान कर जेल में ठूंसने की कवायद शुरू होगी. लिहाजा अरविंद केजरीवाल के लिए आगे का रास्ता काफी मुश्किल भरा रहेगा.